90 का दशक, यह वही पीढ़ी थी जिसने ना सिर्फ सदी को बदलते देखा, बल्कि समय को भी बहुत तेजी से बदलते देखा। जब इन्होंने एक दौर को पीछे छूटते और नए दौर को आते हुए देखा। नब्बे का दशक वो दशक था जब प्रकृति आज के मुकाबले ज्यादा रंगीन थीं पर जमाना काफी ब्लैक एन्ड व्हाइट हुआ करता था… हालांकि आज इसके ठीक उल्टा हैंं ज़माना तो रंगीन होता जा रहा है, पर प्रकृति की रंगीनी खोती जा रही है।
नब्बे दशक के रोमांचित कर देने वाले वाहनों का सफर
नब्बे दशक के बात करें तो सबसे पहले उस समय के वाहनों के बारे में ध्यान आता हैं। उस समय की ट्रेनों का सफर करना ही अपने आप में एक रोमांच था। वह ट्रेन इतनी धीरे-धीरे छुक-छुक करके चलती थी कि मानों कभी भी कहीं भी आसानी से उतर और चढ सकते थे। उस समय की ट्रेन प्रकृति को नजदीकी से देखने का मौका देती थीं पटरी के साथ बहती हुईं नदियाँ मन को शांति प्रदान करने का काम करतीं थीं और आज की सुपरफास्ट ट्रेन एक स्थान से दूसरे स्थान पल भर में ही पहुँचा देतीं हैं। हालांकि आज ट्रेनों से समय की बचत तो जरूर हुई हैं पर नब्बे के दशक में सफर करने का अपना अलग ही आनंद था। जब भी नब्बे के दशक की यादें मेरे जेहन में आती हैं तो दिल बाग बाग हो उठता है।
नब्बे के दशक की विंटेज कार की अपनी अलग ही पहचान हुआ करतीथीं। इसकी सुन्दरता बहुत ही आकर्षक हुआ करती थी। विंटेज कार में सफर करने का उस समय हर व्यक्ति का सपना हुआ करता था। उस समय विंटेज कार की पहुँच किसी किसी टाटा विरला के पास ही हुआ करती थी। विंटेज कार आजादी से पहले भारत की सड़कों पर राज करती थी। नब्बे के दशक में राजा-महाराजा विंटेज कारों की सवारी करते थे।
अगर दो पहिया वाहन की बात की जाए तो सबके जेहन में चेतक स्कूटर का नाम सबसे पहले आएगा, जो नब्बे के दशक का घोड़ा भी माना जाता था। नब्बे के दशक में यात्रा करने के लिए चार पहिया वाहनों की कमी के चलते दो पहिया वाहनों और बैल गाड़ियों का उपयोग ज्यादा हुआ करता था। गाँव के लगने वाले मेलों में पैसे देकर, बैल गाड़ियों में सवारी भी की जाती थी। उस समय एक ही परिवार के ज्यादा से ज्यादा लोग स्कूटर में एक जगह से दूसरी जगह घुमने जाया करते थे। वो दिन भी बहुत रोमांचित कर देने वाले हुआ करते थे। वो दिन आज भी मेरे दिल को छू लेते हैं। हालांकि नब्बे के दशक में जागरूकता की कमी के चलते यात्रा करना थोड़ा मुश्किल भी हुआ करता था और जो जागरूक और प्रकृति प्रेमी होते थे वो अपनी मंजिल की तरफ पैदल ही निकल पड़ते थे।
नब्बे के दशक की अविस्मरणीय होटल / कैपिंग
नब्बे के दशक में होटलों की संख्या बहुत कम हुआ करती थी। तो प्रकृति प्रेमी और घुमक्कड़ी लोग क्या करते थे कि वो अपने साथ कैम्प लगाने के लिए छोटे छोटे टेंट और रहने के दिनों के हिसाब से खाने पीने का सामान अपने साथ ले जाया करते थे। वो दिन अब के दिनों से बिल्कुल अलग हुआ करते थे। उसमे सैलानियों को अपने ऊपर ही आत्मनिर्भर होना पड़ता था पर अब के परिस्थिति बिल्कुल अलग हो चुकीं हैं। अब कहीं भी घुमने के लिए जाओ तो रहने और खाने की चिंता बिल्कुल नहीं होती हैं अब रहने के लिए हर प्रकार के दामों में होटल सुविधा आसानी से प्राप्त हो जाती है पर नब्बे के दशक में होटल की कमी के भी चलते घुमने का अपना ही महत्व रहता था। कुल मिलाकर बोला जाए तो, नब्बे के दशक में सुविधाओं का अभाव होते हुए भी यात्रा या कैम्पिग का अपना ही आनंद रहता था।
नब्बे के दशक की खट्टी मीठी लव स्टोरी
नब्बे के दशक की लव स्टोरी जी हाँ। ट्रेन का सफर तो आप सभी नें अपनी जिंदगी में कभी ना कभी किया ही होगा। ट्रेन एक शहर से दूसरे शहर तक दौड़ती हैं। वह लोगों को जोड़ती हैं। रिश्ते बनाती हैं। कुछ लोग साथ छोड़ जाते हैं, कुछ लोग हमेशा हमेशा के लिए एक-दूजे के हो जाते हैं। एक ऐसा ही किस्सा मेरे दोस्त विशाल यादव के साथ भी हुआ हैं। ट्रेन में यात्रा के दौरान लड़की से प्यार हुआ, इजहार फिर उन्होंने शादी भी की। ऐसा ही एक किस्सा है। विशाल यादव को गोरखपुर से सीवान तक चलने वाली पैसेंजर ट्रेन जिंदगी भर याद रहेगी। आखिर याद भी क्यों न रहे, ट्रेन में उन्हें पहला प्यार मिला। वहीं लड़की उनकी जीवन अद्र्धागिनी बनीं।
गोरखपुर निवासी विशाल यादव 1985 में MMM इंजीनियर कॉलेज कालेज में पढ़ते थे। वह हर रोज ट्रेन से अप-डाउन करते थे। उसी ट्रेन से रूबी भी सफर करती थी। वह आर्य महिला डिग्री कालेज की छात्रा थी। डेली यात्री होने के चलते उनकी मुलाकात होती रहती थी। धीरे-धीरे नजदीकियां बढ़ गईं। ट्रेन की बोगी में उन्हें प्यार हुआ, उसी में इकरार और इजहार भी हुआ। तीन साल तक दोनों ने ट्रेन से सफर किया। पढ़ाई खत्म करने के बाद दोनों ने अपने परिवार वालों के सामने शादी का प्रस्ताव रखा, जिसे मानते हुए उनका विवाह करा दिया गया। आज वहीं नब्बे की जोड़ी खुशी खुशी अपनी जिंदगी जी रहे हैं।
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जय भारत
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