अकेलेपन की ऐसी आदत लगी कि अब खुद के बिना नहीं रहा जाता | पहले दुनिया से बचने के लिए घूमने निकल जाया करता था, आजकल दुनिया को जीने घूमने निकल जाता हूँ | यूँ तो उत्तराखंड मुझसे कोई पराया नहीं हैं, मगर यहाँ के कुमाऊँ इलाक़े के जाने माने शहरों जैसे भीमताल, नैनीताल, नौकुचियाताल और अल्मोड़ा में ही घूमने हो पाया है, और वो भी परिवार वालों और दोस्तों के साथ |
तो इस बार उत्तराखंड के गढ़वाल इलाक़े में तुंगनाथ ट्रेक की ओर अकेले घूमने जाने का मन बनाया | फिर सोचा कि तुंगनाथ पहुँच ही जाएँगे तो फिर चंद्रशिला चोटी की ओर क्यों ना जाया जाए ! कुछ लोग तो देवरिया जाने को भी कह रहे थे और तस्वीरें देख कर मेरा भी मन हो ही रहा था |
उत्तराखंड
कुछ देर सोचा-विचारी कर के मैंने रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल कम्पार्टमेंट में बैठने का सोचा | हमेशा की तरह जनरल बोगी लोगों से भरी हुई थी | मज़े की बात तो ये कि इतनी भीड़ भरी ट्रेन में मेरे ठीक सामने बैठा एक नया-नया शादीशुदा जोड़ा एक- दूसरे के गालों पर खुलेआम पप्पियाँ दे रहा था | प्यार का ऐसा इज़हार देख कर अच्छा लगा | इसी जोड़े ने मुझे चाय भी खरीद कर दी | हल्द्वानी आते ही हम सभी ट्रेन से उतर गए | ऐसे जुनूनी जोड़े का नाम तक नहीं पूछ पाया |
सुबह के 5 बजे जब पूरा हल्द्वानी चुपचाप सोया था, मैं कौसानी की सीधी बस में बैठ गया | जैसे- जैसे सुबह हो रही थी, वैसे-वैसे कौसानी की ओर जाना मुझे बेहद पसंद आ रहा था | कौसानी के योगी रेस्तरां में मुझे खाने की कई चीज़ें मिल गई | रेस्तरां में बैठते ही बड़ी ज़ोर से भूख लग गई, तो मैंने सामने बैठी मोहतर्मा से उनका ऑर्डर पूछ लिया ताकि वही मंगवा लूँ | मोहतर्मा ने मुझे इज़्ज़त से अपने साथ ही टेबल पर बैठने के लिए बुला लिया | यूँ तो मैं शर्मीले और सख़्त मिजाज़ का हूँ लेकिन यहाँ मैं पिघल गया |
अगले दिन सुबह जल्दी ही मैं गोपेश्वर की ओर बस पकड़ कर निकल पड़ा | सड़क पर कुछ सरकारी काम चल रहा था, इसलिए बस रुक-रुक कर चल रही थी | किसी तरह घिसते-घिसाते मैं शाम 4 बजे गोपेश्वर पहुँच गया | पिंदर वैली मेरे पीछे थी और ऊपर था चोपता | चोपता जाते वक़्त करीब 26 कि.मी. दूर मंडल आता है | गोपेश्वर से मंडल मैं पैदल ही निकल पड़ा, मगर कुछ दूर चलने के बाद ₹1000 देकर एक सज्जन के साथ चोपता की ओर हो लिया | रात मंडल में बिताने का कोई मन नहीं था | रास्ते में कुछ हिरण देखते हुए रात 8 बजे मैं चोपता पहुँच गया | इतना थका हुआ था कि खाना खाते ही सो गया |
सुबह 5.30 बजे ही मैं ट्रेक पर निकल पड़ा | शुरुआत में तो बड़ा ज़ोर आया, मगर जैसे ही म्यूज़िक सुनने लगा तो 2 घंटे का ट्रेक जाने किस तरह से कूदते-फान्दते हो गया | रास्ते में आगे-आगे हिमालय की चमकती चोटियाँ और पीछे-पीछे साथ आते गाँव के एक प्यारे से कुत्ते की खूब तस्वीरें ली | तुंगनाथ मंदिर मंदिर के रंग देखकर मन खुश हो गया |
चंद्रशिला
मंदिर में ज़्यादा वक़्त ना लगाते हुए मैं चंद्रशिला चोटी की ओर निकल पड़ा | चलते-चलते चोटी का रास्ता कब भूल गया, पता ही नहीं चला | अब क्या करूँ? मैंने किस्मत पर भरोसा रखते हुए चढ़ना शुरू किया और जल्द ही पत्थर के बने रास्ते पर आ खड़ा हुआ | मगर इस कवायद में काफ़ी देर हो चुकी थी | सूरज निकलने के साथ ही चोटी पर कोहरा भर गया था | ऐसे में रास्ता किसी स्वर्ग से कम नहीं लग रहा था |
दोपहर को मैं फिर से चोपता उतर आया और फिर यहाँ बर्फ़ीले पानी से खूब रगड़-रगड़ के नहाया | बर्फ़ीले पानी से क्यों ? क्योंकि मेरी मर्ज़ी | ठिठुरते हुए दोपहर का खाना खाया और बस पकड़ कर सारी गाँव की ओर निकल चला | बस में सफ़र करते हुए खिड़की से कुछ सफेद- सफेद गिरते देखा | लगा बर्फ़बारी हो रही है, मगर पता चला कि वो तो ओलों के छोटे-छोटे टुकड़े थे |
सुबह के 5 बजे थे और अंधेरे में ही मैं देवरिया ताल की ओर पैदल चल पड़ा था | हाथ में सिर्फ़ एक छोटी टॉर्च थी | पहले जो अकेलापन सुहाता था, वही अब काट रहा था | मन में सबसे बड़ा डर यही था कि ग़लती से भी कोई ख़ूँख़ार जंगली जानवर ना दिख जाए |
2 कि.मी. चलने के बाद मैं एक चोटीनुमा जगह पहुँचने ही वाला था | सूरज भी कुछ ही देर में निकालने वाला था | तुंगनाथ का उगता सूरज देखना तो मेरे नसीब में नहीं था, मगर यहाँ के इतना करीब होकर भी इतनी ऊँचाई से सूरज को उगते देखने में अगर फिर चूक गया तो बड़ा दुख होगा | एक लंबी सांस भर कर मैंने चोटी की तरफ दौड़ लगा दी और सूरज उगने के ठीक पहले सबसे ऊपर पहुँच गया | इतना ऊपर कि हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों के पीछे से अभी सूरज निकला भी नहीं था | पास पड़े एक पत्थर पर बैठ कर मैंने कुछ देर छाती में लंबी सांसें भरी और हाथ मसलता हुआ इंतज़ार में बैठ गया | कुछ ही देर में आसमान नारंगी रंग में नहा गया | देवरिया ताल से उगता सूरज देखना हर एक के नसीब में कहाँ होता है !
सुबह 11 बजे मैं वापिस नीचे उतार आया और बसों में बैठ कर फिर उखीमठ-रुद्रप्रयाग-श्रीनगर-पौडी-गुंखल होता हुआ और नीचे आ गया | वैसे तो मैं लैंसडाउन भी जाना चाहता था, लेकिन रास्ते में ही ₹3000 खर्च हो गये थे, और इस ट्रिप पर मैं 4 हज़ार से ज़्यादा खर्च करने के मूड में नहीं था | वैसे भी दशहरे के कारण भीड़-भाड़ बहुत थी, तो मैंने रात गुंखल में ही कुमाऊँ का लज़ीज़ खाना खाकर और आराम करते हुए बिता दी |
कोटद्वार
कुछ देर गुंखल में घूमने-फिरने के बाद मैं कोटद्वार उतर आया | फिर यहाँ से मुझे 11.45 बजे हल्द्वानी की बस मिल गई | फिर वहाँ से एक और बस बदल कर में रात 8 बजे तक नैनीताल पहुँच गया | नैनीताल आकर लगा कि बहुत हुई अकेले-अकेले मौज मस्ती, अब किसी साथी को फ़ोन लगाया जाए | झटके में नंबर घुमाया, और दोस्त हाज़िर | फिर रात का खाना, गप्पे और आराम दोस्त के घर ही हुआ |
नैनीताल
सुबह देर तक उठने के बाद मैं मॉल रोड पर मस्ती करता रहा | फिर कैमल बैक पीक की ओर चल दिया | पहुँचने में थोड़ी मशक्कत तो करनी पड़ी मगर यहाँ से हसीन नज़ारा देखते ही साथी थकान रफूचक्कर हो गयी |
शाम को हनुमान गढ़ी से डूबते सूरज के बदलते रंगों को देखा और रात होते-होते दिल्ली की बस पकड़ ली | दिल्ली आकर हिसाब लगाया तो देखा कि ₹4500 में ये खुशनुमा ट्रिप मार आया था |
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