रूपिन पास: हिमाचल में छिपी जन्नत का सफर!

Tripoto
Photo of रूपिन पास: हिमाचल में छिपी जन्नत का सफर! 1/1 by सिद्धार्थ सोनी Siddharth Soni

जूते और मोज़े आपने उतार दिए हैं। काफी लम्बी दूर चलने के बाद अब आपका मन थोड़ी देर नंगे पैर घास पर टहलने का है। नरम घास पर टहलते हुए आपने अपने सामने देखा। तीनों और बर्फीले पहाड़ तिने नज़दीक हैं, कि हाथ बढ़ाओ और छु लो जैसे।

आपके सामने वाले पहाड़ से झरना बह रहा है। और गिरते पानी की धार कुछ ही दूरी पर बहकर आगे जा रही है। इसमें ऐसी कई धाराएँ मिलकर नदी का रूप लेंगी।

झरने के मुख पर सफ़ेद चाँद झिलमिला रहा है। ऐसा लग रहा है, मानों पानी चाँद से ही बह रहा हो। आसमान में करोड़ों तारे टिमटिमा रहे हैं, मानों किसी ने दिवाली की झालर फैला दी हो।

आपको ज़िन्दगी इतनी प्यारी कभी नहीं लगी, जितनी प्यारी रूपिन पास की ओर ट्रेकिंग करते हुए आने वाली इस जगह धांदेरास थाच पर लग रही है।

उत्तराखंड राज्य से निकलने वाली रूपिन नदी यमुना की सहायक नदी है। और जिस ट्रेक के बारे में हम आपको बता रहे हैं, उसका नाम इसी नदी के नाम पर पड़ा है : रूपिन पास ट्रेक।

Day 1

रूपिन पास

रूपिन ट्रेक उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जिले के एक छोटे से गाँव धौला से शुरू होता है। धौला पहुँचने के लिए आप देहरादून से किराए की टैक्सी या शेयर जीप ले सकते हैं।

ट्रेक की शुरुआत के पहले दिन हम धौला से सुबह 7 बजे सेवा गाँव के लिए रवाना हो गए। धौला गाँव 5100 फ़ीट ऊँचा है और सेवा गाँव 6300 फ़ीट ऊँचाई पर बसा है। दोपहर करीब साढ़े बारह बजे हम सेवा गाँव पहुँच गए, जहाँ गाँव के बच्चे मस्ती में क्रिकेट खेल रहे थे। गाँव में कुंती के सबसे बड़े बेटे कर्ण का मंदिर भी है। ये दानवीर कर्ण भगवान सूर्य और कुंती की संतान थी, जो शादी से पहले कुंती के गर्भ से पैदा हुई थी। सामाजिक लांछन से बचने के लिए कुंती ने सूर्य पुत्र कर्ण को नदी में बहा दिया, जिसे कुछ ही दूर रथ बनाने वाले कारीगरों की बस्ती के एक आदमी ने उठा लिया, पाला पोसा और बड़ा किया। इन कारीगरों को सूत्र भी कहते थे, इसलिए कर्ण को सूत्र पुत्र कर्ण भी कहा जाने लगा।

खैर, सूर्य की संतान कर्ण का मंदिर भी सेवा गाँव में बना है, जो भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है। मंदिर के दरवाज़े पर कई तरह के इनाम के कप और मैडल सजे थे। हमें बताया गया कि गाँव में कोई भी अगर कोई इनाम जीत कर लाता है तो उसे इस मंदिर में चढ़ा दिया जाता है।

Day 2
Photo of रूपिन पास: हिमाचल में छिपी जन्नत का सफर! by सिद्धार्थ सोनी Siddharth Soni

अगले दिन सुबह 7 बजे हमने सेवा गाँव से प्रस्थान किया, और रूपिन पास के ट्रेक के रास्ते में आने वाले आखिरी गाँव झाका की और कूच कर दिया। 12 कि.मी. के इस रास्ते में हम रूपिन नदी के बराबर में चल रहे थे। सेब और खुबानियों के बागों से आती खुशबू और नदी की कलकल की आवाज़ में हमने 6300 फ़ीट से 4300 फ़ीट कब चढ़ाई कर ली, पता ही नहीं चला। दोपहर 3 बजे जब हम झाका पहुँचे तो अपने सुन्दर से होमस्टे को देख कर और भी खुश हो गए। पहाड़ की चोटी पर बने इस लकड़ी के मज़बूत घर से जो पहाड़ और नदियों का नज़ारा दिख रहा था, उसे शब्दों में बयान कैसे करें, समझ नहीं आता। वो कहते हैं न कि स्वर्ग सब जाना चाहते हैं, मगर मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए ये नज़ारा देखने के लिए आपको रूपिन पास ट्रेक तो चढ़ना ही पड़ेगा।

तीसरे दिन हम झाका से धांदेरास थाच के लिए रवाना हो गए। रूपिन पास के ट्रेक में दो झरने आते हैं, निचला झरना और ऊँचा झरना। निचला झरने 11,700 फ़ीट पर है, जहाँ तक पहुँचने के लिए हमने 14 कि.मी. की चढ़ाई की। एक जगह तो चढ़ाई इतनी दुर्गम थी, कि पैरों को बड़ा संभाल कर रखना होता था। झरने तक पहुँचने से पहले ही हमें रास्ते में कुछ-कुछ बर्फ के दर्शन होने लगे थे। झरने तक पहुँचे तो लगा जैसे ऐसा नज़ारा दुनिया में सभी को ज़रूर देखना चाहिए। जहाँ तक नज़र दौड़ाओ, दूर-दूर तक कोमल हरी घास के मैदान, पर्वत और संगीत सुनाता झरना। भई वाह। हमारा अगला लक्ष्य ऊँचा झरना था, मगर चौथे दिन को हमने निचले झरने पर ही आराम करते हुए बिताया।

पाँचवें दिन हमने निचले झरने को पार किया। जमी बर्फ पर चलने कोई आसान काम नहीं है, वो भी तब जब बर्फ ढलान पर जमी हो। मगर ध्यान से चलते हुए हम निचले झरने को पार करके ऊँचे झरने तक पहुँच गए। यहाँ रूपिन नदी की पतली सी धार ने हमारा स्वागत किया। चाहें तो यहाँ भी अपना तम्बू गाड़ सकते हैं, मगर हमने सोचा की क्यों ना और ऊपर तम्बू लगाया जाए। इसलिए हम रूपिन पास के और करीब रति फेरी नाम की जगह के लिए निकल पड़े, जो 13420 फ़ीट की ऊँचाई पर है।

Photo of रूपिन पास: हिमाचल में छिपी जन्नत का सफर! by सिद्धार्थ सोनी Siddharth Soni

रति फेरी में रात को हड्डियाँ कंपाने वाली ठंड पड़ रही थी। बर्फीले पहाड़ों से आती ठंडी हवाओं ने तापमान -5 डिग्री पर जमा रखा था। मगर हमारे पास गर्म कपड़े थे, सो आराम था। शिखर तक पहुँचने के लिए हम सुबह 4 बजे उठ गए। चढ़ाई सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की थी, मगर इन डेढ़ किलोमीटर में हमें 2000 फ़ीट चढ़ना था। चढ़ाई में पहले-पहल बर्फ से सामना हुआ। गिरते-पड़ते, फिसलते हमें किसी तरह बर्फ को पार किया, मगर आखिरी के 200 मीटर की चढ़ाई सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 90 डिग्री के कोण वाली चढ़ाई के रास्ते में खूब संभल कर चलना पड़ रहा था, क्योंकि ढीली चट्टानों पर पैर जम ही नहीं रहा था। हिम्मत रखकर हमने शिखर पर जाकर ही दम लिया। रूपिन पास के शिखर को हमने फ़तेह कर ही लिया था। 15380 फ़ीट की ऊँचाई से जहाँ नज़र घुमाओ, बर्फ ही बर्फ। नीचे देखो तो ज़मीन पर बर्फ और ऊपर देखो तो पहाड़ों पर बर्फ। रूपिन पास अब हमारा था।

मुश्किलों पर चाहे करने के बाद उतरना काफी आसान लगता है। पहले 100 मीटर तो हम बर्फ में खूब फिसले, मगर फिर ऐसी दौड़ लगाई कि सांगला कांडा में जाकर कैम्प लगाके ही साँस ली। फिर अगले दिन सांगला से शिमला की बस लेली।

अब सोचता हूँ तो लगता है, सबकुछ कितना आसान था। बढ़िया जगह ठहरे, सुन्दर नज़ारे देखे, बर्फ में अठखेलियाँ की और शिखर पर चढ़कर सफलता का स्वाद भी खूब चखा। चढ़ाई चाहे कैसी भी हो, अगर कदम-कदम बढाए चलो तो ख़ुशी के गीत भी गाते चलोगे।

क्या आप कभी ऐसे सुंदर सफर पर निकले हैं? यहाँ क्लिक करें और अपने अनुभव के बारे में Tripoto पर लिखें।

रोज़ाना वॉट्सऐप पर यात्रा की प्रेरणा के लिए 9599147110 पर HI लिखकर भेजें या यहाँ क्लिक करें।

यह आर्टिकल अनुवादित है। ओरिजिनल आर्टिकल पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

Further Reads