विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के बारे तो आपने सुना ही होगा। आज से लगभग पंद्रह सौ साल पहले यह पूरी दुनिया के लिए उच्च शिक्षा का सिरमौर था, जहाँ सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि चीन, जापान, बर्मा, कोरिया, तिब्बत, फारस आदि देशों से भी विद्यार्थी पढने के लिए आते थे। इस महान विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके वैभव का अहसास करा देते हैं। आईये जानते हैं - नालंदा विश्वविद्यालय के स्वर्णिम अतीत के बारे !
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम ने 450-470 ई. वी. के बीच की थी। अत्यंत सुनियोजित ढंग से एक विस्तृत क्षेत्र में बना उस काल का यह संभवतः पहला विश्वविद्यालय था जहाँ देश-विदेश से छात्र पढने आते थे। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार तब 12000 छात्र और 2000 शिक्षक हुआ करते थे। यह एक पूर्णतः आवासीय विद्यालय था। कहा जाता है की सातवीं सदी में ह्वेनसांग ने यहाँ एक वर्ष छात्र एवं शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। आज की तरह ही उस ज़माने में भी यहाँ प्रवेश परीक्षा होती थी जो काफी कठिन मानी जाती थी, अत्यंत प्रतिभाशाली छात्रों को ही प्रवेश मिल पाता था। छात्र शिक्षा ग्रहण कर बाहर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। नौवीं से बारहवीं शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय की अन्तरराष्ट्रीय ख्याति रही। लेकिन गुप्तवंश के पतन के बाद भी सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा।
लेकिन दुर्भाग्यवश नालंदा विश्वविद्यालय को एक सनकी-चिड़चिड़े स्वभाव वाले तुर्क लुटेरे बख्तियार खिलजी ने 1199 ई. में जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया, साथ ही उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। उसने इस विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आग लगा दिया, जिससे किताबें छः महीने तक धू-धू कर जलती रहीं। दरअसल उसने देखा की यहाँ के भारतीय वैद्यों का ज्ञान उसके हाकिमो से श्रेष्ठ है। एक बार उसके हाकिम से उसका इलाज नहीं हो पाया, मज़बूरी में उसे एक बौद्ध वैद्य को बुलाना पड़ा। वैद्य ने उसका इलाज कर तो कर दिया, लेकिन फिर भी उस लुटेरे तुर्क शासक को यह बात रास नहीं आई की आखिर क्यों भला किसी भारतीय वैद्य का ज्ञान उसके हकीमों से ज्यादा हो सकता है? एहसान मानने के बजाय उसने इर्श्यावश विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया। उसने अनेक आचार्यों और बौद्ध भिक्षुओं को भी मार डाला। इस प्रकार नालंदा का यह स्वर्णिम इतिहास काल के गाल में समा गया।
बुद्ध के परम शिष्यों में से एक सारिपुत्र के जन्म व् निर्वाण के लिए भी नालंदा को जाना जाता है। इस संस्थान से जुड़े विद्वानों में नागार्जुन, आर्यदेव, वसुबन्धु, धर्मपाल, सुविष्णु, असंग, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित आदि प्रमुख हैं। प्रसिद्द चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा वृतांतों में बौद्ध भिक्षुओं की जीवनी, मंदिरों और महाविहारों की झलक मिलती हैं। धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, खगोलशास्त्र, चिकित्सा आदि यहाँ के मुख्य अध्ययन के विषय थे। अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार समकालीन शासकों द्वारा दिए गए अनेक गाँवों के राजस्व से ही इस विश्वविद्यालय का खर्च व्यय होता था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई में यहाँ ईंट से निर्मित छः मंदिर तथा ग्यारह विहारों की श्रृंखला प्राप्त हुई है, जिसका विस्तार एक वर्ग किमी से भी कहीं अधिक ही है। आकार व् विन्यास में लगभग सभी विहार एक जैसे ही हैं। इनके अलावा खुदाई में बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ, सिक्के, हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, मृदभांड, ताम्रपत्र, भित्तिचित्र आदि भी प्राप्त हुए हैं, जो इस विश्वविद्यालय के ठीक सामने के नालंदा संग्रहालय में रखे हुए हैं। ध्यान देने वाली बात यह है की यह संग्रहालय हर शुक्रवार को बंद रहता है।
नालंदा के गौरवमयी इतिहास का सफ़र अब यहीं ख़त्म होता है, लेकिन इन तस्वीरों के साथ---
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