" एक पैकेट के ₹250"
"इसके ₹250? मज़ाक मत करो यार ! इतना ही स्टफ मुझे पूना में ₹100 का मिल जाता है | "
"हिमेश रेशमिया और लता मंगेशकर को एक ही समझ रहे हो क्या भाई? "
" नहीं, नहीं, रखिए अपने पास | मुझे नहीं चाहिए| "
" हाहा , तो फिर हिमाचल प्रदेश आए किस लिए हो? पहाड़ देखने? "
पहली बार आने वालों को माल बेचने वाले का ये आख़िरी कथन ज़रूर मूर्खतापूर्ण लग सकता है | मगर देखा जाए तो 10 में से 9 मामलों में ये सच ही साबित होता है | अगर 2010 की बात करें तो हिमाचल प्रदेश, या थोड़ा और स्पष्ट बात करें तो मैक्लोडगंज बैकपैकर्स के लिए स्वर्ग हुआ करता था | यहाँ आने वाला चाहे बूढ़ा हो या जवान, भारतीय हो या फिरंगी, हर एक के लिए एक अवधारणा बना ली जाती थी कि वो फूँके बिना तो रह ही नहीं सकता ।
मैक्लोडगंज का नशा
यह वाक़या मेरे साथ तब हुआ जब साल 2010 में मैं मैक्लोडगंज में अभी तक की चार यात्राओं में से पहली यात्रा पर था | मैं अपने कुछ चुनिंदा पक्के यारों के साथ एक सुंदर से स्वर्ग की खोज में गया था | वैसे मुझे कोई निराशा नहीं हुई पर इस दौरान मुझे कई ऐसे अनुभव भी हुए जिनके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था | मज़े की बात है कि आजकल के युवा कसोल को माल के लिए सबसे बढ़िया मानते हैं मगर देखा जाए तो कुल्लू में माल की सबसे शानदार किस्म की पैदावार होती है | और कसोल को अपने आप पर इतना गुरूर है कि यहाँ आप को कुल्लू का माल बेचने वाले या खरीदने वाले नहीं मिलेंगे | हाँ, इन सब जगहों में सबसे दोस्ताना जगह है मैक्लोडगंज जहाँ आप कुल्लू का माल खरीद भी सकते हैं और बेच भी सकते हैं |
मैं पहली बार का कच्चा खिलाड़ी होते हुए यहाँ की हिप्पी संस्कृति के रंग में पहली बार रंगने जा रहा था, मगर मुझे क्या पता था की मेरा ये पहला अनुभव मुझ पर एक अमिट छाप छोड़ देगा | उस कच्चे खिलाड़ी के दौर के बाद से अब तक मैं ना जाने कितनी ऐसी जगहों पर यात्रा कर आया हूँ जिन्हें समाज हेय की दृष्टि से देखता है मगर हमें तो इन जगहों पर आ कर ही सुकून की कुछ साँसे लेने का मन करता है |
मैं अपने आप को बढ़ा चढ़ा कर नहीं बता रहा हूँ मगर अब जब ये कच्चा खिलाड़ी एक मंझा हुआ खिलाड़ी बन चुका है तो तब के समय और अब के समय में फ़र्क साफ दिख जाता है | अब का मैक्लोडगंज वो नहीं रहा जो ये आज से पाँच साल पहले हुआ करता था | सोशल मीडिया पर प्रचलन और इंटरनेट पर "घूमने की 10 अनोखी जगहों" की इतनी सूचियाँ आ गयी है कि आज कल की दिखावा पसंद पीढ़ी के लोग पुरे सप्ताह तो दिमाग़ में एमटीवी देख देख कर कचरा भर लेते हैं और सप्ताह के अंत के दिनों में छुट्टी मनाने धर्मशाला पहुँच जाते हैं | सच कहूँ तो मैक्लोडगंज जैसी शांत जगह पर कभी इतनी भीड़ भाड़ होनी ही नहीं चाहिए थी | पर दुख इस बात का है कि आज कल लोगों को ऐसी शांत जगहों पर ही भीड़ भाड़ करना पसंद आता है |
मैक्लोडगंज की अंधेरी गलियाँ
जब ये किसी ज़माने में बैकपैकर्स के लिए स्वर्ग हुआ करता था, तब मैंने जोगिंदर रोड से केवल 1 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक कच्चे और अंधेरे सिनेमा घर में बैठ कर उम्दा गुणवत्ता वाला माल फूँका था | मेरे एक दोस्त ने काफ़ी मोल भाव करके जिमीज़ इटालियन (जो इस शहर का सबसे प्रसिद्ध कैफ़े है ) के बाहर से माल खरीदा था | मैं इसका श्रेय अपने दोस्त को देता हूँ क्योंकि ये बात बताने के बाद में किसी तरह के क़ानूनन झमेले में नहीं फँसना चाहता | और अब जब हम क़ानून की बात कर ही रहे हैं तो आप को बता हूँ कि वह सिनेमा हॉल उसी इलाक़े का एक गुंडा दो पुलिस वालों के साथ मिल कर चलाता था जो उसी हॉल के आस पास मंडराते रहते हैं | जिस सिनेमा हॉल की मैं बात कर रहा हूँ वह बेसमेंट में स्थित एक अंधेरा कमरा है जिसमे गिनी चुनी कुछ 20 कुर्सियाँ लगी हुई है | इस पूरे सेटप में एक छोटा सा प्रोजेक्टर तो था ही, साथ ही एक पाइरेटेड डीवीडी भी थी जिसमे से सबको आपसी सहमति से अगले कुछ घंटे के लिए चलने वाली फिल्म चुननी होती थी | मगर हमें क्या पता था कि कुछ ही देर में हमारा ध्यान फिल्म से पूरी तरह से हट जाएगा | थोड़ी ही देर में अधेड़ उम्र की कुछ महिलाओं ने हॉल में प्रवेश किया | वे इस इंतज़ार में थी कि कोई कद्रदान उन्हें इशारा कर के अपने साथ ले जाए और उनकी "सेवाओं" का मज़ा लें | मैंने और मेरे दोस्त ने एक दूसरे की तरफ देखा | पर्दे पर चल रही फिल्म इन्सेप्शन देखने में अब हमारा दिल नहीं लग रहा था | मोटे तौर पर हमारी दिलचस्पी इन महिलाओं द्वारा दी जाने वाली "सेवा" में नहीं बल्कि इस पूरे वाकये में थी क्योंकि अभी तक हमने ऐसा मंज़र केवल फिल्मों में ही देखा था | सिर्फ़ फिल्मों में देखी हुई चीज़ फिल्म देखते देखते ही जब सामने आ जाए तो विश्वास ही नहीं होता | काफ़ी फिल्मी लगता है | आख़िरकार, 15 मिनट के अंदर ही कुछ ग्राहकों ने महिलाओं को इशारा कर के बुला लिया | हल्की फुल्की चर्चा के बाद हमारे पास बैठे दो आदमी उन महिलाओं के साथ बाहर निकल गये | ये पूरी "फिल्म" देखने के बाद मैं और मेरा दोस्त भी सिनेमा हॉल के बाहर चल दिए | हमें थोड़ी ताज़ी हवा खानी थी | सिनेमा हॉल में इतनी देर खूब सारा कुल्लू का धुआँ खाने के बाद ताज़ी हवा की ज़रूरत तो पड़ती ही है |
हमारी यात्रा तो वैसी ही साकार हो चुकी थी मगर फिर भी बाकी के दिन हमने धरमकोट में बिताए जो मैक्लोडगंज से 1 कि.मी. ऊपर चढ़ाई करने पर आता है | अगर तुलना की जाए तो धरमकोट अभी भी काफ़ी शांत और सुरम्य है | पहले के दिनों में तो धरमकोट में डच लोगों की भरमार थी जो रात को अपनी झोपड़ियों में यहाँ की सबसे बेहतरीन पार्टियों की मेज़बानी करते थे | मैं अपने निजी अनुभवों से तो नहीं बता सकता मगर मैंने सुना है कि शिवा कैफ़े जो अब पूरी तरह से व्यापारिक हो गया है, उस समय काफ़ी शांतिपूर्ण था और आकर्षण का केंद्र हुआ करता था | हमारी यात्रा के दौरान कुछ एक दिलचस्प चीज़ें भी हुई मगर इन दिलचस्प चीज़ों की कहानियाँ फिर कभी आग के इर्द गिर्द बैठ कर सुनाऊंगा | अभी तो आप इसी कहानी के मज़े लीजिए |
क्या आपके पास भी अपनी यात्रा से जुड़ी ऐसी अजीबो-गरीब कहानियाँ हैं? तो यहाँ क्लिक करें और अपना अनुभव लिखना शुरू करें।
यह आर्टिकल अनुवादित है | ओरिजिनल आर्टिकल पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें |