"शिंजुकु के सबवे स्टेशन पर स्थित एक सुपर मार्केट में लिफ्टमैन को नौकरी पर रखा जाता है। वैसे देखा जाए तो वहां की लिफ्ट तो सीधी-सीधी ही होती है और ग्राहक सहजता से उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर भी वहां के मालिकों को ऐसा लगता है कि ग्राहकों के लिए दरवाजा खोलने और बंद करने वाला कोई व्यक्ति होना चाहिए। अगर आपने जानकारी ली हो तो आपको पता चलेगा कि सन 2004 से एक इंसान वहां पर काम कर रहा है। वह इंसान हमेशा जोश और खुशी के साथ अपना काम करता है। काम दिखने में उबाऊ लग सकता है। अगर आप उसके काम का अवलोकन करेंगे तो आपको पता चलेगा कि वह सिर्फ बटन ही नहीं दबाता। वह तो काम को पूरी प्रक्रिया के साथ पूरा करता है। जब कोई इंसान आता है तो वह हल्की और मीठी आवाज में और थोड़ा झुक कर उसका स्वागत करता है। फिर वह उसे अंदर बुलाता है और अनोखे अंदाज में लिफ्ट का बटन दबाता है।"
हेक्टर गार्सिया व फ्रांसिस मिरेलस की प्रसिद्ध पुस्तक इकिगाई के इस उद्धरण को पढ़ते वक्त मुझे रात्रि के करीब 3:30 बज चुके थे। और मैं पुष्कर, अजमेर के गो-स्टॉप हॉस्टल के 14 लोगों के लिए बने डोम्स में अपने बेड की लाइट और पंखे को बंद करते हुए उठा। मेरे साथ इस यात्रा पर आएं तीनों साथी अपने-अपने बेड पर सो रहे थे। मैं उन्हें परेशान न करते हुए अकेले पुष्कर सरोवर के जयपुर घाट पर पहुंच गया। उस वक्त घाट पर शांति की तलाश में इक्का-दुक्का चेहरे ही मौजूद थे। दूर क्षितिज में छाए अंधेरे के साथ मैं सरोवर की ओर मुंह करके चौकड़ी मारकर बैठ गया।
सरोवर में चारों ओर स्थित लाइट के बनते प्रतिबिंब जल की शांत लहरों को पहचानने में मदद कर रहे थे। प्रवासी व स्थानीय पक्षी जल की सतह से उड़ान के साथ चहचाहते हुए गुनगुना रहे थे। सरोवर के चारों ओर शांति में खोते हुए, मैंने खुली आंखों के साथ अपना ध्यान प्रारंभ किया। खुली आंखों से इसलिए क्योंकि मैं सरोवर और इर्द-गिर्द बने घाटों की सुंदरता में खोते हुए अधिक शांत था। ध्यान की अवस्था में कानों में पक्षियों के चहचाहने और हवा की लहरों की आवाज मेरे लिए गहन ध्यान संगीत का कार्य बखूबी कर रही थी।
प्रातः तकरीबन 4:30 बजे से ही सरोवर की परिक्रमा के लिए श्रद्धालु निकल पड़े थे। सबसे पहले महिलाओं का एक समूह आया जिसकी अगुवाई कुछ बच्चे कर रहे थे। आगे चलते हुए बच्चे एक सुर में हर हर महादेव बोलते और उसके तुरंत बाद पीछे चलती महिला उनका अनुसरण करते हुए फिर पुनः हर हर महादेव का उच्चारण दोहराती । मेरे मुख की ओर ही समतल जगह पर संगमरमर की बनी देवी-देवताओं की मूर्तियां विराजमान थी। मैं उनकी ओर ध्यान लगा ही रहा था कि मेरे दाएं ओर से एक साधु बाबा दृष्टिगोचर हुए । उन्होंने मेरी ओर देखते हुए जय सियाराम कहा, मैंने भी अभिवादन स्वीकारते हुए, जय सियाराम कहते हुए प्रणाम किया। बाबा मेरे पीछे से होते हुए सामने स्थित मंदिर पर आए और जय सिया राम, जय सिया राम के उच्चारणों के साथ मूर्तियों पर जल का छिड़काव करने लगे।
मैं पुनः एक बार फिर अपने ध्यान में खो गया। सरोवर के घाट धीरे-धीरे सरोवर में तैरते आस्था रूपी प्रज्वलित दीपक, मंदिरों की बजती घंटियों और शंखनाद की आवाजों के साथ खुलने लगे। जैसे ही मैं अपनी नजर को जल के तल से उठाते हुए थोडा ऊपर आसमां की ओर ले गया तो उत्सुक नजरों ने सुबह की मंद नीली रोशनी में अरावली पर्वतओं को पुष्कर सरोवर के चारों ओर उभरते पाया। जहां प्रारंभ में अंधेरा था, अब वही विशाल चट्टानें अपनी मौजूदगी का आभास बड़ी ही विशालता के साथ करा रही थी। प्रकृति कि इस प्रक्रिया से मैंने यहां एक सबक लिया कि "जिस तरह विशाल चट्टानों ने अंधेरे का धैर्य के साथ सामना करते हुए अपने हिस्से का सवेरा देखा ठीक उसी प्रकार हमें भी अपने बुरे समय केअंधकार का सामना धैर्य के साथ करना चाहिए क्योंकि हमारे हिस्से का सवेरा भी एक अन्तराल के पश्चात् जरुर आएगा।" यह सोचते हुए मेरे सामने इकिगाई पुस्तक से रात में पढ़े हुए उद्धरण सामने आने लगे हैं। मैं भी अपने इकिगाई यानी अपने जीवन के उस उद्देश्य को खोजने का प्रयत्न करने लगा, जिसे मैं आने वाले समय में एक व्यवसायिक रूप दे सकूं। मन मस्तिष्क को शांत कर देनी वाली सुबह की ठंडी हवा में सोचते हुए मैंने पाया कि अध्यापन मेरे लिए एक ऐसा कार्य है जिसे मैं काफी सहजता और बहाव के साथ करता हूं। मैं अध्यापन को अपना इकिगाई बनाने के बारे में सोच ही रहा था कि हमारी टोली के साथी आशीष भाई आएं और बिना कुछ कहें थोड़ा सा आगे की ओर दाएँ तरफ होकर बैठ गए। मैंने मोबाइल को स्पीकर पर रखते हुए स्पॉटिफाई पर "मत कर माया को अहंकार" गीत बजाया। गीत के बोलों के साथ है ही हम दोनों अपने-अपने हिस्से की शांति में खो गए।