एक ऐसा शहर जो अपने अतीत के तरह-तरह के रंगों में रंगा हुआ है जिसके हर एक कोने में इतिहास, कला, विरासत, शौर्य, वीरता की कहानियां भरी पड़ी हैं। आज भी इस शहर का गवाह कोई एक विशेषता नहीं है। रानी लक्ष्मीबाई का शहीद होना हो या तानसेन का सुर लगाना, किले की विशालता हो या सिंधिया की विरासत इस शहर को सबसे अलग बनाती है। इस शहर का नाम है ग्वालियर, इसे भारत का नगीना भी कहा जाता है।
मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित ग्वालियर बेहद ही शानदार शहर है। इसे पुराने समय में गोपांचल के नाम से भी जाना जाता था। शहर के बीचोंबीच स्थित गोपांचल पर्वत के कारण इस शहर को गोपांचल के नाम से जाना जाता था। ऐसा भी कहा जाता है कि गालव ऋषि के नाम पर इस शहर का नाम ग्वालियर पड़ा। शहर के गोपांचल पर्वत पर स्थित है भारत का जिब्राल्टर ग्वालियर का किला । बाबरनामा में इसे भारत के किलों के हार में मोती कहा है। इस,,किले की लंबाई तीन किमी और चौड़ाई 500 मीटर तक है।
इस किले में ढेर सारे मंदिर और महल हैं। इस किले का संबंध अनेकों राजवंशों(Dynasties) से रहा है। इन राजवंशों में कछवाहा,हूण, गुर्जर प्रतिहार, तोमर, गुलाम वंश, लोधी वंश, मुगल वंश, शेरशाह सूरी, सिंधिया हैं। इस किले की नींव सिंघोनिया गांव के कछवाहा राजा सूरजसेन ने 5वीं से 6वीं शताब्दी के बीच रखी थी। अलग-अलग समय पर बने मंदिर और महल यहां दिखाई देते हैं। इस किले में प्रवेश करने के लिए दो दरवाजे पूर्व और पश्चिम दिशा में हैं। पूर्व दिशा की ओर वाले दरवाजे को आलमगिरी गेट और पश्चिम दिशा की ओर वाले दरवाजे को उरवाई गेट कहा जाता है।
किले के आलमगिरी गेट के पास स्थित है गुजरी महल म्यूजियम। इस म्यूजियम में ढेर सारी मूर्तियां हैं जिनमें उमा-महेश्वर, शालभंजिका, यक्षिणी, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, वराह, शेषशायी विष्णु हैं। ये म्यूजियम पहले एक महल था जिसे राजा मानसिंह तोमर ने अपनी प्रेमिका मृगनयनी के लिए बनवाया था। इसका निर्माण 16वीं शताब्दी में बलुआ पत्थर से किया गया था। ये महल दिखने में बेहद साधारण है और बड़े से आंगन(Courtyard) के चारों ओर कमरे बनाए गए हैं। पहाड़ी पर स्थित किले से देखने पर गुजरी महल का नजारा बेहद शानदार दिखता है।
इस किले का इतिहास जितना समृद्ध है उतना इसका विज्ञान से भी नाता है। किले की चढ़ाई पर स्थित चतुर्भुज मंदिर स्थित है। इस मंदिर में एक अभिलेख (Inscription) है जिसमें शून्य (Zero) का उल्लेख किया गया है। जीरो के बारे में ये दुनिया का पहला लिखित प्रमाण है। इस मंदिर के गर्भगृह के दरवाजे के ऊपर यह अभिलेख उकेरा गया है।
इस अभिलेख में दो बार जीरो का उल्लेख मिलता है। जिसमें मंदिर की नाप और फूल मालाओं का जिक्र मिलता है। इस अभिलेख में संख्याएं अरेबिक (Arabic) में लिखी हुई है। इस मंदिर का नाम निर्माण नागवंश के राजाओं ने करवाया था। इस मंदिर को पहाड़ काटकर निर्मित किया है जिस तरह औरंगाबाद के कैलाश मंदिर और मंदसौर के धर्मराजेश्वर मंदिर को बनाया गया है। मंदिर को बेहद सावधानी से बनाया गया और कलात्मक कारीगरी मंदिर के शिखर से लेकर खंभों तक दिखाई देती है। मंदिर के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ भी बनाया है।
आलमगिरी दरवाजे से शुरू होने वाला घुमावदार रास्ता और चढ़ाई आपको अलग ही रोमांच देती है। पहाड़ को खोदकर बनाई गईं छोटी-छोटी कंदराएं (Cavities) और चट्टानों(Rock) को काटकर बनाई गई कई सारी भगवान की आकृतियाँ। जैसे-जैसे किले की तरफ पहुंचते शहर को देखने का नजरिया ही बदलता जाता है। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती जाती है वैसे-वैसे दूर तक फैला शहर शानदार दिखने लगता है।
किले की बनावट के बारे में तो क्या कहना है, मुंह से केवल एक ही शब्द निकलता है वाह। कतार में खड़े विशाल खंभे और उन बनीं छतरियां विशालता की परिचायक हैं। बाहरी दीवार और खंभों पर की गई कलात्मक जिन पर नीले रंग की टाइल्स और ज्यादा फबती है और चार चांद लगाती हैं। हर दो खंभों के बीच झांकता झरोखा राजपूताना शैली की कहानी बयां करता है।
किले का मुख्य द्वार को इस तरह बनाया गया है जिसमें प्रवेश (Entry) करने वाला हर व्यक्ति अपने आप को राजा से कम नहीं समझता। द्वार पर लगे पत्थर के तोरण और इन तोरण को बनाया बेहद सावधानी से तराशकर बनाया गया है। इसके अलावा इसे पत्थर से बनी लता, फूल और नीली टाइल्स से सजाया गया है। द्वार के ठीक ऊपर नक्काशीदार झरोखे झांकते नजर आते हैं। दरवाजे से थोड़ा अंदर आते ही छत पर बने फूल की आकृति बताती है कि किले को कितनी नजाकत से बनाया गया है।
किले को महल के आधार (Basesd) पर दो भागों में बांटा जा सकता है। पहला मानसिंह महल, दूसरा भाग में शेष महल आते हैं। मुख्य द्वार से जैसे ही अंदर हैं तो दाईं ओर जो महल है वो मानसिंह महल है। महल की बाहरी दीवारों पर अद्भुत कारीगरी की गई है। पत्थरों पर उकेरी गई विभिन्न आकृतियों के अलावा नीली और हरी टाइल्स का उपयोग बखूबी किया गया है। इन टाइल्स से हाथी, पेड़-पौधों, पक्षियों की आकृतियाँ बनाई गईं हैं। बलुआ पत्थर से बने इस महल का निर्माण सन् 1508 में तोमर वंश के राजा मानसिंह तोमर ने करवाया था।
मानसिंह महल जितना खूबसूरत बाहर से दिखाई देता है उससे कहीं ज्यादा सुंदर से है। चार मंजिलों वाला ये महल अपनी कारीगरी के लिए जाना जाता है। इस महल की दो मंजिल तलघर में और बाकी की दो मंजिल ऊपर हैं। महल में दो आंगन और केसर कुंड है। सबसे पहले बात करते हैं कि इसके आंगन की महल में प्रवेश करते ही जो पहला आंगन आता है उसे सभामंडप भी कहा जाता है। इसी जगह पर राजा अपने राज्य के अधिकारियों से मुखातिब होता था। इस आंगन के चारों ओर कमरे बनाए गए हैं।
इस आंगन में बलुआ पत्थर पर जो आकृतियां उकेरी गई हैं, लाजवाब, बेमिसाल, अद्वितीय, अद्भुत, अकल्पनीय सी लगती हैं। आंगन के चारों दीवारों पर आकृतियां और कलाकृतियां उकेरी गई हैं लाजवाब हैं। मोर, हाथी, सिंह (Leo) , फूल, पत्ती, लता आदि को पत्थरों पर उकेरा गया है। पत्थरों को काटकर बनाई गई जाली और उस जाली में विभिन्न आकृतियां अद्वितीय है। इसके अलावा छज्जों के क्या कहने? लगता है कारीगर ने पत्थर पर इस तरह काम किया है जैसे कागज पर कोई आकृति बनाई जा रही हो।
यहां पहले भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित थी, इस कारण इसे मान मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। दोनों आंगन की दीवारों पर बने छज्जे एक - दूसरे के बीच कोई प्रतियोगिता (Competition) है कुछ इस तरह प्रतीत होते हैं। आखिरी वाले आंगन का छज्जा और ज्यादा बेमिसाल है जिसे पत्थर पर नालीदार आकृति उकेरकर बनाया गया है। इन छज्जों के अलावा दीवारों और आंगन से जुड़े कमरों की छत पर उकेरी गई आकृति इसे और ज्यादा सुंदर बनाती है।
इस पैलेस के नीचे वाले भाग को केसरकुंड कहा जाता है। कहा जाता है कि इसी जगह पर मानसिंह तोमर की आठ रानियां नहाया करती थीं। इस जगह को बाद में मुगलों ने कैदखाने के रूप में इस्तेमाल किया। औरंगजेब ने अपने भाई मुराद को इसी जगह कैद किया था और बाद में उसे मरवा दिया था। सीढ़ियों की भूल-भूलैया ये केसरकुंड एक समय केसर की महक से गुलजार रहता था।
ग्वालियर किले में मानसिंह महल के अलावा और भी कई सारे महल हैं जिनमें जहांगीर महल, विक्रम महल, शाहजहाँ महल, कर्ण महल, भीमसिंह राणा की छत्री, भूल -भूलैया और जौहर कुंड आदि हैं। जहांगीर महल और शाहजहां महल दोनों एक ही कैंपस में स्थित हैं जिसे पहले शेर मंदिर के नाम से जाना जाता था। इन महलों का मुख्य आकर्षण इसके मुख्य द्वार हैं जो बेहद कलात्मक हैं। इस कैंपस में एक बावड़ी, अस्तबल और मस्जिद है। इन महल के बिल्कुल सामने जौहर कुंड है।
जौहर कुंड से कर्ण महल, विक्रम महल, जहांगीर महल और शाहजहां महल में पानी की सप्लाई की जाती थी। सन् 1232 में जब गुलाम वंश का सुल्तान इल्तुतमिश ने आक्रमण किया तो रानियों ने जौहर कर लिया। इस कारण इसे जौहर कुंड भी कहा जाता है।
महलों से थोड़ी दूर पर स्थित है चौरासी खंभा बावड़ी स्थित है। कहा जाता है कि पहले यहां शिव मंदिर हुआ करता था जिसका निर्माण राजा मानसिंह तोमर के समय किया गया था। चौरासी खंभों वाले भवन के बगल में एक गोलाकार बावड़ी है। बावड़ी तक पहुंचने के लिए गोलाकार रास्ता बनाया गया है। इस रास्ते से जुड़े कई कमरों का भी निर्माण किया गया है जिन्हें बाद में मुगल शासकों ने जेल के रूप में इस्तेमाल किया।
ग्वालियर किले में केवल महल ही नहीं मंदिर और गुरुद्वारे भी हैं जो स्थापत्य कला के अद्वितीय नमूने हैं। ग्वालियर किले की पूर्वी दीवार की ओर स्थित सास-बहू का मंदिर इसका बेहतरीन उदाहरण है। शाम को ढलते सूरज की धूप जब इस मंदिर के शिखर पर पड़ती है तो मानो लगता है कि सोना(Gold) अपनी चमक बिखेर रहा है। इस मंदिर का निर्माण 1093 ईस्वी में कच्छपघात वंश के राजा महिपाल ने बलुआ पत्थर से करवाया था।
ऐसा कहा जाता है कि सास - बहू मंदिर दो मंदिरों को मिलाकर बना हुआ है। बड़ा मंदिर सास और छोटा मंदिर बहू को समर्पित है। असलियत में सहस्त्रबाहु का बिगड़ा हुआ नाम सास-बहू मंदिर हो गया। इस मंदिर का मुख्य द्वार उत्तर की ओर है। इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल, महामण्डप और अर्द्धमण्डप हैं। नागर शैली में बने इस मंदिर की कारीगरी देखते ही बनती है। मंदिर जितना सुंदर बाहर से दिखाई देता उससे कई गुना सुंदर अंदर से हैं। कारीगरी का बेहतरीन काम किसे कहते है उसका साक्षात उदाहरण है सास-बहू मंदिर।
दो मंजिला इस मंदिर की बाहरी दीवारें ज्यामितीय हैं। दीवारों पर फूल-पौधे, गज, नर्तक, संगीतकार, कृष्ण लीला को उकेरा गया है। सास-बहू मंदिर के पूर्व और पश्चिम दिशा में खिड़की की तरह जगह बनाई गई है। इसमें खंभों को लेकर विशेष काम किया गया है। ये खिड़कियां मंदिर में प्रकाश (Light) की समुचित व्यवस्था के लिए बनाया गया है। मंदिर में बनी ड्योढ़ी पत्थरों को तराशकर बनाया गया है। इस ड्योढ़ी में कलात्मकता देखते ही बनती है। खंभों पर भी विशेष काम किया गया है। मंदिर की अंदरूनी छत पर विशेष कारीगरी देखने को मिलती है।
सास-बहू मंदिर से थोड़ी दूर पर स्थित है गुरुद्वारा दाता बंदी छोड़। इस जगह पर सिक्खों के दसवें गुरु हरगोबिंद सिंह को कैद किया गया था। जब गुरु हरगोबिंद सिंह को रिहा किया जाने लगा तो उन्होंने कहा कि मेरे साथ बंदी 52 राजाओं को भी रिहा किया जाए। तब मुगल शासक जहांगीर ने कहा कि जितने राजा आपके कपड़े छू पाएंगे उतने राजाओं को रिहा कर दिया जाएगा। गुरु हरगोबिंद सिंह ने इतना बड़ा कपड़ा सिलवाया कि उसे सारे राजाओं ने छू लिया। गुरु हरगोबिंद सिंह समेत सारे राजाओं को रिहा कर दिया गया। इस कारण इस गुरुद्वारे को गुरुद्वारा दाता बंदी छोड़ कहा जाता है।
गुरुद्वारे से थोड़ी दूर ही स्थित है तेली का मंदिर। उत्तर और मध्य भारत का एकमात्र द्रविड़ शैली में बना मंदिर। तीस मीटर ऊंचे इस मंदिर का निर्माण प्रतिहार राजा मिहिरभोज के समय में लाल बलुआ पत्थर से किया गया था। मंदिर के निर्माण में तेल के व्यापारियों का धन (Money) लगा था इसलिए इसे तेली का मंदिर कहा जाता है। ये मंदिर पूरी तरह द्रविड़ शैली में नहीं बना हुआ है इसमें नागर शैली की झलक भी दिखाई देती है। दोनों शैलियों से बना विशाल और शानदार मंदिर।
तेली का मंदिर विशाल और स्थापत्यकला का बेमिसाल संगम है। इतिहास गवाह है कि समय के साथ राजाओं के विभिन्न मतों में आस्था के सबूत मिले हैं। शैव, वैष्णव और शाक्त आदि। ऐसा कहा जाता है कि जब यह मंदिर बना तब ये भगवान विष्णु को समर्पित था। बाद में मंदिर में भगवान शिव, शक्ति, सर्प और गरुड़ जैसी मूर्तियां मिलीं। इस मंदिर की वास्तुकला कोई ज्यादा आकर्षक तो नहीं है लेकिन इसकी बनावट सबका मन मोह लेती है। कहा जाता है कि भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 (India's first war of Independence 1857) के समय अंग्रेज यहां कॉफी शॉप और शराब स्टोरेज के लिए इस्तेमाल किया करते थे। लेकिन एक सत्य ये भी है कि सन् 1881 में मेजर कीथ के समय इस मंदिर के कुछ भागों का जीर्णोद्धार (Renovations) किया गया।
ग्वालियर किले की जितनी बात कही जाए उतनी कम है। इस किले का इतिहास एक साहित्य है जिसे समझना कोई चुटकियों का खेल नहीं है। किला आज जिस धरती पर खड़ा हुआ है वो अपने आप में कई राज दफन किए हुए है। ग्वालियर किला जिस तरह एक राजा से दूसरे राजा के पास जाता रहा उसी तरह इतिहास का पहिया यहां धर्म को भी बदलता रहा। किले के पश्चिमी गेट उरवाई गेट के पास स्थित है सिद्धाचल जैन प्रतिमाएं।
सिद्धाचल में चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को पहाड़ में खोदकर बनाया गया है। यहां सैकड़ों मूर्तियों को बनाया गया है। ये मूर्तियां पद्मासन और कायोत्सर्ग अवस्था में दिखाई देती हैं। इन मूर्तियों में सबसे बड़ी मूर्ति पहले तीर्थंकर ऋषभदेव की 57 फीट ऊंची प्रतिमा है। भगवान ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहा जाता है। इन मूर्तियों का निर्माण 7वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक होता रहा। इन मूर्तियों को आक्रमणकारियों ने कई बार नष्ट किया जिनका बाद में जीर्णोद्धार किया गया।
ग्वालियर किला केवल एक किला ही नहीं बल्कि प्रकृति, धर्म, संस्कृति, स्थापत्यकला और इतिहास की जन्नत है। यहां आप कई सदियों के रहस्य को अपने सामने घटते हुए देख सकते हैं। भारत के अन्य किलों के मुकाबले इसमें वो बात है जो इसे सबसे अलग करती है विशालता। ये विशालता केवल आकार से ही नहीं है बल्कि इसके इतिहास और राजनीति से भी है। ग्वालियर किला सच में जिब्राल्टर ऑफ इंडिया का हकदार है।
ग्वालियर में केवल ग्वालियर किला ही नहीं बल्कि तानसेन का मकबरा, जयविलास पैलेस, इटैलियन गार्डन, सरोद घर, रानी लक्ष्मीबाई समाधि स्थल हैं। इनके बारे में ग्वालियर भारत का रत्न (Gwalior Gem Of India Part 2) अगले पार्ट में पढ़ने को मिलेगा।
कैसे पहुंचे (How To Reach)
🛫 एयरपोर्ट (Airport) - ग्वालियर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया डोमेस्टिक एयरपोर्ट है। इस एयरपोर्ट से दिल्ली, इंदौर, बेंगलुरु, हैदराबाद, कोलकाता के लिए सीधी फ्लाइट उपलब्ध हैं।
🚈 रेलवे स्टेशन (Railway Station) - ग्वालियर रेलवे स्टेशन दिल्ली-मुंबई रेलवे मार्ग पर स्थित है। ग्वालियर जंक्शन होने के कारण देश के छोटे-बड़े शहर से जुड़ा हुआ है।
🚌 बस स्टैंड (Bus Stand) - ग्वालियर में अंतरराज्यीय बस अड्डा (Interstate Bus Stand) है। यहां से एमपी के शहरों के अलावा दिल्ली, आगरा, मथुरा, धौलपुर आदि के लिए बस उपलब्ध है।
⛅ कब जाएं (Best Time To Visit) - ग्वालियर घूमने के लिए सबसे अच्छा मौसम ठंड है। यहां आप अक्टूबर से लेकर फरवरी तक घूम सकते हैं। ग्वालियर में गर्मी का मौसम बहुत गर्म होता है। गर्मियों में यहां तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच जाता है।
नजदीकी आकर्षण स्थल
(Nearest tourist attraction points) - दतिया, नूराबाद, मितावली,पढ़ावली, बटेश्वर मंदिर, झांसी, शिवपुरी, चंबल घडियाल अभ्यारण्य, कूनो-पालपुर वन्यजीव अभ्यारण्य
📃BY_vinaykushwaha
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