उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में स्थित ‘पंच-केदार’ भगवान शिव को समर्पित पाँच पवित्र जगहें हैं। इन तीर्थ स्थलों में केदारनाथ (3,583 मीटर ऊँचा) तुंगनाथ (3,680 मीटर ऊँचा), रूद्रनाथ (2,286 मीटर ऊँचा), मदमहेश्वर (3,490 मीटर ऊँचा) और कल्पेश्वर (2,200 मीटर ऊँचा) शामिल है। मान्यता है कि महाभारत के युद्ध के बाद पांडव भगवान शिव से अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए यहाँ तप करने आए थे।
स्वगोत्र हत्या के दोषी पांडवों को भगवान शिव दर्शन नहीं देना चाहते थे। शिव जैसे ही महिष (भैंस) का रूप धारण कर धरती में समा रहे थे वैसे ही भीम ने उन्हें पहचान कर पीठ के ऊपरी हिस्से को आधे जमीन में समाया हुआ पकड़ लिया था। फिर शिव ने उनको दर्शन देकर पापों से मुक्त किया था। उसके बाद से ही भैंस की पीठ की आकृति-पिंड रूप में भगवान शिव केदारनाथ मंदिर में पूजे जाते हैं। शिव के अन्य भाग पूरे गढ़वाल क्षेत्र में विभिन्न जगहों पर स्थापित हैं।
- केदारनाथ में कूबर
- तुंगनाथ में हाथ (बाहू)
- रूद्रनाथ में चेहरा (मुख)
- मद्महेश्वर में नाभि (नाभि)
- कल्पेश्वर में बाल (जटा)
यात्रा पूरी करने के बाद आप अंत में बद्रीनाथ मंदिर जाकर भगवान विष्णु की भी पूजा कर सकते हैं। यह जगह केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य से करीब 150 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह रास्ता सुंदर नज़ारों, वन्य जीवन समेत कई अद्भुत जगहों से होकर गुज़रता है। यात्रा की शुरुआत ऋषिकेश से होती है। अपनी यात्रा के दौरान ज्यादा टाइम हमने एक टावेरा किराए पर लिया था।
ऋषिकेश से हमने एकदम सुबह ही केदारनाथ के लिए यात्रा शुरू की। यह रास्ता देव, रूद्र, कर्ण, नंदा व विष्णु प्रयाग के पाँच संगमों से होकर गुज़रता है और गौरीकुंड की ओर जाता है, जो कि केदारनाथ की यात्रा का आधार है। वर्ष 2013 में गढ़वाल क्षेत्र में आई भयावह बाढ़ की वजह से फिलहाल मार्ग को परिवर्तित कर दिया गया है।
हमने सुबह करीब 8 बजे केदारनाथ मंदिर की तरफ अपनी चढ़ाई शुरू की। यह चढ़ाई 13 कि.मी. की थी। केदारनाथ पहुँचे तो वहाँ तेज़ बारिश हो रही थी। हम लोग भी थक चुके थे, तो हमने महाराष्ट्र मंडल द्वारा संचालित होने वाले छोटे से गेस्ट हाउस में रात भर के लिए कमरा बुक किया।
मंदाकिनी नदी के शीर्ष पर स्थित केदारनाथ मंदिर को बहुत ही प्राचीन माना जाता है। यह सदियों से लगातार पुनर्निर्मित हुआ है। केदारनाथ में स्थित लिंगम पिरामिड को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। यह 3,581 मीटर की ऊचाई पर स्थित है। रक्षक व संहारक भगवान शिव का दूसरा नाम केदार है। यहां से आशीर्वाद लेने के बाद हम सब ने मंदिर के पीछे स्थित आदि शंकराचार्य समाधि का दर्शन किया। मान्यता है कि महान शंकराचार्य यहां मंदिर के पीछे एक ही दिन में शाश्वत समाधि में चले गए थे।
हमारे दिमाग में एक खूबसूरत झील वासुकीताल था, जो कि केदारनाथ से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। लेकिन हमने यहां जाने का प्लान रद्द कर दिया क्योंकि हमें केदारनाथ की ओर जाना था। इसलिए फिर हम सब गौरीकुंड की ओर बढ़ गए।
गौरीकुंड पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई और फिर यहां से हमलोग अपने अगले गंतव्य उखीमठ के लिए रवाना हो गए। यही हमारे अगले केदार मदमहेश्वर का आधार था। यह मठ रूद्रप्रयाग से 43 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। शाम को उखीमठ पहुंच कर हम लोग एक लॉज में ठहरे। इस यात्रा के लिए हमें कुछ गाइडों की जरूरत थी, तो होटल के मालिक ने दो गाइडों की व्यवस्था कर दी। ये दोनों बहुत ही उत्साही थे और इनके साथ हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी।
उखीमठ से उणियाना की दूरी करीब 22.5 किलोमीटर थी और यहां से यात्रा की शुरुआत हुई। सुबह जल्दी उठकर हमलोग ठीक 9 बजे तक उणियाना पहुंच गए। यहां से फिर हम रांसी के एक छोटे से पड़ाव तक पहुंचे और यहां से पहला मुख्य पड़ाव गौंडर है। मदमहेश्वर तीर्थयात्रा पर जाने वाले श्रद्धालु उणियाना से 8 किलोमीटर दूर स्थित गौंडर में ही ठहरना पसंद करते हैं। यहां से फिर 12 किलोमीटर दूर स्थित मंदिर में जाते हैं। यहां लोगों के रुकने के लिए कैलाश टूरिस्ट लॉज है।
हमलोगों ने प्लान बनाया कि जैसे भी हो हम सब नैनो गांव जरूर पहुंचेंगे। लेकिन पता चला कि ग्राम प्रधान की बेटी की मौत हो गई है तो ऐसे में हमलोग कमरा नहीं ढ़ूंढ़ सकते। तब हमलोगों ने नैनो गांव से ठीक पहले एक खूबसूरत स्थान खदरा खाल में ठहरने की योजना बनाई। रात के वक्त हमने खदरा में ही आराम किया और यहां लौकी की सब्जी व गेंहूं की रोटी का आनंद लिया। कमरे के अंदर से आकाश के अद्भूत दृश्य नजर आ रहे थे।
सुबह उठते ही हमने खडरा से मंदिर की तरफ की चढ़ाई शुरू की। इस यात्रा पर जाते समय एक बात ध्यान रखने वाली है कि यहां जाते हुए एनर्जी की पर्याप्त व्यवस्था रखें। खासकर पानी तो आपके पास होनी ही चाहिए क्योंकि यहां थकान बहुत जल्दी होती है। सौभाग्य से मंदिर से पहले 3 किलोमीटर दूर ही हमें बस्ती में जलपान की भी व्यवस्था मिल गई। यहां हमलोगों ने चाय पीया व क्रीम बिस्कुट लेकर मधेश्वर मंदिर की तरफ निकल गए।
मदमहेश्वर मंदिर 3,289 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और हमने करीब 4 बजे मंदिर की पहली झलक देखी। यह मंदिर समुद्र तट से 3,289 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जो कि उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल अंचल में गुप्तकाशी से 25 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में है। चौखंबा चोटी पर 3,289 मीटक की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर की वास्तुकला उत्तर-भारतीय स्टाइल में है।
यहां से केदारनाथ और नीलकंठ की चोटियां दिखती हैं। रात के वक्त हम मंदिर के गेस्ट हाउस में ही ठहरे। यहां मुझे मंदिर के एक पुजारी के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। जिन्होंने मुझे इलाज के बारे में बताते हुए बहुत सारी जड़ी-बूटियों व इसके इस्तेमाल की जानकारी दी। आगे उन्होंने मधेश्वर से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नंदी कुंड नामक अनोखे गर्म पानी के झरने के बारे में बताया। इस मंदिर ने इतना लुभाया कि रात को हमने मंदिर के अद्भूत अनुभव के साथ शांति भरी नींद ली।
जितनी जल्दी हो सके मंदिर पहुंचने के लिए हम सुबह जल्दी उठे। फिर हमने कुछ ग्रुप फोटो क्लिक किया। इस दिन सबसे पहले हमने बुद्ध महेश्वर मंदिर जाने की योजना बनाई। यह मंदिर मदमहेश्वर से 2 किलोमीटर दूर स्थित बहुत ही प्राचीन मंदिर है। और यह शक्तिशाली चौखम्बा के दृश्यों के साथ हरे-भरे घास के सुंदर मैदानों से घिरा है। यहां स्थित तालाब के पानी को बहुत ही पवित्र माना जाता है और इसके जल से मंदिर में स्थापित शिवलिंग की पूजा होती है। तालाब के किनारे पर जूते उतारकर फिर आप वहां हाथ-पैर धोने के बाद किसी साफ बर्तन में पानी लेकर बुद्धेशवर मंदिर में पूजा कर सकते हैं। हमने इस खूबसूरत व शांत स्थान की बहुत सारी तस्वीरें भी कैमरे में कैद की। अब यहां से हम गौंधर की तरफ बढ़ने लगे। 24 किलोमीटर की शानदार यात्रा तय कर हम शाम करीब 6 बजे उणियाना पहुंच गए। यहां फिर हम तुंगनाथ के आधार चोपता जाने के लिए रवाना हुए और रात करीब 10 बजे वहां पहुंच गए। यहां हम बुनियादी सुविधाओं से लैस कमरों वाले एक छोटे से रेस्तरां में पहुंचे।
तुंगनाथ से चोपता तक पैदल की दूरी 4 किलोमीटर थी। और यहां जाने के लिए सड़क बहुत अच्छी थी तो यह यात्रा बहुत ही आरामदायक रही। पिछले पांच दिनों की यात्रा से थके हुए हम शाम करीब 3 बजे तुंगनाथ मंदिर पहुंच गए। यह मदमहेश्वर मंदिर तीर्थस्थल के साथ-साथ पर्यटन केंद्र भी है। इस मंदिर के पुजारी का व्यवहार बिल्कुल अलग है। यानी यहां व्यवसायीकरण साफ-साफ दिखता है। पैसे के लिए यहां नियम कानून का भी उल्लंघन होता है। हमने यहां कई सारे विदेशी पर्यटकों को भगवान की प्रतिमा के साथ अजीब किस्म की तस्वीरें लेते हुए देखा है। यहां जूते कहें या अन्य आधारभूत नियमों की पवित्रता का बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखा जाता। वैसे भी ये सब इस मंदिर की भव्यता और सुंदरता को प्रभावित नहीं करती है।
तुंगनाथ (3886 मीटर) मंदिर भारत का सबसे ऊंचा मंदिर है। कहावत है कि भगवान शिव की भुजा यहां दिखी थी और रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए इसी मंदिर में तपस्या की थी। सबसे ऊंचे इस मंदिर को स्वयंभू लिंग या भगवान शिव का अवतार माना जाता है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में स्वगोत्र हत्या के दोषी पांडवों पर भगवान शिव बहुत क्रोधित हुए थे। शिव को खुश करने के लिए पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण किया था। कुछ लोगों का दावा है कि आदि शंकराचार्य ने इस क्षेत्र में अपनी ऐतिहासिक यात्रा के दौरान ही इस मंदिर का निर्माण किया था। सबूत के रूप में वे मंदिर के गर्भगृह में आदि शंकराचार्य की तस्वीर होने का भी दावा करते हैं। जबकि इस गर्भगृह में पांडवों की भी तस्वीरें लगी है। सिर्फ यही नहीं, इन सबके अलावा यहां काल भैरव व वेद व्यास की अष्टधातु चित्र भी लगी हुई है। इस मंदिर के आकर्षण का मुख्य केंद्र अंधेरे में बाईं तरफ झुका हुआ एक फुट ऊंचा लिंग है। स्थानीय लोगों का कहना है कि यह शिव का एक हाथ है।
अब हमलोगों ने तुंगनाथ से चंद्रशिला शिखर जाने का प्लान बनाया। यह चोटी नंदादेवी, त्रिशूल, केदार शिखर, बंदरपूंछ और चौखंबा चोटी का खूबसूरत नजारा पेश करता है। चंद्रशिला तुंगनाथ मंदिर के शिखर के रूप में माना जाता है। यह तुंगनाथ मंदिर से 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 1 किलोमीटर की इस शानदार यात्रा के दौरान हम सुंदर दृश्यों को देखते हुए 4000 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच गए जहां एक छोटा सा मंदिर था।
चंद्रशिला “मून रॉक” नाम से भी जाना जाता है। इस संबंध में एक किंवदंती है कि रावण को हराने के बाद भगवान श्री राम यहां ध्यान लगाकर बैठे थे। इसके अलावा एक और कहावत है कि भगवान चंद्रमा ने यहां तपस्या की थी। इस शिखर से विशाल हिमालय को बखूबी देखा जा सकता है।
यहां से अब हमलोगों ने अपने अगले गंतव्य गोपेश्वर जाने के लिए वापस चोपता जाने की तैयारी की। रूद्रनाथ की सबसे कठिन यात्रा के लिए गोपेश्वर आधार है। मदमहेश्वर के अपने दोनों गाइडों के साथ हम चोपता पहुंचे लेकिन अब यहां से उन्हें हमारी अगली यात्रा के रूट की जानकारी नहीं थी इसलिए उन्हें अलविदा करना पड़ा। हालांकि उनके साथ हमारी अच्छी दोस्ती भी हो गई थी।
शाम करीब 7 बजे हम गोपेश्वर पहुंच गए और वहां एक होटल में ठहरे। यहां हमने अपनी अगली योजना के बारे में होटल में जानकारी हासिल की। यह यात्रा काफी कठिन थी क्योंकि अब यहां से हमें शक्ति का केंद्र रूद्रनाथ और अनुसुइया माता देवी के मंदिर में जाना था। अनुसुइया माता के मंदिर तक जाने के लिए यहां से दो रास्ते थे। इसमें से एक छोटा रूट सागर गांव से जाता था जबकि दूसरा लंबा वाला रूट मंडल से होकर गुजरता था। काफी सोच विचार करने के बाद हम सब ने सागर से मंडल तक गोल सर्किट बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए 3 दिनों की आवश्यकता थी। हमने अपने ड्राइवर को यहां से जाने को कह दिया क्योंकि इस दौरान उसे इंतजार करना होता और हमारा खर्च ज्यादा बढ़ जाता, तो हमने कुछ पैसे भी बचा लिए। यहां से हमारी अगली यात्रा बहुत आसान थी।
बाद में हमने सोचा तो लगा जैसे ड्राइवर को भेज कर बहुत बड़ी गलती की थी। क्योंकि उत्तराखंड में टैक्सी यूनियन है तो यहां से एक यात्रा के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए टैक्सी बुक नहीं हो रहा था। लेकिन वापसी किराया देने पर यह काफी महंगा पड़ रहा था। अगर आप पहली बार यात्रा कर रहे हैं, आपके पास समय भी कम है और आप बस सेवाओं के झंझट से बचना चाहते हैं तो सबसे बढ़िया रहेगा कि आप एक कार बुक कर लें, क्योंकि यह सस्ती पड़ेगी।
यहां से होटल की तरफ से हमारे लिए एक गाइड की व्यवस्था की गई। सुबह के वक्त हल्का नाश्ता करने के बाद हमलोग रूद्रनाथ की ओर जाने के लिए निकले। हमलोगों ने तय किया था कि रात तक पनार बुग्याल पहुंच जाएंगे। लेकिन फिर ल्युती बुग्याल के ठीक नीचे पनार में एक आवास लेकर ठहर गए। हमारा ध्यान जल्द से जल्द ल्युती तक पहुंचने का था। वहीं तेज गर्मी व थकान की वजह से हम यहां ज्यादा तस्वीरें भी क्लिक नहीं कर पाए। शाम करीब 6 बजे हम ल्युती पहुंच गए लेकिन थकान बहुत हो चुकी थी। एक तो यहां लॉज की संख्या बहुत कम है और जो भी हैं वो लगभग भरे हुए थे। बेसन कड़ी व रोटी के साथ मैनें यहां की स्थानीय सब्जी का आनंद लिया। रात के वक्त तो एक अनोखा अनुभव हुआ वो ये कि हम मवेशियों के रहने वाली जगह में सोए।
सुबह की शुरुआत हम लोगों ने रूद्रनाथ मंदिर की यात्रा से शुरू की। अद्भूत घास के मैदान व शांतिमय दृश्यों के साथ हमने पनार बुग्याल की ओर चढ़ाई की। इस खूबसूरत वातावरण का आनंद लेते हुए हम रूद्रनाथ मंदिर की ओर बढ़े और पंचगंगा मिडो के सबसे ऊंचे प्वाइंट पितृधर को पार किया। मान्यता है कि दुनिया की आत्माएं यहां से होकर गुजरती है। रूद्रनाथ मंदिर में भगवान शिव के मुख की पूजा नीलकंठ महादेव के रूप में की जाती है। यह मंदिर घने जंगलों के बीच 2286 मीटर की ऊंचाई पर है। यहां से हाथी पर्वत, नंदादेवी, नंदाघंटी, त्रिशुली समेत कई भव्य नजारे दिखते हैं। शिव की छवि को उनके चेहरे के प्रतीक रूप में पूजा जाने वाला यह भारत का इकलौता मंदिर है। भक्त यहां अपने पूर्वजों के लिए आते हैं। इसके लिए यहां वैतरनी नदी है जिससे दुनियाभर की आत्माएं पार करती है। यहां आने वाले लोगों को मंदिर परिसर का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं है क्योंकि मंदिर का निर्माण करीब 500 मीटर नीचे से किया हुआ है।
सुबह पूजा करने के बाद हमलोगों ने वापस जाने का प्लान बनाया। यह यात्रा बहुत ज्यादा लंबी थी, कारण ये कि घाटी की सबसे ऊंची चोटी नैला दर्रे को पार कर यहां से संकरे रास्ते व घने जंगलों को पार करते हुए अनुसुइया माता मंदिर होकर मंडल पहुंचना था। यह मंदिर करीब 20 किलोमीटर दूर थी। अनुसुइया मंदिर अनुसुइया देवी को समर्पित है। यह मंदिर उत्तरांचल के गोपेश्वर में समुद्र तल से 2000 मीटर ऊंचाई पर चमोली जिले में स्थित है। मान्यता है कि भक्त यहां नदी के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। कहा जाता है कि यह मंदिर संकट के वक्त अपने भक्तों की सहायता करता है। जिन्हें संतान नहीं होता है ऐसे दंपत्ति भी अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए इस मंदिर में जाते हैं।
मंदिर से 2 किलोमीटर की दूरी पर अत्रि नाम की गुफाएं है। इस गुफा का आध्यात्मिक महत्व काफी ज्यादा है। हमलोगों की इतनी थकावट हो गई थी कि यहां जाने का प्लान ही बदल लिया और मंडल की ओर निकल पड़े। अब हमारे लिए गाड़ी ठीक करना सबसे बड़ा चैलेंज हो गया था क्योंकि हमने खुद ही गलती जो की थी। शाम 6 बजे मंडल पहुंचने के बाद हमें वहां से उकीमाठ स्थित होटल तक के लिए काफी कोशिशों के बाद वाहन मिल गया। रात को ही हम सबने हेलंग की यात्रा करने की योजना बनाई। हेलंग जाने के लिए टैक्सी से पहले चमोली से दूसरे स्थान पर जाना था। 11 बजे हमलोग हेलंग पहुंचे और वहां के छात्रावास में सोने चले गए।
इस दिन सुबह हम आराम से उठे और हमें पता था कि यहां से उरगाम के लिए सड़क यातायात की व्यवस्था है। उरगाम यहां से 8 किलोमीटर दूर था। और फिर यहां से कल्पेश्वर पैदल का रास्ता था। कल्पेश्वर पहुंचने से पहले यह 8 किलोमीटर की यात्रा बड़ी मुश्किल रही। हमें उरगाम और फिर वहां से वापस लौटने के लिए गाड़ी बुक करना था। स्थानीय ट्रांसपोर्ट से बचने के लिए हमने शुरू से अंत के लिए यहां से एक कार बुक कर लिया।
कल्पेश्वर उरगम घाटी में 2,134 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। समुद्र तल से ऊपर चट्टानों से बना एक छोटा सा मंदिर है जहां भगवान शिव के बाल प्रकट हुए थे। ऋषियों के ध्यान करने के लिए यह सबसे पसंदीदा मंदिर है। कहावत है कि ऋषि अर्घ्य ने यहीं तपस्या की थी और इसी दौरान उन्होंने अप्सरा उर्वशी की भी रचना की। कहते हैं कि ऋषि दुर्वासा ने भी यहीं पर कल्पवृक्ष (इच्छा-पूर्ति वृक्ष) के नीचे तपस्या की थी। पत्थर की गुफा के अंदर आप इस मंदिर की परिक्रमा नहीं कर सकते बल्कि इसके लिए 50 किलोमीटर की यात्रा पूरी करनी होती है।
यहां की चढ़ाई पूरी करने के बाद हम सब वापस हेलंग की ओर बढ़े। लौटते समय उरगाम गांव में स्थित ‘ध्यान बद्री मंदिर’ के भी दर्शन हो गए। यह मंदिर सप्त बद्री यानी आदि, बद्रीनाथ, भव्य, योग, ध्यान, वृध व अर्ध में एक है। नरसिंह बद्री भी इसी लिस्ट में है।
हेलंग पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। हमने उरगाम के ड्राइवर से जोशीमठ पहुंचाने का अनुरोध किया। रात को हम यहीं जोशीमठ में ठहरे और फिर यहीं से हमें बद्रीनाथ के लिए निकलना था। चेकइन कर हम स्थानीय टैक्सी स्टैंड में पहुंचे, जहां से बद्रीनाथ जाने व वहां से ऋषिकेश लौटने के लिए गाड़ी लिया।
इस दिन हम सब सुबह आराम से उठे और नाश्ता करके सुबह करीब 11 बजे बद्रीनाथ के लिए निकले। दोपहर लगभग 2 बजे हम वहां पहुंच गए। बद्रीनाथ में श्रद्धालुओं की भीड़ बहुत ज्यादा थी। या फिर यात्रा के दौरान मुझे इतनी भीड़ वाली जगहों को देखने की आदत छूट गई थी। इसलिए हम सबने पहले माना गांव के निकट स्थित सरस्वती नदी जाने का प्लान बनाया। यह भारत-चीन सीमा का अंतिम गांव है।
व्यास और गणेश गुफ़ा जाने के बाद हम बद्रीनाथ मंदिर की ओर बढ़े। हम लोगों ने पहले मंदिर के पास एक गेस्ट हाउस में विश्राम किया और नहा-धोकर तैयार हुए। इसके बाद फिर अपनी तीर्थयात्रा को पूरी करने के लिए मंदिर की ओर बढ़ गए।
अलकनंदा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित बद्रीनाथ (3145 मी) ऋषिकेश के पवित्र शहर से 297 किलोमीटर दूर स्थित है। बद्रीनाथ को केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के शाश्वत हिंदू मंदिरों में से एक माना जाता है। बद्रीनाथ नर-नारायण पर्वत की गोद में स्थित है, जिसकी पृष्ठभूमि में नीलकंठ शिखर (6,597 मी) है। बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। साधु और स्थानीय लोग शास्त्रों के बारे में बताते हैं कि "स्वर्ग और पृथ्वी के सभी असंख्य तीर्थ स्थानों में बद्रीनाथ के बराबर कोई नहीं है और न ही कोई होगा।" वर्तमान मंदिर गढ़वाल के राजाओं द्वारा लगभग दो शताब्दी पहले बनाया गया था। मंदिर में मुख्य मूर्ति काले पत्थर की है और विष्णु ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं। बद्रीनाथ को विशाल बद्री के नाम से भी जाना जाता है और यह पंच बद्री में से एक है। गंभीर सर्दियों की स्थिति के कारण मंदिर अक्टूबर से अप्रैल तक बंद रहता है। इस अवधि के दौरान मूर्तियों को पांडुकेश्वर ले जाया जाता है।
बद्रीनाथ मंदिर, पौराणिक पंच केदार यात्रा को पूर्ण करने के लिए अंतिम पड़ाव है, क्योंकि शिव की भूमि के बीच विष्णु का एकमात्र स्वदेशी मंदिर होने के कारण यह केदार की कठिन यात्रा का गवाह या साक्षी है।
हमारे तीर्थयात्रा को पूरा करने के बाद, हमने साकेत रेस्तरां में एक शानदार भोजन किया जो बेहतरीन शाकाहारी भोजन परोसता है, जिसमें पनीर बटर मसाला भी शामिल है। हम बाजार घूमते रहे और रात तक पूरी तरह थक गए। अगली सुबह हमें जल्द निकलना था ताकि रात तक ऋषिकेश पहुँच सकें।
हमने 15 तारीख को अपनी वापसी ट्रेन की टिकट बुक की थी, लेकिन जब से हमने अपनी यात्रा पूरी की, हमने अपनी योजना को फिर से निर्धारित किया और अगले दिन वापस मुंबई के लिए उड़ान भरनी थी। इसलिए यह बहुत जरूरी था कि हम बहुत रात को ऋषिकेश में पहुँचे और अपनी यात्रा को शुरू करें। रास्ते में हमने कर्ण प्रयाग स्थित आदि बद्री मंदिर जाने का फैसला किया।
आदि बद्री [सप्त बद्री का एक हिस्सा], इस क्षेत्र में भगवान विष्णु को समर्पित यह पहला और प्राचीन मंदिर है और यह पर्वत शृंखलाओं में स्थित 16 छोटे मंदिरों की शृंखला में से एक है। इस शृंखला के सात मंदिर गुप्त काल (5वीं शताब्दी से 8वीं शताब्दी) के दौरान बनाए गए थे। परंपरागत रूप से आदि शंकराचार्य को सभी मंदिरों के निर्माता के रूप में माना जाता है। विष्णु मंदिर जो कि इस क्षेत्र में सबसे प्राचीन माना जाता है, उसके गर्भगृह में विष्णु भगवान के काले पत्थर की प्रतिमा है। छवि में विष्णु को गदा, कमल और चक्र पकड़े हुए दर्शाया गया है। यहां दक्षिण भारत के ब्राह्मण मंदिर में मुख्य पुजारी के रूप में काम करते हैं।
इसे क्षेत्र में विष्णु का आदि रूप माना जाता है जिसे अब विशाल बद्री के रूप में बद्रीनाथ में स्थानांतरित किया गया है और यह तपोवन स्थित "भव्य बद्री" (पंच बद्री का हिस्सा) के रूप में प्रतिस्थापित किया जाएगा। जानकारी हो कि बद्रीनाथ (जिसे राज बद्री के नाम से भी जाना जाता है) के भविष्य बद्री में स्थानांतरण के बाद आदि बद्री को योग बद्री कहा जाएगा। स्थानीय लोगों में एक अंधविश्वास है कि कुछ ही वर्षों में जोशीमठ से बद्रीनाथ तक की सड़क मंदिर के पास पहाड़ के झुकने से बंद हो जाएगी जो एक दूसरे के विपरीत खड़ी होती है और फिर यह मंदिर तीर्थ यात्रा का स्थान बन जाएगा।
पंच-केदार की यात्रा करते हुए हमने रास्ते में सभी प्रयागों के दर्शन किए, 5 प्रयाग और 3 बद्री की यात्रा के बाद अंततः उस रात ऋषिकेश पहुंच गए। हम एक छोटे से होटल में रुके और अगली सुबह दिल्ली जाने के लिए एक कार किराए पर लेने का फैसला किया, जहाँ से मुंबई वापस कूच करना था।
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