डिसक्लेमर : मैं ना तो हिंदू हूँ ना ही मुस्लिम हूँ | मैं पूरी तरह से किसी भी प्रकार की राजनीति से दूर रहता हूँ | साफ़ शब्दों में कहूँ तो मुझे राजनीति समझ तक नहीं आती है |
कुछ साल पहले गर्मियों के मौसम के दौरान मुझ में कहीं यात्रा करने की तीव्र लालसा जागी | यात्रा करने किस दिलचस्प जगह जाना है, इस सवाल का जवाब ढूँढने की खातिर मैं घंटों इंटरनेट पर पढ़ता रहता हूँ | और इन गर्मियों के दौरान जब मुझे कहीं घूमने की इच्छा हो आयी थी, ना जाने कैसे सोशल मीडिया पर मेरे सामने एक पोस्ट आई जिसमें पाकिस्तान की हद से ज़्यादा बुराई की हुई थी | तभी मेरे मन में एक विचार कौंधा - ऐ दिल, क्यूँ ना पाकिस्तान घूमने जाया जाए !
शुरुआत में परिवार, दोस्तों से तकरार हुई और फिर वीज़ा, टिकट और सत्यापन की खातिर सरकारी महकमें से | मगर बावजूद इन सबके आख़िरकार मुझे नवंबर महीने के लिए दिल्ली से लाहौर जाने वाली बस की टिकट मिल ही गयी | वैसे तो मैं चाहता था कि आराम से दिल्ली से हवाई जहाज़ में बैठ कर उड़ान भरूं और कुछ ही घंटों में सीधा करांची में उतरू | लेकिन अगर आप भी एक मुसाफिर हैं तो आप को पता होगा कि हमारे पास पैसों की हमेशा ही किल्लत रहती है | ऐसे में बस का विकल्प लेना ही सबसे सही लगा और उमीद थी कि इस यात्रा में अनुभवों की कोई कमी नहीं रहेगी |
वैसे तो मैं पूरे भारत में बहुत सी जगह घूम चुका हूँ (हिमाचल प्रदेश हमेशा से मेरा पसंदीदा स्थल रहा है) और दुनिया के दूर दराज के स्थान भी छान डाले हैं, मगर फिर भी अकेले पाकिस्तान जाने में मेरी कंपकंपी छूट रही थी |
22 नवंबर को एक लंबे और आरामदायक सफ़र के बाद में आख़िरकार लाहौर बस स्टेशन पहुँच ही गया | जिस चीज़ ने मुझे बस अड्डे पर उतरते ही सबसे पहले प्रभावित किया वो बात यह थी कि यहाँ भारत की तुलना में कुछ भी ज़्यादा बदला हुआ नहीं था | लोग भी एक से ही थे, बस थोड़े से गोरे थे | हवा भी वैसी ही थी, बस थोड़ी साफ थी | घर भी यहाँ जैसे ही थे, बस थोड़े छोटे थे | बोली में पंजाबी लहज़ा होने की वजह से काफ़ी मिठास थी | वीज़ा चेक-पॉइंट पर हम सब यात्रियों का काफ़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया |
"नवाब, हिन्दुस्तान चो कित्थो हो ? " (राजकुमार, हिन्दुस्तान में कहाँ से हो?)
"दिल्ली"
"पाकिस्तान दा पेल्ला चक्कर ?" (पाकिस्तान में पहली बार आए हो?)
"हाँ"
"खुशामदीन, अल्लाह तुम्हारे साथ रहे | "
सिर्फ़ शब्दों से ही नहीं बल्कि अपने बात करने के प्यार भरे लहजे से भी उस अधिकारी ने मेरा दिल जीत लिया | सीमा के इस पार मुझे भारतीय होने के नाते मेरे प्रति नफ़रत का कोई अहसास ही नहीं हुआ |
मैने पहले ही एयर बीएंडबी के द्वारा स्थानीय बंगले में 2 दिन के लिए ठहरने का इंतज़ाम कर लिया था | इस बंगले के मालिक का नाम अब्दुल था | अब्दुल मुझे लेने बस स्टैंड पर अपनी कार में आया था | अब्दुल एक खुशमिजाज़ जवान लड़का था जिसकी एक महीने बाद पेशावर के एक शाही परिवार में निकाह तय हो चुका था | बंगले पर मैं जैसे ही पहुँचा तो देखा की मेरे रहने की जगह काफ़ी साफ सुथरी थे | अब्दुल का परिवार एक होता सा परिवार था जो अपने बंगले में एक भारतीय को पनाह देने के विचार से काफ़ी खुश लग रहा था | सामान्य अवधारणा के विपरीत इस परिवार के व्यवहार से ऐसा लग रहा था जैसे ये भारतीयों को दुश्मन ना मांन कर भाई मानते हों | सच कहूँ तो जितने समय के लिए मैं लाहौर में रहा, मुझे एक भी ऐसा बंदा नहीं मिला जिसने मुझसे बदतमीज़ी या दुश्मनी से व्यवहार किया हो | उल्टा जब उन्हें मेरी बोली (जिसमे दूर दूर तक कोई पंजाबी लहज़ा नहीं था) से पता लगता था कि उनके सामने एक भारतीय खड़ा है तो वो पूरी शिद्दत से मेरी सेवा में जुट जाते थे | कोशिश करते थे कि जो मैं ढूँढ रहा हूँ वो मुझे आसानी से मिल जाए | यहाँ तक की जब मैं यहाँ की सबसे कट्टर स्थान जैसे बादशाही मसजोड़ में भी गया तो मुझे कभी भी कोई दुर्भावना महसूस नहीं हुई | शुरुआत के कुछ ही दिनों बाद मेरे दिमाग़ के अवरोध हटते चले गये |
26 नवंबर की सुबह मैने इस्लामाबाद जाने वाली बस पकड़ ली क्यूंकी देश की राजधानी इस्लामाबाद की तुलना में लाहौर थोड़ा गाँव जैसा था और अगले दिन भारत लौने से पहले मैं पाकिस्तान का आधुनिक पहलू भी देखना और महसूस करना चाहता था | इस्लामाबाद पहुँचा तो देखा कि इस शहर की संस्कृति और सभ्यता काफ़ी आधुनिक है जहाँ रूढ़िवादिता के लिए नगण्य स्थान है | वातानुकूलित शॉपिंग माल्स में महिलाएँ जीन्स और टी शर्ट में आराम से घूम रही थी और इन कन्याओं की सुंदरता के तो क्या ही कहने | यहाँ धार्मिक रूढ़िवादिता और आतंकवाद का नामोनिशान तक नहीं था, जो सुन सुन कर भारत में हम बड़े हुए हैं | गगनचुंबी इमारतें गिनी चुनी ही थी मगर यहाँ की जीवन शैली काफ़ी सरल और साफ सुथरी थी | हर जगह महँगी कंपनियों की दुकानों और भव्य रेस्तराँ की भरमार थी | बड़े आराम से इस्लामाबाद को भारत के विशाल महानगरों जैसे कोलकाता और चेन्नई की श्रेणी में रखा जा सकता है | इस्लामाबाद में केवल एक चीज़ ने मुझे बड़ा निराश किया और वो है यहाँ का मुगलाई खाना | यहाँ के मुगलाई व्यंजन और कहीं की भी तुलना में काफ़ी मीठे हैं | मगर हो सकता है कि शायद ये मेरे निजी स्वाद की वजह से मुझे लगा हो | हस्ती चौक पर अशोक की दुकान के कदीमी हलवा का स्वाद इतना लाजवाब था कि हो सकता है मैं उसे ज़िंदगी भर ना भूल पाऊँ |
इस्लामाबाद को अच्छी तरह से देखने के लिए मैं इस शहर में रात को रुक गया | शहर में मुझे कहीं भी एक भी शराब की दुकान नहीं दिखाई दी मगर जिस होटल में मैं ठहरा हुआ था वहाँ एक छोटा सा बार ज़रूर था | मेरी यात्रा का सबसे बढ़िया नज़ारा उस बार की ताक में रखी किंगफ़िशर लागर की एक बोतल थी | मुझे उसी समय इस देश से प्यार हो गया |
28 नवंबर की रात को अब्दुल और उसका छोटा भाई मुझे अपनी गाड़ी में बिठा कर बस स्टैंड तक छोड़ने आए | उन्होने चीनी और आते से बनी मिठाई पिंनी दे कर मुझे अलविदा कहा | साथ ही अब्दुल ने आने वाले क्रिसमस पर अपनी शादी का न्यौता भी मुझे दे डाला | मुझे अपने जीवन में कोई शादी समारोह में शामिल होने की इतनी तीव्र इच्छा कभी नही हुई थी |
अगले दिन जब दिल्ली की सीमा पर पहुँचने से पहले ही मेरी आँख खुली तो मुझे पाकिस्तान की बहुत याद आई जिसे लोग "दूसरी दुनिया" भी कहते हैं | मगर देखा जाए तो वो "दूसरी दुनिया" हमारी इस अपनी दुनिया जैसी ही तो है |
इस्लामाबाद
आधुनिकता का दूसरा नाम
लाहौर
पंजाब जैसा है मगर सांस्कृतिक रूप से और अधिक समृद्ध है
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