सितंबर 2020 के आखिर में उत्तराखंड मे नए ट्रैवल नियम जारी हुई थे और मार्च 2020 के बाद, पहली बार बिना कोरोना नेगेटिव रिपोर्ट के टूरिस्ट्स को उत्तराखंड आने के लिए परमिट किया गया था। हमने एकदम से ही प्लान बनाया कि चलो उत्तराखण्ड, 5 दिन का प्रोग्राम बना और बद्रीनाथ दर्शन करते हुए माना गांव देखने का सोचा।
आनन फानन होटल की बुकिंग करायी और लखनऊ- हल्द्वानी- रानीखेत- जोशीमठ- बद्रीनाथ- माना- अल्मोड़ा- बिनसर से फिर वापस लखनऊ की रोडट्रिप के लिए हम दोनो अपने ढाई साल के को-ट्रैवलर बेटे के साथ तैयार थे। पैकिंग रात को ही करनी थी क्यूंकि अगली सुबह 6 बजे रानीखेत के लिए निकलना था। सुबह हुई, 6 बजे हम उठे और रोजमर्रा के काम कर 6:30 पर अपनी गाड़ी से बरेली होते हुए रानीखेत के लिये अखिरकार निकल पड़े । एक साल बाद फिर से एकसाथ पहाड़ों की रोडट्रिप पर जाने की खुशी हम सबके चेहरे प़र साफ दिख रही थी।
खाने का समान, चाय और कुल्हड़ हम साथ लेकर निकले थे तो बरेली तक का सफर एक छोटे स्टॉप से आराम से तय हो गया। हल्द्वानी पहुंचते हुए लगभग दोपहर का 3 बज गया था। इसी के साथ पहाड़ों का दिखना शुरू हुआ तो गाड़ी में बजते गानों की धुन और हमारा मन दोनों सॉफ्ट होते गए। काठगोदाम से भीमताल होते हुए हम रानीखेत पहुंचे जहां पूरे रास्ते में केवल लोकल ट्रैफिक या इक्के दुक्के टूरिस्ट ही दिखाई दे रहे थे।
रानीखेत में एक गांव है मजखाली, जिसमें होटल में हमारा रात का स्टोपेज था। वहाँ के ओनर और स्टाफ co-operative थे! रात का खाना वहीँ होटल में ही खाना था क्यूंकि अमूमन सारे होटल और दुकानें बंद थे और टूरिस्ट की संख्या नाममात्र थी। रात के खाने से हम निराश हुए। होटल में उस रात रुकने वाले केवल हम ही थे। ये होटल मेन रोड से उतरकर एक गांव में छोटी पहाड़ी पर है। साफ सफाई देखकर सुकून हुआ था। बालकनी में बैठ कर ठंड के साथ कॉफी और पहाड़ों के एकांत का आनंद आज के सफर की थकान को धीरे धीरे उतार रहा था। उस रात हमने कोई म्युजिक नहीं सुना, बस रात के एकांत और पहाड़ों की हवा की आवाज ही सबसे मधुर संगीत लग रहा था।
अगले दिन सुबह 6:30 बजे मैं उठा और होटल स्टाफ को चाय पिलाने और नाश्ते का ऑर्डर देने के लिये फोन किया। एक काल में ऑर्डर हो गया कमाल ही था ! अभी तक पूरे सफर में ढाई साल का बेटा मजे से था पर यहां की ठंड ने अपना असर उसपर दिखाना शुरू कर दिया और हम सोचने लगे की क्या आगे जाएं या नहीं क्यूंकि आगे उसके लिए और ठंड बढने वाली थी।
खैर अब हम नाश्ते के लिए किचन के बाहर बालकनी में बने रेस्टोरेंट में आकर सुबह 7:30 बजे बैठ गए। नज़ारा बहुत ही सुंदर और शांत था।
कम ऊंचाई के पहाड़ों की अटूट श्रंखला और रानीखेत की हरियाली का दृश्य बालकनी मे झूलते गमलों में लगे रंग बिरंगे फूलों के बीच से मन को रोक देने वाला था। नाश्ते का इंतजार, भूख और ये नज़ारा "सफर खूबसूरत है मंज़िल से भी " की पंक्तियाँ याद दिला रहा था। अब तक बेटे कि तबीयत ठीक होने लगी थी। नाश्ते में आलू परांठे, पोहा, सब्जी पराठे, चाय और कॉफी के साथ बटर टोस्ट ये सब था !
बहुत टेस्टी और भारी भरकम नाश्ता करने के बाद हम 9 बजे नीचे उतर कर आए और गाड़ी में सारा समान लोड कर दिया। गाड़ी पूरी तरह से ओस से ढ़की हुई थी।
एक बार फिर से शिव स्त्रोत सुनते हुए और स्टाफ को अलविदा कर अपने दूसरे दिन के सफर पर औली, जोशीमठ के लिए निकल पड़े । यहां से द्वारहाट - चौखुटिया - कर्णप्रयाग होते हुए जोशीमठ का ठिकाना था। गानों की धुन और बेटे के बीच बीच में रोने की आवाज और गोल गोल घूमते पहाड़ी रास्तों के मेल खाते रिदम के साथ ये सफ़र और भी खूबसूरत होता जा रहा था। पहाड़ों पर जब कोई ट्रैफिक ना हो तो रास्ते मे पड़ने वाले ज्यादातर व्यू पॉइंट्स हम अपने हिसाब से और सुकून से देख पा रहे थे।
अब हम चमोली जिले में थे, कर्णप्रयाग पहुंचने पर आपको दो रास्ते दिखाई देते हैं , एक केदार और दूसरा बद्रीविशाल को जाता हुआ! मन फिर से डगमगाने लगा पर पर बजट और समय को ध्यान रखते हुए पूर्व निर्धारित प्लान पर चलना ही तय हुआ। अलकनंदा और पिंडर नदियों के संगम पर कर्णप्रयाग यहां तक अकेले ड्राइवर की थकान को उतार नयी ऊर्जा दे रहा और हम फिर नंदप्रयाग की ओर चल पड़े जो कि अलकनंदा और नंदाकिनी नदियों के संगम पर स्थित है। यहां से पहाड़ों की ऊंचाई, वनस्पति और कुदरत की सुंदरता नया रूप लेती दिखाई दे रही थी। अब शाम होने लगी थी, ठंड बढ़ती और रोशनी घटती जा रही थी। हमें अभी अपने होटल पहुंचने की चिंता थी तो फिर आगे बढ़ना शुरू किया।
रोड की हालत ठीक थी अभी तक। जोशीमठ से 12 किलोमीटर पहले एक ब्रिज आता है वहाँ 'आप की रसोई' नाम से एक फूड पॉइंट मिला तो मैगी और चाय का मज़ा लिया और होटल की ओर चल पड़े।
अंधेरा हो चुका था और हमेशा की तरह पहाड़ों में गूगल मैप ने हमें छकाना शुरू किया और एक सुनसान रास्ते मे गड्ढे को होटल बताकर हमारी बैंड बजा दी। फिर होटल स्टाफ ने किसी को भेजकर हमें सही रास्ता दिखाया और 4 किलोमीटर आगे चलने के बाद हम 7:30 बजे शाम को होटल पहुंचे। एक बार फिर से पूरे होटल में इकलौते टूरिस्ट हम ही थे। साफ़ सफाई देखकर सुकून हुआ। खाने का वही सिस्टम था, या तो आप अंधेरे में उतरकर 6 किलोमीटर नीचे जाएं और जोशीमठ बाजार में खाने खाने को कुछ ढूँढे या फिर आराम से रूम में बैठकर बर्फ से ढ़की दूध सी चोटियों को देखते हुए अपने मन का गरमा गरम खाना खाएं और हमने फिर वही किया। यहां का खाना ताजा बना हुआ था और स्वाद भी बढ़िया था। दाल फ्राई, आलूगोभी और ढेर सारा सलाद वो भी आपके बताये अनुसार ! अकेले टूरिस्ट होने के कारण और भी बढ़िया प्रयास था स्टाफ का अच्छी सर्विस देने का।
स्वाद खाना खाकर हम रूम में आए, यहां बेटे को ठंडे माहौल की वजह दिक्कत होने लगी थी और कुछ असर ऊंचाई का भी था। इतनी ऊंचाई पर ये दोनों पहली बार आए थे। इस रात बेटे को आराम पहुंचाने के बाद और सुलाने के बाद हम दोनों बाहर बैठ कर चंद्रमा की रोशनी मे दूध सी चमकती चोटियों को निहारते हुए बहुत सारी बाते करते रहे, कुछ बाते तो ऐसी थी जो शायद रोजमर्रा की जिंदगी में वज़ूद ही नहीं रखती पर यहां जब हुई तो एहसास हुआ कि जिंदगी जीने की परिभाषा दोनों स्थितियों में किसी वृत्त के व्यास के दो छोरों की तरह बिल्कुल ही अलग हैं। अखिर मे एक एक कॉफी पीकर हमारी इस रोडट्रिप का दूसरा दिन ख़त्म हुआ। अगले दिन बद्रीविशाल के दर्शन और माना गांव की खूबसूरती देखने की उत्सुकता के साथ सोने चले गये।
तीसरा दिन शुरू हुआ, सुबह उठा तो अंधेरा था, सूरज अभी निकला नहीं था। कॉफी मंगाकर मैं अकेले ही बाहर बैठकर रंग बिरंगे फूलों के बीच सूर्योदय का इंतजार करने लगा। आधे घंटे में सूर्योदय हुआ और दुध सी सफेद चोटियां केसरिया होने लगीं थीं। वाइफ और बेटा भी अब उठ चुके थे, नाश्ते के लिए स्टाफ को कह दिया था। रोजमर्रा के काम निपटा कर रेडी होकर हम नाश्ते की टेबल पर रेस्टोरेंट में बैठ गए, 7:30 बज चुका था। केवल दो लोगों के लिए नाश्ता बनाना था इसलिए सब तैयार था। आलू पराठे, पूरी सब्ज़ी औऱ कॉफी का नाश्ता बेहद स्वादिष्ट था, देसी गाय के दूध का दही इसका स्वाद कई गुना बढ़ा रहा था। एनर्जी से लोड हम बद्रीनाथ दर्शन के लिए तैयार थे और बेटे की तबीयत भी अच्छी हो गई थी।
सुबह 9 बजे शिवस्त्रोत की धुन के साथ तीसरे दिन का सफर शुरू किया जिसमें 50 किलोमीटर की दूरी तय कर प्रकृति का आनंद लेते हुए बद्री विशाल के दर्शन करने थे। कुछ दूर चलने पर पंच प्रयाग में एक और प्रयाग विष्णुप्रयाग पड़ा। विष्णु प्रयाग का ब्रिज पार करके हम रुक गए। यहां अलकनंदा, धौलीगंगा नदी को अपने में समाहित कर रही थी. अद्भुत दृश्य !!
इस ट्रिप में अलकनंदा के पंचप्रयाग में यह तीसरा प्रयाग था जिसके दर्शन हमने किए। आपको बताते चलें कि इन प्रयागों पर मिलने वाली नदियों में जो ज्यादा गहरी होती है, आगे के मार्ग पर वही मुख्य नदी बन जाती है। इसलिए विष्णु प्रयाग के बाद धौलीगंगा विलय होकर केवल अलकनंदा ही जानी जाती है। चौथा प्रयाग देवप्रयाग हम पहले की ट्रिप मे ही देख चुके थे।
यहां पहाड़ बहुत ऊंचे, वनस्पति कम औऱ ठंड बढ़ती जा रही थी। चारधाम प्रोजेक्ट का काम तेजी से चल रहा था, रास्ते बीच बीच में ठीक और ज्यादातर काम के कारण काफी ख़राब थे। यहां पर हमें दिल्ली से आने वाले और गुरुद्वारा हेमकुंड साहिब के लिए आने वाले पर्यटक दिखाई देने लगे थे और ज़ाहिर सी बात है, ट्रैफिक थोड़ा थोड़ा बढ़ने लगा था। 12 बजे हम बद्रीविशाल मंदिर पहुंचे और आश्चर्य चकित थे कि भीड़ के नाम पर 20 -25 दर्शनार्थी ही वहाँ मौजूद थे। बहुत आराम और सुकून से हमने दर्शन किए।
नर - नारायण पर्वत के मध्य स्थित ये स्थल अब बर्फीली हवाएं, नीलकंठ पर्वत की चोटी, धूप, भीड़भाड़ ना होने का एकांत और अलकनंदा के प्रवाह की ध्वनि ये सब एकसाथ मिलकर इस वातावरण को वाकई प्रकृति ही दैवीय शक्ति है का एहसास करा रही थी। लगभग 3200 मीटर की ऊंचाई पर हम तीनों इस यात्रा का आनंद हल्के-फुल्के खानेे के साथ ले रहे थे और प्रकृति का धन्यवाद कर रहे थे जिसने इतने सुन्दर वातावरण का निर्माण किया था।
वहां से हम माना गांव के लिए आगे निकल पड़े जो यहां से 6 किलोमीटर दूर था. करीब 30 मिनट की राइड के बाद हमें झटका लगने वाला था! माना गांव पहुंचकर पता चला कि covid19 के चलते लोकल लोगों ने वहां बाहरी लोगों का आना बंद कर रखा था. हम बहुत निराश हुए पर उनके इस फैसले का सम्मान करते हुए, वहीँ रुककर कुछ देर फोटोग्राफी की और वापस औली, जोशीमठ की ओर निकल पड़े. वापस लौटते हुए हमने पूरे रास्ते मे जहां भी सुंदर नजारा दिखा वहीँ रुककर उसका आनंद लेंगे ताकि माना ना देख पाने की कमी को कुछ तो पूरा किया जा सके. पहाड़ों की यही खासियत है अगर आप कुछ देखने से चूक भी जाते हैं तो याद रखें
"यहां सफ़र खूबसूरत है, मंजिल से भी"
माना से बद्रीनाथ के बीच एक पॉइंट है जहां हमें छोटा ही सही पर एक Reverse Waterfall देखने को मिला. यहां पर ऊपर से बहता पानी सड़क से पार होते हुए सीधा नीचे खाई में जाने का प्रयास कर रहा था लेकिन नीचे खाई से ऊपर आती हुई तेज बर्फीली हवाएँ उस नीचे गिरते पानी के कुछ हिस्से के मेहनत को धता बताते हुए वापस ऊपर की ओर फेंक रहीं थीं, जिसकी छींटे हम सबके चेहरों पर एक अजीब सी खुशनुमा मुस्कान ला रहीं थीं. कुछ देर वहाँ बैठने के बाद हम वापस होटल की ओर चल पड़े. आज हम शाम में ही होटल पहुंच चुके थे, और बेटे को अब कुछ समय अपनी मां के साथ चाहिए था ताकि दोनों अगले दिन के सफर के लिए तैयार हो सकें. मैंने होटल रूम के बाहर पडी चेयर और टेबल का सदुपयोग करते हुए खुले आसमान के नीचे बैठकर ये समय खुद को देने का सोचा और एक और शांत और खुशनुमा शाम सूर्यास्त के केसरिया माहौल में लेमन टी और वहीँ उगाई गई ककड़ी और ग्रीन एप्पल की सलाद के लाज़वाब स्वाद के साथ बिताई. रात के 9:30 बजे हमने डिनर किया और पहाड़ों की खूबसूरती, आकाश में टिमटिमाते तारों, एकांत और बातों के साथ अगले दिन बिनसर, अल्मोड़ा के सफ़र की तैयारी के साथ सोने चले गए.
सुबह उठकर हमने सूर्योदय का वही आनंद फिर से लिया,
सितारों से सजे काले आसमान को चंद्रमा की बिंदी माथे से लगाए केसरिया आकाश होते देखा,
बहुत स्वादिष्ट और भरपेट नाश्ता करने के बाद हम चौथे दिन के सफर के लिए तैयार थे.
आज का दिन हमें जीवन भर याद रहने वाला था !!
औली से निकलते हुए हमने बुगयाल देखने का सोचा, हालांकि उस समय बर्फ नहीं थी, केवल पहाड़ों की चोटियों पर फैले हुए दूध के समान बर्फ ही मौजूद थी. फिर भी हमने जाने का तय किया और जाकर देखा कि इक्का दुक्का बाहर से आए टूरिस्ट के अलावा वहाँ कुछ नहीं था. औली की फेमस रोप वे बंद पडी थी और झील भी सूखी थी. 2 घंटे वेस्ट करने के बाद वापस हम जोशीमठ के लिए निकले पर इस बार एनर्जी कम हो चुकी थी.
करीब 11 बजे हम जोशीमठ से बिनसर के लिए निकल गए.
लौटने का रूट में कर्णप्रयाग के बाद चमोली गोपेश्वर - अल्मोड़ा मार्ग से निकलना था जबकि आते हुए हम रानीखेत - चौखुटिया मार्ग से आए थे. 12 बजे दोपहर होते होते कर्णप्रयाग पहुंचने से पहले ही एक तेज मोड़ पर सामने से आती गाड़ी के ऊपर अचानक पत्थर गिरने लगे. मुझसे आगे एक और गाड़ी चल रही थी, उसने और मैंने तुरंत गाड़ी स्लो कर साइड ली और तेजी से ब्रेक लगाए. अभी छोटे पत्थर गिर रहे थे और कार सवार गाड़ी को निकालना चाह रहे थे, तभी बड़े पत्थर भी ऊपर से गिरने लगे तब वो सब कार वही छोड़ कर पैदल भाग निकले. सबकी जान बच गई पर 15 20 मिनट में पूरी गाड़ी पच्ची हो चुकी थी. दोनों तरफ ज़ाम लगने लगा और पत्थरों का गिरना जारी था. पुलिस को रिपोर्ट किया गया और हमने जाम और लगे इससे पहले गाड़ी बैक कर पास ही के छोटे से होटल में लंच करने का सोचा. वहाँ हमने सादा खाना यानी दाल चावल और सब्जी रोटी खाया. टेस्टी!! अब हमारे पास सिवाय इंतजार करने के कोई और चारा नहीं था. प्लान आज रात बिनसर में रुककर अगले दिन वापसी का था, पर ऐसा होने वाला नहीं था.
ये जाम और रोड खुलते खुलते शाम के 4 - 4:30 बज गए.
पहाड़ी रास्तों पर 200 से ज्यादा किलोमीटर की यात्रा हमें अभी करनी बची थी.
खैर हम उम्मीद के साथ निकल पड़े की देर से ही सही, 8 के बजाय रात 12 बजे तक होटल पहुंचेंगे और सो जाएंगे !!
6:30 बजे शाम तक हम ग्वालदाम ही पहुंच सके , यहां तक की रोड बेहतरीन बनी हुई थी. अँधेरा लगभग हो चुका था!!
आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे लोगों और ट्रैफिक का दिखना लगभग ना के बराबर हो गया था. 7 बजे ही अंधेरा इतना हो गया था कि गाड़ी की लाइट से ही रास्ता दिख रहा था और जो बीच बीच में खराब भी होता जा रहा था. आगे चलते हुए अब रास्ते में 8 बजे के बाद घुप अंधेरा, गाड़ी की लाइट से दिखता पहाड़ी रास्ता बस यही दिख रहा था. बीच बीच में पड़ने वाले छोटे गांवों में सब बंद था और इंसान दिखना बंद हो चुके थे. जैसे तैसे हम रात 10 :30 बजे बागेश्वर पहुंचे, वहाँ कोतवाली के जस्ट बगल में एक होटल खुला हुआ था, जान में जान आयी और रूम लिया. बिनसर होटल वाले ओनर को इन्फॉर्म कर दिया और खाना खाकर सो गए.
अगले दिन यानी पांचवें दिन बजाय सीधे बिनसर जाने के रूम चेकआउट टाइम तक आसपास घूमने का सोचा. सबसे पहले गोमती के तट पर स्थित बागेश्वर महादेव के बाहर से ही दर्शन किए (मंदिर बंद था). गोमती के किनारे अकेले हम ही बैठे थे. वहां से निकलकर हमने बैजनाथ धाम दर्शन करने निकल पड़े.
ये दूरी करीब 25 किलोमीटर है. वहाँ भी दर्शन के लिए इक्के दुक्के स्थानीय लोगों के सिवा केवल हम ही बाहर से आए थे. मंदिर देखकर उस समय की तकनीकी का अंदाजा भर ही लगाया जा सकता है. मंदिर में मुख्य पुजारी दैनिक विधि विधान की तैयारी कर रहे थे. उनसे थोड़ी बातचीत के बाद मंदिर प्रांगण देखने लगे. यहां एक झील है जिसमें सांप और मछलियां बहुतायत में थे. यहां से हम वापस जाते हुए कोट ब्राह्मारि देखते हुए और नाश्ता करते हुए बागेश्वर में अपने होटल पहुंचे और पेमेंट करके बिनसर के लिए निकल पड़े. 11:30 बज चुका था.
हमें लगभग 65 किलोमीटर चलकर होटल पहुंचना था. आधी दूरी के बाद काफलीगैर से हमने शॉर्टकट लिया और बिनसर वाइल्डलाइफ सैन्चुरी के क्षेत्र के अंदरूनी रास्ते से खोलसिर होते हुए चल पड़े. ये रास्ते उम्मीद से ज्यादा संकरे थे पर एकदम एकांत माहौल औऱ केवल प्रकृति का सानिध्य इस फैसले को सही बता रहे थे. रास्ते मे हमने एक गोह देखी. और फाइनली नया गांव से वापस बेरीनाग - अल्मोड़ा मुख्य मार्ग से होते हुए. धौलाछीना, बिनसर पहुंच गए. होटल पहुंचने के लिए हमें मुख्य मार्ग से ऊपर बिल्कुल ही संकरे रास्ते से जाना था, जिसे देखकर कल रात मे यहां न आने का फैसला सही लग रहा था. रास्ता इतना संकरा था कि एक गाड़ी के बाद बगल से साइकल भी नहीं निकल सकती थी. पर दिन होने कि वजह से आखिर गाड़ी को चढ़ा दिया और थोड़ी मशक्त के बाद जब होटल पहुंचे और नजारा देखा तो बस देखते रह गए. यहां भी इकलौते टूरिस्ट हम ही थे. रूम की बालकनी से विंडोस ऑपरेटिंग सिस्टम का पहाड़ों की अनवरत एक के पीछे एक परतों वाला पुराना वालपेपर दिख रहा था वहीं रूम का दरवाजा खोलते ही सामने बैठने के लिए एक गार्डन था.
खाने के लिए हमने स्थानीय डिश पहाड़ी कड़ी और चावल के लिए कहा. कुछ देर आराम करके लंच किया और जो स्वाद मिला तो अच्छी नींद आ गयी. एक घंटे सोने के बाद शाम को उठकर रूम की बालकनी में बैठकर कॉफी और मैगी के साथ सूर्यास्त होते देखा. बाकी समय होटल के आसपास मार्केट में गुजारा और रात को अलाव जलाकर ओपन एरिया में हल्के म्यूजिक और देसी खाने के साथ बिताया. अगले दिन वैसे तो वापस जाना था पर अब इरादा दो दिन और यहीं रुककर यूहीं पहाड़ी रास्तों पर काटने का बन चुका था. 6th 7th दिन हमने वही स्टे किया. रोज सुबह उठना और काले आसमान को केसरिया और फिर नीला होते देखना. ब्रेकफास्ट के बाद कुछ घूमने निकल जाना वापस शाम को बालकनी में बैठकर नीले आसमान को केसरिया और फिर काले आसमान में बदलते हुए देखना ही रूटीन था .
6वें दिन पनीर पकौड़े भांग की चटनी का नाश्ता कर जागेश्वर/ दंडेश्वेर महादेव मंदिर गए. रास्ते मे जाते हुए जंगली लोमड़ी का जोड़ा अचानक ही धौलचीना से बाड़चीना के बीच दिखाई दिया.
मंदिर में इक्के दुक्के टूरिस्ट के अलावा कोई नहीं था. वहाँ से वापस आते हुए बाड़चीना मोड़ से पहले एक रास्ता वृद्धजागेश्वर के प्राचीन स्थान को जाता है.
वापस लौटकर गहत की पहाड़ी दाल, सरसों का साग और साथ मे उत्तराखंड की फेमस बाल मिठाई स्वादों से भरा लंच किया. शाम की चाय के साथ पहाड़ों में सूर्यास्त देखने का अनुभव ही अलग था.
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