नेतरहाट: छोटानागपुर की रानी (Netarhat: The Queen of Chhotanagpur) - Travel With RD

Tripoto
30th May 2016
Photo of नेतरहाट: छोटानागपुर की रानी (Netarhat: The Queen of Chhotanagpur) - Travel With RD by RD Prajapati
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जैसा की अक्सर ऐसा होता है की हमें दूर के नज़ारे ज्यादा सुहाने लगते हैं, इसीलिए अपने राज्य में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते, इसे चिराग तले अँधेरा ही तो कहा जा सकता है न ! यही स्थिति कुछ वर्षों से मेरे साथ भी थी, पिछले चार सालों से लगातार नेतरहाट के बारे सोचता रहा, पर नहीं जा पाया। लेकिन कुछ दिनों पहले ही अचानक नेतरहाट जाने की तमन्ना पूरी हुई।

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लेकिन अपने शहर जमशेदपुर से नेतरहाट की कोई सीधी बस सेवा नहीं है। इस कारण हमारा कार्यक्रम कुछ यूँ बना- पहले जमशेदपुर से रांची पहुचना, फिर रांची से नेतरहाट। जमशेदपुर के मानगो बस स्टैंड से रांची के काँटाटोली बस स्टैंड तक एक सौ तीस किलोमीटर की दूरी तय करने में सामान्यतः तीन घंटे ही लगते है, लेकिन दुर्भाग्य से झारखण्ड की जीवन रेखा कही जाने वाली सड़क NH-33 की दुर्दशा के कारण वक़्त कुछ ज्यादा लगा, जबकि हमने रविवार के तड़के सुबह पांच बजे की बस पकड़ी थी।

खैर, सुबह सुबह साढ़े आठ बजे ही हम हाजिर थे झारखण्ड की राजधानी रांची में। रांची आते ही मुझे याद आने लगते हैं, अपने कॉलेज के दिन। उन दिनों घुमक्कड़ी का कीड़ा उतना बुलंद नहीं था, वरना ये सफ़र कब का तय हो चुका होता। तो यह था रांची का काँटाटोली बस स्टैंड, लेकिन यहाँ से नेतरहाट की बस नहीं मिलती। रांची का एक और बस स्टैंड है आई टी आई (ITI) बस स्टैंड, जहाँ से नेतरहाट, लोहरदगा, गुमला आदि शहरों की बसें मिलती है। अब काँटाटोली से ऑटो पकड़ पहुँच गए हम आई टी आई बस स्टैंड।

आई टी आई बस स्टैंड रांची का छोटा बस स्टैंड है, सड़क के दोनों ओर छोटे-छोटे ढाबे भरे हुए हैं। रांची में सुबह की शुरुआत हर जगह जलेबी और पूड़ी-सब्जी-कचौड़ी के साथ होती है, साथ ही समोसे भी खूब पसदं किये जाते है, इडली-डोसे का प्रचलन बहुत कम है। बस स्टैंड पर लोगों ने मुझे रांची-महुआटांड वाले बस की ओर इशारा किया जो नेतरहाट होकर जाती है।

नेतरहाट पहाड़ी पर बसा है, इसीलिए इधर जाने वाली सभी बसें सुबह सुबह ही रवाना होती है, सबसे पहली बस सुबह छह बजे और आखिरी बस ग्यारह से बारह बजे दोपहर की होती है। रांची से नेतरहाट एक सौ साठ किलोमीटर दूर है, रास्ता आगे जाकर घाटियों से भी गुजरता है, इसीलिए चार घंटे से कुछ ज्यादा ही वक़्त का लगना तय है। विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार भी नेतरहाट की आखिरी बस साढ़े ग्यारह बजे की थी, यह सूचना सही निकली। हमारी बस बारह बजे निकली। रांची से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर बढ़ते हुए हमारी बस नेतरहाट की ओर चली थी, बीच में एक छोटा सा शहर है लोहरदगा। अगर आप यह नाम पहली बार सुन रहे हैं, तो थोडा अजीब लग सकता है। झारखण्ड के ये इलाके ही वास्तविक झारखण्ड का एहसास करा देते हैं, जब सड़क दोनों ओर खड़े ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के बीच से गुजरती है। इस राज्य की सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं मानी जाती, फिर भी यह सड़क ठीक-ठाक ही है। लोहरदगा पार करने के बाद बस में भीड़ काफी कम हो गयी, और अब सफ़र सुहाना हो चला था। अब जंगल का घनत्व बढ़ता चला गया, पलास के लम्बे-लम्बे पेड़ों ने नजारों को रूमानी बना दिया, ये पलास के पेड़ ही तो झारखण्ड की शान हैं! ऐसा लगता है की किसी ने इन्हें कतारबद्ध तरीके से लगे हो! साथ ही बांस की झाड़ियों ने भी एक खूबसूरत समां बाँधने में कोई कसर न छोड़ी! सर्वत्र हरियाली! कुछ समय बाद ये रास्ते पहाड़ियों पर चढ़ने लगे, बिल्कुल हिमालयी रास्तों की तरह घुमावदार-वक्रदार, विश्वास ही नहीं हुआ की ये झारखण्ड है! फर्क सिर्फ इतना की हिमालय की तरह इनमें बर्फ नहीं है। हालाकिं झारखण्ड के ये पठारी हिस्से भूस्खलन या लैंडस्लाइड के जोखिम से काफी सुरक्षित हैं। इन टेढ़े-मेढ़े डगर पर लगभग एक घंटे का सफ़र तय करने के बाद 3700 फीट की ऊंचाई पर बसा नेतरहाट आ गया। नेतरहाट शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी के नेचर्स हार्ट या Nature's Heart शब्द से हुई है, जो अंग्रेजों द्वारा दिया गया था। बाद में स्थानीय लोगों ने इस नाम का अपभ्रंश बना कर 'नेतरहाट' कर दिया। एक हिल स्टेशन होने से भी ज्यादा नेतरहाट को जिस कारण प्रसिद्धि मिली, वो है नेतरहाट आवासीय स्कूल। राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे इस स्कूल से प्रतिवर्ष अनेक टॉपर निकलते है। शाम के छह बज चुके थे, होटल तलाश में इधर उधर भटकने पर पता चला की आज सारे होटल हाउसफुल हैं। ऐसा होना यहाँ आम बात है, क्योंकि यहाँ सिर्फ गिने-चुने संख्या में ही होटल हैं, राज्य पर्यटन विभाग के प्रभात विहार होटल के अलावा यहाँ कुछ निजी होटल और पलामू डाक बंगला हैं। कभी-कभार अचानक आस-पास के शहरों से सप्ताहांत मनाने के लिए लोग आ जाते हैं, जिससे समस्या पैदा होती है। किसी तरह हमें प्रभात विहार में जगह मिली। इस होटल का फायदा यह है की इसकी छत से ही सीधे सूर्योदय का दर्शन किया जा सकता है। रात्रिकाल में नेतरहाट प्रायः बिजली की कमी की समस्या से जूझता रहता है, इसीलिए तो रात के आठ बजे ही जो बिजली रानी फुर्र हुई, अगले दिन यहाँ से विदा लेने तक नदारत ही थी। वैसे यह एक ठंडी जगह है, पंखे और एसी की जरुरत नहीं पड़ती, रात आराम से गुजर गयी। दूसरी समस्या यहाँ खाने-पीने की भी है, क्योंकि एक-दो अतिसाधारण किस्म के ढाबे ही उपलब्ध हैं यहाँ। मोबाइल नेटवर्क भी सिर्फ एयरटेल का ही पुख्ता है, बीएसएनएल का थोडा बहुत, और किसी अन्य का नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात है, यहाँ आने पर पर्याप्त मात्रा में नकद पैसे लेकर ही आयें, क्योंकि नेतरहाट के एकमात्र एसबीआई एटीएम का कोई भरोसा नहीं। मेरे साथ भी पैसे की समस्या होने वाली ही थी, पर काम निकल गया। पीने के पानी के लिए यहाँ आपको चापाकल काफी काम दिखाई देंगे, क्योंकि बॉक्साइट अयस्क की प्रचुरता के कारण भूमिगत जल की गुणवत्ता ठीक नहीं है। सारी बस्ती सरकारी आपूर्ति वाले जल पर ही निर्भर है। तो ये सब झारखण्ड-पर्यटन की विडम्बनाएं है। अगली सुबह होटल से ही सूर्योदय का नजारा शानदार था। छत पर चढ़कर लोग इस पल को कैमरे में कैद करने में लगे थे। किन्तु बादलों ने सूरज को लगातार ओझल बनाए ही रखा, परिणामस्वरूप काफी देर बाद ही उगते सूरज के दर्शन हुए। नेतरहाट घूमने के लिए यहाँ कोई सार्वजनिक सेवा तो है नहीं, इसीलिए आगे के कार्यक्रम के लिए एक स्थानीय गाड़ी वाले से ही मैंने बात कर रखी थी। यही कारण भी है की अधिकांश लोग निजी वाहनों से ही आते हैं। अब गाड़ी का ड्राइवर ही हमारा टूरिस्ट गाइड भी बन गया। सबसे पहले हम वन विभाग के एक ट्री हाउस की ओर चले जहाँ किसी पानी फिल्म की शूटिंग चल रही थी। रांची से बस में आते वक़्त कुछ लोग बड़े बड़े कैमरे लेकर सवार थे, मैंने सोचा की कोई बंगाली बाबू ही होंगे क्योंकि घूमने में तो वे ही माहिर होते हैं, पर वे मुंबई से इसी फिल्म की शूटिंग हेतु आ रहे थे। पूछने पर पता चला की वे वन विभाग के सहयोग से'सूखे' पर कोई फिल्म बना रहे हैं। आगे था कोयल व्यू पॉइंट जिसे अंग्रेजों ने ही नाम दिया था। दूर घाटी के नीचे बहती हुई कोयल नदी दिखाई पड़ती है, साथ ही आस-पास चीड़ के वनों का भरमार होना भी काफी आश्चर्यजनक है, क्योंकि मैंने तो ऐसे वन सिर्फ हिमालय में ही देखे हैं। आगे बढ़ते-बढ़ते रास्ते पर ही एक बड़ी सी झील मिली जिसे लोग नेतरहाट डैम के नाम से जानते हैं, यहाँ भी उसी फिल्म की शूटिंग चल रही थी। ड्राइवर ने कहा की आगे आपको एक विशेष चीज दिखाऊंगा। कुछ ही दूर चले की अचानक उसने एक बगीचे के पास गाड़ी रोक दी। मैंने देखा की कोई आठ-दस फुट लम्बे-लम्बे सैकड़ों पौधे छोटे-छोटे फलों से लदे हुए हैं। तो ये नाशपाती के बगान थे। सरकार इन बागानों को ठेके पर लगा देती है। ड्राइवर ने ये भी बताया की नेतरहाट में तो एप्पल यानि सेब की खेती भी की गयी थी, चाय बगान भी लगाए गए, परन्तु रख-रखाव में कमी के कारण सफल नहीं हो पाए, वरना आज ये जगह कश्मीर जैसी लगती। दो-चार नाशपाती तोड़कर मैंने रख लिए और चखा भी, पर अभी ये कच्चे थे,फिर भी हलकी मिठास जरूर थी। अब आगे बढ़ते हुए नेतरहाट के सबसे प्रसिद्ध सूर्यास्त पॉइंट या मैगनोलिया पॉइंट की ओर चलते हैं, जहाँ सूर्यास्त देखना तो संभव न हो सका किन्तु एक ऐतिहासिक प्रेम और विरह की अनोखी कहानी छुपी मिली। मैगनोलिया एक अंग्रेज लड़की का नाम है, जिसे एक स्थानीय चरवाहे के साथ प्रेम हो गया था। लेकिन लड़की के अभिभावकों ने जब उस चरवाहे की हत्या कर दी, तब प्रेम-विरह से ग्रसित होकर लड़की ने भी इस घाटी की असीम गहराईयों में घोड़े सहित कूदकर अपनी जान दे दी। तब से इसे मैगनोलिया पॉइंट के नाम से जाना जाने लगा। यहाँ से सूर्यास्त एक नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करता है। पर्यटकों के बैठने के लिए भी व्यवस्था दुरुस्त है। अंतिम कदम हमारे नेतरहाट आवासीय स्कूल में पड़े जिसका परिसर काफी सुन्दर है। वैसे नेतरहाट अनेक जलप्रपातों जैसे की अपर-लोअर घाघरी प्रपात के लिए भी जाना जाता है, किन्तु गर्मी के कारण सारे सूखे पड़े थे, फलतः जाकर कोई लाभ न था। सदनी और लोध प्रपात भी तीस-चालीस किमी की दूरी पर हैं, पर उनका भी वही हाल रहा होगा। सिर्फ बीस-पच्चीस किलोमीटर के दायरे में ही समा गया पूरा नेतरहाट, वो भी दो घंटे में। नेतरहाट के लम्हों को याद करते हुए अब चलते हैं कुछ तस्वीरों की ओर -

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मैगनोलिया और चरवाहे के प्रेम को दर्शाती कलाकारी

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