दिल्ली की सबसे डरावनी जगहों के नाम गूगल पर तलाशेंगे तो जो पहला नाम सबसे ऊपर आएगा, वो होगा 'मालचा महल' का। तरह-तरह की कहानियाँ हैं इस जगह को लेकर। अधिकतर लोगों को तो इस जगह के बारे में पता तक नहीं, और जिन्हें पता है, उन्हें ये नहीं पता कि आखिर ये जगह है कहाँ। चाणक्यपुरी के सुनसान जंगली इलाके के बीचोंबीच स्थित ये महल उस जंगल में ढूँढना भी आसान काम नहीं, और जैसा कि आप तस्वीरों में देख सकते हैं, वक्त की मार ने इस जगह को और डरावना खंडहर बना दिया है। पर क्या ये जगह भूतिया है? अधिकतर का कहना है- हाँ, मगर मुझे नहीं लगता ऐसा। हाँ, ये सम्भावना जरूर है कि इस महल तक पहुँचने में आपके शरीर में सिहरन दौड़ती रही क्योंकि एक तो इलाका पूरी तरह सुनसान, ऊपर से जंगली जानवर और। कँटीली झाड़ियों और नागफ़नी के पौधों जंगलों के पीछे छिपा ये 'मालचा महल' आपको किसी डरावनी फ़िल्म के सेट से भी ज्यादा डरावना प्रतीत हो सकता है। इसलिए अगर आएँ, तो दिल से मजबूत होकर आएँ। डरेंगे अगर, तो नुकसान खुद को ही पहुँचायेंगे और कुछ खूबसूरती देखने से भी वंचित रह जाएँगे।
आज के दौर में 'मालचा महल' को न सिर्फ दिल्ली की, बल्कि देश की सबसे डरावनी जगहों में से एक माना जाता है। कुछ न्यूज चैनलों ने तो यहाँ का दौरा कर इसपर एपिसोड भी तैयार किये हैं मगर उन्हें अगर आप देखेंगे तो हिम्मत भी नहीं पड़ेगी यहाँ आने की। न्यूज चैनलों की रिपोर्ट को कुछ मिर्च-मसाले डालकर तैयार किया जाता है, और उन्हें देखने के बाद आप शायद ही हिम्मत करें यहाँ आने की। जैसा कि मैंने पहले ही कहा, ये जगह आपके शरीर में सिहरन पैदा कर सकती है मगर वह सिहरन इस जगह में नहीं, यहाँ से जुड़ी कहानी को सुनने के बाद दौड़ती है। यहाँ की कहानी, इसका इतिहास जितना रोचक है, उतना ही रहस्यमयी भी। इस जगह का सम्बंध फिरोज़ शाह तुगलक से भी है, अवध के नवाब से भी है और देर-सवेर इंदिरा गांधी से भी। सोचिये, इतने प्रसिद्ध लोगों से सम्बंधित होने के बावजूद आज भी ये जगह सबकी नजरों से अनजान है, और हाँ, सुनसान भी!
असल में 'मालचा महल' कोई महल नहीं, बल्कि एक शिकारगाह थी। तुगलक वंश के शासक फिरोज शाह तुगलक ने अपनी दिल्ली शासन से वक़्त 1325 में उसे तैयार करवाया था। चूँकि उस दौर में दिल्ली में घने जंगल हुआ करते थे, और तुगलक भी शिकार का शौकीन था, इसलिए उसने तीन शिकारगाह तैयार किए। एक था 'पीर ग़ालिब', दूसरा 'भूली भटियारी का महल' और तीसरा 'मालचा महल।' मज़ेदार बात ये है कि फिरोजशाह तुगलक से जुड़ी इन तीनों शिकारगाहों को लेकर कई डरावने किस्से-कहानियाँ हैं, मगर मैं जब स्वयं उन जगहों पर गया, तो कुछ नजर नहीं आया। एक बार शिकार के दौरान फिरोजशाह रास्ता भटक गया था और तब एक कबीले की बच्ची ने उसे रास्ता बतलाया था। कहते हैं तुगलक ने ये शिकारगाह उसके सम्मान में ही बनवाया था। 'मालचा महल' को पूर्व में 'बिस्तदारी महल' के नाम से भी जाना जाता था और अगर आज मैं इसके लोकेशन की बात करूँ तो ये चाणक्यपुरी स्थित 'बुद्ध जयंती पार्क' के पीछे और 'दिल्ली अर्थ स्टेशन' के निकट घने जंगलों में स्थित है। DRDO भी इससे ज्यादा दूर नहीं, इसलिए अगर कभी इस ओर जाने की इच्छा हई, तो इन जगहों को एक लैंडमार्क की तरह उपयोग कर सकते हैं।
ये तो हुई 'मालचा महल' से जुड़ी बुनियादी जानकारी मगर जिस कहानी को सुन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वह इसके काफी बाद की है। असल में 1975-76 के वक्त दिल्ली ने एक बड़ी ही अजीबोगरीब घटना का सामना किया था, जिसने उस वक़्त न सिर्फ राष्ट्रीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियाँ बटोरी थी। असल में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक मध्यम आयु की महिला अपने दो बच्चे (एक बेटा-एक बेटी), व 10 कुत्तों को लेकर आ गयी और फिर वहीं अपना डेरा जमा लिया। दिल्ली रेलवे स्टेशन की भागदौड़ के बीच प्लेटफॉर्म नम्बर 1 पर बैठी वह महिला बेहद इत्मीनान से थी, शांत और गम्भीर। बाद में पता चला कि वह महिला बेगम विलायत महल है जोकि अवध के भूतपूर्व नवाब वाजिद अली शाह की परपोती होने का दावा कर रही थी। ब्रिटिश साम्राज्य में अंग्रेजों ने नई नीति के तहत नवाबों से उनकी शक्ति व नवाबी छीन ली थी, जिसका शिकार वाजिद अली शाह को भी होना पड़ा था। इतने वर्षों बाद बेगम विलायत महल अपने दोनों बच्चों- राजकुमारी सकीना और राजकुमार अली रज़ा के साथ दिल्ली आई थी सरकार से अपनी पुरानी शक्ति व नवाबी माँगने और अभी उसका डेरा था नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन।
बेगम विलायत महल ने शुरू-शुरू में तो प्लेटफॉर्म पर ही धरना दिया, मगर फिर बाद में उठकर वेटिंग रूम में जम गई और फिर शुरू हुआ असली धरना। लोगों के लिए ये अचरज की बात थी, और जो उनकी कहानी सुनता, अचंभित हो जाता। कई बार तो पत्रकार भी आते और उनसे इंटरव्यू लेकर जाते। कुछ लोगों ने कोशिश की उन्हें हटाने की, मगर वह डटी रही। उन्होंने अपना धरना जारी रखा, और जानते हैं ये धरना कितना लम्बा चला? अनुमान लगाइये! एक हफ्ते, दो हफ्ते? एक महीना? 6 महीने? नहीं। 9 साल। जी हाँ, 9 साल तक बेगम विलायत महल ने अपने बच्चों- राजकुमारी सकीना और राजकुमार रज़ा के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में धरना दिया और तब जाकर 1984 की शुरुआत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हस्तक्षेप कर उनकी बात सुनने का फैसला किया। ये स्पष्ट था कि उन्हें वापस अवध की गद्दी तो नहीं मिलेगी, मगर रहने व गुजर-बसर करने के लिए वे दिल्ली की किसी पुरानी धरोहर को अपना ठिकाना बना सकती हैं। तब बेगम विलायत महल ने 'मालचा महल' में अपना डेरा जमाने का फैसला किया, जिसकी एक वजह अपनी समझ के हिसाब से मुझे ये लगी कि ये जगह शहर के बीच में है और यहाँ से सचिवालय भी निकट में है। बेगम विलायत खान ने ये जगह पसन्द की, और फिर अपने दोनों बच्चों, कुछ नौकर व 25 कुत्तों के साथ मई 1985 में मालचा महल आ गयीं।
अब इस कहानी का जो दूसरा हिस्सा शुरू होता है, असल में वही इस जगह से जुड़ी डरावनी कहानियों के पीछे की मुख्य वजह है। सदियों से वीरान पड़े मालचा महल में 1985 से लेकर 2017 तक बेगम विलायत महल के परिवार के सदस्य रहे, और अचरज की बात ये है कि उस जगह पर न तो बिजली की कोई व्यवस्था है, और न पानी की। तो अगले 30 से भी अधिक वर्षों तक कोई वहाँ कैसे रहा, ये खुद में एक रहस्य है। आज के दौर में हम कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसे रहने की, और वहाँ तथाकथित अवध के नवाब के वंशज 30 सालों तक साँपों, छिपकलियों व चमगादड़ों के बीच रहे। पहले नौकरों को जंगल से बाहर भेजा जाता था रेस्टोरेंट से खाना लाने के लिए, मगर बाद में खाना भी महल में ही बनना शुरू हो गया। उस परिवार ने खुद को बाहरी दुनिया से बिल्कुल ही काट लिया, और कोई उनके इस इलाके में न आये, इसकी सुनिश्चितता के लिए उन्होंने 25 कुत्तों को खुला छोड़ दिया। समय बीता, तो इस जगह से जुड़ा रहस्य और गहराने लगा। धीरे-धीरे सभी नौकर काम छोड़कर चले गए। कुत्तों की संख्या भी घटकर अब 10 पर आ गई। समय ने रहस्य का एक और पर्दा उसपर ढक दिया।
बेगम विलायत महल के परिवार ने भले ही बाकी दुनिया में कोई रुचि न रखी हो, मगर दुनिया की रुचि उनमें कम नहीं हुई। सबको लगता था कि इस परिवार के पास कोई गुप्त खजाना है जिसे उन्होंने इस महल में सुरक्षित रखा है। चोरों-डाकुओं की नजर भी इस ओर थी, मगर कुत्तों के डर से किसी की हिम्मत नहीं पड़ी इस ओर आने की। हाँ, कुत्तों को बहला-फुसलाकर धीरे-धीरे जहर देकर मारा जाने लगा और यही वजह थी उनकी संख्या उस वक़्त 25 से घटकर 10 पर आ गयी थी। ये सब हो ही रहा था कि सन् 1993 के सितंबर माह में एक रोज बेगम विलायत महल ने भी अपनी हीरे की अंगूठी को निगलकर आत्महत्या कर लिया। उनकी मौत के बाद उनके शरीर को पीछे की ओर दफना दिया दोनों बच्चों ने और डाकुओं का शक और गहरा गया। मौका देखकर बाकी कुत्तों को भी जहर देकर मार दिया गया, और फिर एक रात सेंध लगी। सेंध लगी बेगम विलायत महल की कब्र पर भी, क्योंकि डाकुओं को अनुमान था कि शायद खजाना वहाँ छिपा है। पहले तो उन्होंने महल की जमीन को खोदा, जिसे अगर आप यदि आज देखेंगे तो पायेंगे कि फर्श पर नए तरह का पत्थर लगा है। महल में तलाशी लेने के बाद बेगम विलायत महल की कब्र भी खोद दी गई। कहते हैं, खजाना तो नहीं मिला, मगर कुछ चाँदी के बर्तन, घड़ी और कुछ अन्य कीमती सामान लेकर डाकू जरूर भाग गए।
विलायत महल की कब्र खोद दी गयी थी, लाश बाहर थी। इस घटना ने राजकुमार रज़ा व राजकुमारी सकीना को बेहद आहत कर दिया था और कहते हैं कि वे दोनों अगले 10 दिन तक महल के बड़े हॉल की मेज पर बेगम विलायत महल का शरीर रखकर लगातार रोते रहे थे। बाद में उनके शरीर को दफ़नाने की जगह जला दिया गया। बेगम विलायत की मौत के बाद भी खाने के मेज पर उनके लिए खाना लगाया जाता था। इस घटना के कुछ साल बाद राजकुमारी सकीना की भी संदिग्ध अवस्था में मौत हो गयी। राजकुमार ने कई महीनों तक इस बारे में किसी को नहीं बताया था, पर बाद में अपने एक साथी को लिखे पत्र में उन्होंने स्वीकारा कि उनकी बहन मर चुकी है और उनके शरीर को उन्होंने स्वयं दफना दिया है। माँ और बहन की मृत्यु के बाद राजकुमार रज़ा अगले कई सालों तक अकेले ही उस जगह पर रहे, बिना किसी सहायता के, बिना किसी सुविधा के। बस दो आवारा कुत्ते थे, और एक बंदूक जिसके लिए उन्होंने सरकार से विशेष अनुमति माँगी थी कि बेगम विलायत महल के साथ हुई घटना के बाद यदि भविष्य में कभी किसी ने उनके क्षेत्र में कदम रखने का प्रयास किया, तो उसे मार दिया जाएगा। विश्वास रखिये, उन्हें ये अनुमति मिल भी गयी थी।
इसके बाद राजकुमार अली रज़ा उस सुनसान महल में अकेले ही रहे। एक-आध बार अपनी साइकिल से कभी बाहर आते तो आते, वरना अंदर ही रहते। कभी-कभी उनसे मिलने दिल्ली अर्थ स्टेशन से कोई मिलने आ जाता, या हर शाम में गश्ती करने आई पुलिस। इसके अलावा उनका सार्वजनिक जीवन से और कुछ नाता नहीं था। किसी की हिम्मत नहीं पड़ी इन तीस सालों में कभी उस महल के आसपास भी फटकने की और बाहर लगी 'कुत्तों से सावधान और अतिक्रमण करने वाले को गोली मार दी जाएगी' के बोर्ड और भयावह प्रतीत होते। बिना बिजली-पानी के वे इतने वर्षों तक वहाँ कैसे रहे, ये बात अचंभित करने वाली थी। हाँ, कभी-कभी इंग्लैंड से किसी अनजान व्यक्ति का मनी-ऑर्डर आ जाता था, सिवाय इसके उनकी आमदनी का कोई और जरिया किसी को नजर नहीं आया। उनका जीवन इसी प्रकार चल रहा था कि तीन वर्ष पहले 2017 के सितंबर में राजकुमार अली रजा की भी मौत हो गयी। उनकी मौत डेंगू से हुई थी, और उनके न बच पाने के पीछे की एक प्रमुख वजह उनका नवाबीपन भी था। वे सालों से डिप्रेशन में थे, और जब उन्हें डेंगू हुआ तब उन्होंने अस्पताल में इलाज कराने से इंकार कर दिया क्योंकि एक नवाब के तौर पर ये उनकी शान के खिलाफ था। ये तो शुक्र है हर शाम गश्ती पर आने वाली पुलिस का, वरना अकेलेपन में रह रहे राजकुमार रियाज की मौत के बारे में भी लंबे वक्त तक किसी को पता नहीं चलता। उनकी मृत्यु के बाद 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' में एक रिपोर्ट छपी थी, ये बतलाते हुए कि इस परिवार का अवध के नवाब से कोई सम्बन्ध नहीं था, बल्कि ये लख़नऊ के एक रजिस्ट्रार के परिवार से थे। मगर असलियत क्या थी, ये उन तीनों के शरीर के साथ ही कब्र में दफन हो गयी।
1985 से लेकर 2017 में राजकुमार रियाज की मृत्यु तक इन 30 से भी अधिक सालों में पहली बार ऐसा हुआ कि लोग बिना किसी बंदिश के उस इलाके में गए। शुरुआत में वहाँ अलमारी थी, कई बर्तन थे, घड़ी थी, राजकुमारी सकीना द्वारा बेगम विलायत महल पर लिखी गयी किताब थी, कई पत्र-दस्तावेज थे, मगर लोगों की आवाजाही के कारण सब धीरे-धीरे या तो गायब हो गया, या फिर खत्म। मैं 2017 के दिसम्बर में पहली बार इस ओर आया था, मगर शाम हो जाने की वजह से अंदर जा नहीं पाया था। बाद में सोचा कि दिल्ली में अपने अंतिम दिनों में आऊँगा यहाँ, मगर उत्सुकता मुझे पहले खींच लाई यहाँ। जब यहाँ गया तो जंगल की शुरुआत ही हुई जंगली जानवरों से। रास्ते में, पेड़ों पर सैकड़ों बंदर दिख जाएँगे। घुसते ही एक जंगली सुअर भी दिख गया मुझे। लौटते वक्त तो लोमड़ी भी। सुरक्षा के लिए हाथ में एक डंडा जरूर रख लीजियेगा जंगल से, पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए। जंगल में अंदर सड़क पर चलते जाएँगे तो एक जगह हल्की चढ़ाई आएगी जिसके सामने दिल्ली पुलिस का एक बैरिकेड गिरा होगा और कुछ कँटीले तार होंगे। सावधानी स उसे पार करके अंदर जाइयेगा, और फिर जहाँ से नागफ़नी के पौधे और कँटीले बबूल के पेड़ दिखें, समझ जाइयेगा कि मालचा महल निकट है।
उस जगह पर इतना जंगल था कि एक बार को तो दिखा ही नहीं महल। अंदर जाने से पहले चारों तरफ का चक्कर लगाया। एक पेड़ पर पलंग का एक पाया तोड़कर फेंका गया था, महल के अंदर मिट्टी और राख थी काफी। एक छोटी अलमारी, एक बक्सा भी था। बाकी चीजें चुरा ली गयी थी। अंदर का एक चक्कर लगाने के बाद जब मैं महल की छत पर पहुँचा तो जो देखा, वह खूबसूरत था। ऊपर से पूरी दिल्ली दिख रही थी। दूर तक घना जंगल था, और जंगल के पीछे दिल्ली। मालचा महल की छत से आपको राष्ट्रपति भवन दिख जाएगा, लोटस टेंपल, सचिवालय, इंडिया गेट, सिविक सेंटर और भी बहुत कुछ। इस खूबसूरत नजारे के लिए भी यहाँ आया जा सकता है। इस दृश्य को देखने के बाद आप यहाँ से जुड़ी डरावनी कहानी को भी भूल जाएँगे। एक अच्छा वक्त गुजारने के बाद मैं लौट पड़ा वहाँ से। एहसास हुआ कि ये जगह डरावनी नहीं, इसकी कहानी रोंगटे खड़ी करती है। फिरोजशाह तुगलक, अवध के नवाब, इंदिरा गांधी की कहानी खुद में समेटे ये खंडहर कई रहस्य समेटे है खुद में। कभी हो आइयेगा इधर, देखें आपको कैसा लगता है...
कैसे जायें?- निकटतम मेट्रो स्टेशन उद्योग भवन है।
प्रवेश शुल्क:- निःशुल्क।
समय:- सूर्योदय से सूर्यास्त।