ग्रैजुएशन के बाद मेरी नौकरी पुणे के एक होटल में रेवेन्यू डिपार्टमेंट में लगी थी। मगर रोज़ जूते चमका कर नौकरी करने जाना मुझे रास न आया।
तो मैनें नौकरी छोड़ दी और ट्रैवल करना शुरू किया। राजस्थान के कुछ इलाकों से शुरू करके उड़ीसा में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम बंगाल में कोलकाता और मध्यप्रदेश में पचमढ़ी जैसी कई मैदानी जगहें घूमीं।
आप भी मेरी तरह ट्रैवेलर हो तो समझ सकते हो कि अगर घूमने के दौरान किसी चीज़ का नुकसान होता है तो वो है सेहत। जहाँ भी जाता, वहाँ के स्ट्रीट फ़ूड पर ऐसा टूट के पड़ता जैसे कल किसने देखा।
और मीठे का तो मुझे इतना शौक है, कि खाने के बाद जब तक पाव भर मीठा ना हो, कुछ कमी महसूस होती है। डेढ़ महीने घूम-फिर कर जब मैं घर वापिस लौटा तो वज़न 10 किलो बढ़ गया था।
बस, ट्रेन, ऑटो, टैक्सी में बैठे-बैठे यहाँ वहाँ जाने, फास्ट फ़ूड खाने और मीठे की आदत से सेहत खराब हो गयी थी।
30 इंच की कमर फ़ैल कर 34 की हो गयी थी। खाना खाने से पहले पेंट की बटन खोलनी पड़ती थी। पुरानी टी-शर्ट्स क्रॉप टॉप बन गयी थी। छोटी बहन हलवाई-हलवाई बोल कर चिढ़ाने लगी थी।
फिर एक दिन यूँ ही नहाने के बाद शीशे में नज़र पड़ गयी। ये क्या हो गया मुझे .....
वज़न एकदम से नहीं बढ़ता, धीरे-धीरे बढ़ता है। छोले-भठूरे का हरेक निवाला सीधा कमर पर जमा नहीं होता। प्लेट-दर-प्लेट नसों में कोलेस्ट्रॉल जमता जाता है। फिर पेट निकलता है, और फिर मूड खराब रहने लगता है।
गरम गुलाब जामुन मुँह में डालते ही जो असीम आनंद की प्राप्ति होती है, वो डेढ़ महीने बाद बाहर निकला पेट देख कर नहीं होती।
मफिन की तरह पेट बाहर निकला देख मन में सवाल आया :
अब क्या करें ?
इस बढ़ी हुई चर्बी को कैसे हटाएँ। अब तो वैसे भी ट्रैकिंग करने के लिए हिमाचल और उत्तराखंड जाने की बारी है।
10 किलो तो वैसे ही शरीर पर फ़ालतू चिपका है, उस पर कम-से-कम 15-20 किलो का तो रकसैक भी कंधे पर ढोना पड़ेगा।
इतना वज़न लेके कैसे चढूँगा खीरगंगा का 14 कि.मी. लम्बा ट्रेक। कहीं रास्ते में दिल का दौरा पड़ गया तो प्राण पखेरू उड़ जायेंगे।
अभी तो काफी घूमना बाकी है। ऐसे ही कमर बढ़ती गयी तो घूमने क्या चलने लायक भी नहीं रहूंगा। कुछ तो करना पड़ेगा। ऐसा जो घूमने के दौरान कर सकूँ, ऐसी डाइटिंग जो मुझे किसी तरह से ना बांधे,ऐसी कसरत जो मुझे ज़्यादा न थकाए, कुछ ऐसा जिससे मुझे जिम न जाना पड़े।
इंटरनेट खंगालते हुए मेरे हाथ डाइटिंग के बारे में एक आर्टिकल लग गया :
डाइटिंग : इंटरमिटेंट फास्टिंग .....
इंटरमिटेंट फास्टिंग डाइटिंग का एक तरीका है, जिसमें आपको क्या खाना है कि चिंता छोड़ कर कब खाना है कि चिंता करनी होती है।
आसान शब्दों में कहूँ तो दिन के 24 घंटों में से 16 घंटे भूखे रहना होता है और फिर बचे 8 घंटे में आप जो चाहो वो खा सकते हो।
मैं अपना उदाहरण दे कर समझाता हूँ....
माना मैं रात को 10 से सुबह 6 बजे तक 8 घंटे सोता हूँ,
सुबह 2 घंटे नहाने, फ्रेश होने, समाचार पढ़ने में निकल जाते हैं।
ये हुए 10 घंटे।
इसके बाद मुझे सिर्फ 6 घंटे और भूखा रहना है।
16 घंटे के इस उपवास के दौरान आप सिर्फ पानी या ब्लैक कॉफी पी सकते हैं।
दोपहर 2 बजे तक उपवास के 16 घंटे पूरे होने के बाद बचे 8 घंटे में मैं जितना हो सके और जो हो सके वो खा सकता हूँ, कोई रोक टोक नहीं है।
मगर अच्छा होगा कि आप सेहतमंद खाना चुने, जैसे .....
अंडे, मांस, दूध, दही, पनीर, दाल, रोटी -परांठे, पूरियाँ, सलाद
यूँ तो मैं सब कुछ खा लेता हूँ, मगर अच्छा शाकाहारी खाना अगर मिल जाए तो मुझे अंडे-माँस में कोई दिलचस्पी नहीं है।
तो 16 घंटे के उपवास के बाद मैं जब भी खाता, सबसे पहले खूब सारे सलाद से शुरुआत करता। फिर दाल, रोटी, सब्जी, जो बढ़िया मिल जाए। खाने के बाद मीठा तो है ही। इंटरमिटेंट फास्टिंग के बारे में पढ़के मुझे पता चला कि यही एक ऐसी डाइट है, जिसमें मीठा खाने को पाप नहीं माना जाता। तो मैनें तो खूब दबा कर इंदौर की जलेबी, उड़ीसा का छेना पोड़ा, पुष्कर के मालपुए, और कलकत्ता के शोन्देश और मिष्टी दोई लपेटे।
अब आयी कसरत की बारी .....
कसरतें मुझे ऐसी चुननी थी, जिनमें ज़्यादा औजारों की ज़रुरत न पड़े।
सोचने बैठा तो बचपन की याद आ गयी । जब छोटा था, तो पापा के साथ गाँव के अखाड़े में जाता था, जहाँ पापा दंड बैठक पेलते और मैं पेड़ पर बंधी रस्सी पर चढ़ने की कोशिश करता था। अखाड़े में दंड बैठक लगाने वाले लोगों का शरीर ऐसा फौलाद जैसा लगता था।
तो मैनें फिर से गूगल खोल लिया। पता चला कि जिन कसरतों को अखाड़ों में दंड-बैठक कहा जाता है, उसे अंग्रेजी में हिन्दू पुश-अप और हिन्दू स्क्वाट कहते हैं।इन दोनों ही कसरतों के बारे में मैट फ्यूरी की किताब कॉम्बैट कंडीशनिंग में काफी कुछ बताया हुआ है। इन्हें सीखने के लिए आप किताब की पीडीएफ डाउनलोड कर सकते हैं, या यूट्यूब पर ट्यूटोरियल भी देख सकते हैं।
10 हिन्दू पुशअप से रूटीन शुरू किया था,जिसका चार हफ़्तों बाद एक बार में
150 लगाने लगा।
हिन्दू स्क्वाट 30 से शुरू किया, और पांचवें हफ्ते में 220 तो बड़ी आराम से लगाने लगा।
सुबह-सुबह ये कसरत सिर्फ 20 मिनट में निबट जाती है।
बाकी खाली-पीली पैदल चलना मुझे पसंद नहीं है। जितना हो सके घूमते हुए ऑटो या रिक्शा लेना पसंद करता हूँ। चाहे 1 किलोमीटर दूर ही क्यों न जाना हो। बाहरी सुंदरता के लिए मानसिक सुख खोने वालों में से नहीं हूँ।
कसरत और डाइटिंग के दौरान दो महीना मैं महाराष्ट्र में मुंबई, लोनावला ; गुजरात में वडोदरा और पंजाब में चंडीगढ़, अमृतसर घूमता रहा।
दो महीने घूमने के बाद जब घर आया तो वज़न करने से पहले एक बार फिर नहा कर शीशे के सामने खड़ा हुआ तो शीशे ने झूठ नहीं बोला। शेखी नहीं बघार रहा मगर रिसर्च के साथ मेहनत दिख रही थी।
अब मैं ट्रेकिंग करने हिमाचल और उत्तराखंड जाने के लिए खुद को कुछ काबिल समझने लगा।
मगर ऐसा नहीं है कि वज़न कम करने के बाद आप माउंट एवरेस्ट पर एक ही छलांग में पहुँच जाओगे। अगर पहाड़ चढ़ने का अनुभव न हो तो पहाड़ कमर और पैर दोनों तोड़ देता है।
ट्रेकिंग की कहानियाँ जल्द ही आपके लिए लेकर आऊंगा, पहले आप ये बताओ कि घूमतेे-फिरते वज़न कम करने का ये तरीका आपको कैसा लगा ?
क्या आपने इंटरमिटेंट फास्टिंग के बारे में पहले कभी सुना है ? या अखाड़ों की कोई ऐसी याद जो हमसे शेयर करना चाहते हो ?
कमेंट्स सेक्शन आपके लिए ही है। लिख-लिख के भर दो उसको।
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