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इससे पहले के झारखण्ड सम्बंधित लेखों में पारसनाथ, दलमा, रांची आदि के आस-पास के पहाड़ियों व घाटियों की चर्चा मैं कर चुका हूँ। एक नेतरहाट भी है, जो अपेक्षाकृत थोडा प्रसिद्द हिल स्टेशन है, किन्तु आजतक वहां जाना नहीं हो पाया। दक्षिण-पश्चिमी झारखण्ड या पश्चिमी सिंहभूम जिले में उड़ीसा की सीमा को स्पर्श करता किरीबुरू एक अतिरमणीय स्थल है, अन्दर जिसके गर्भ में लौह भंडार है, तो दूसरी ओर बाहर से अविश्वनीय प्राकृतिक छटा। झारखण्ड के ये क्षेत्र सारंडा जंगलों से घिरे हैं और लौह अयस्क के भंडार से भरे पड़े है, कुछ हिस्से उड़ीसा के भी है। किरीबुरू की खदानें स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया या SAIL के अधीन है, जबकि ऐसे ही कुछ और खदानें नजदीक के नोआमुंडी एवं जोड़ा (उड़ीसा) में भी हैं, जिसे टाटा को दिया गया है। किरीबुरू जमशेदपुर से 160 किमी, चाईबासा से 90 किमी, नोआमुंडी से 30 किमी और बड्बिल से 8 किमी की दूरी पर है, जो सारंडा जंगलों के मध्य बसा है। लोहे की खान के साथ साथ 4200 फीट की ऊंचाई पर यह एक हिल स्टेशन भी है, जो गर्मियों में ठंडा रहता है। किरीबुरू जाने के लिए पिछले दो वर्षों से सोच रहा था, लेकिन हर बार योजना असफल हो गयी। किरीबुरू में वर्तमान में कोई यात्री रेल सेवा नहीं है, लेकिन SAIL कंपनी का एक लोको यार्ड है जिसका इस्तेमाल सिर्फ लौह-अयस्क ढोने के लिए होता है। हाल ही में किरीबुरू से विमलगढ़ के बीच निष्क्रिय पड़ी सिंगल रेलवे लाइन के दोहरीकरण का कार्य चल रहा है। इस लाइन के चालू होते ही किरीबुरू में भी यात्री रेल सेवा शुरू हो जायगी। जमशेदपुर से किरीबुरू तक रोजाना बसें चलती है, जो चाईबासा-नोआमुंडी होते हुए चार-पांच घंटों में सफ़र खत्म करती है। किरीबुरू में ठहरने के लिए भी कोई होटल नहीं है, सिर्फ SAIL कंपनी का एक गेस्ट हाउस है, जहाँ वहीँ के कर्मचारियों को वरीयता दी जाती है, बाहरी लोगों को कमरा खाली रहने पर ही दी जा सकती है। रात बिताने की समस्या तो है। वैसे बड्बिल इससे बड़ा शहर है, जो मात्र आठ किलोमीटर पर है, वहां आसानी से होटल मिल जायेंगे। मार्च के आखिरी हफ्ते में किरीबुरू जाने की योजना बनी थी। मैं और मेरे एक करीबी रवि को बाइक से ही जाना था, गर्मी हलकी-फुल्की शुरू हो चुकी थी, अगर दस-पंद्रह दिन और देर करते तो जमशेदपुर की भयंकर झुलसाने वाली गर्मी से हालत ख़राब होना तय था, फिर शायद ही हम बाइक से निकल पाते। किरीबुरू तक जाने में चार घंटे समय लगने का अनुमान था। वहां का सुन्दर सूर्यास्त देखने के लिए पांच बजे शाम तक पहुँच जाना जरुरी था। इसीलिए हमने दोपहर बारह बजे ही प्रस्थान कर लिया। बाइक थी एवेंजर। हमारे एक अन्य सहकर्मी हैं- श्री तिरेन्द्र सामद। वे बहुत दिनों से अपने आदिवासी "हो" संप्रदाय में धूम-धाम से मनाये जाने वाले "माघे" पर्व के लिए आमंत्रित कर रहे थे। झारखण्ड में यह त्यौहार "हो" ही मनाते है, जिनमे आज भी उनके आपसी मेल-मिलाप एवं संयुक्त परिवार की झलक स्पष्ट दिखाई पड़ती है। ख़ास बात यह है की सारे लोग एक ही दिन यह त्यौहार नहीं मनाते, बल्कि हर गाँव-पंचायत के लोग अलग अलग तारीखों में मनाते है, ताकि सभी को एक-दुसरे के पास जाने का मौका मिल सके। बस चाईबासा से पांच किमी पहले एक गाव है- घाघरी जहाँ रोड किनारे खड़े वे हमारा इंतज़ार कर रहे थे। जमशेदपुर से एक घंटे तक लगातार बाइक चलाकर हम उनके घर दाखिल हो चुके थे। उन्होंने हमारा काफी अच्छे से स्वागत किया। मैंने देखा की घर पर जितने सम्बन्धी आ सकते है, लगभग सब आ गए होंगे। अच्छी चहल-पहल थी। झारखण्ड में परंपरागत स्पेशल खाने की जब बात होती है, तो ध्यान सीधे मांसाहार की ओर ही जाता है। यहाँ भी वही हुआ। देसी मटन (जिसमें चमड़ा भी मिला होता है), के ही तीन अलग-अलग प्रकार के व्यंजन हमें परोसे गए। मटन के साथ चावल मिला कर बनाया जाने वाला लेटे या जिसे देसी बिरयानी भी कह सकते है, काफी प्रसिद्द है, हमें भी परोसा गया। एक के बाद एक नए आइटम देखकर मैंने कहा की इतना कैसे खा पाउँगा? उन्होंने कहा की भाई ये खाने-पीने का ही त्यौहार है। अब बात पीने की भी आ गयी। गौरतलब है की इधर "हड़िया" बड़ा प्रसिद्द पेय है, जिसे चावल से बनाया जाता है। इसमें भी नशा होता है। मैं तो कभी ये सब पीता नहीं, फिर भी हम दोनों ने स्वाद चखने के लिए ले लिया। स्वाद कडवी लगी, सिर्फ एक घूंट ही पी पाया, और ग्लास रख दिया। उधर शाम तक किरीबुरू भी पहुंचना था, फटाफट विदा लेकर चल दिए। उनका आमंत्रण शानदार रहा। अब यहाँ से किरीबुरू की दूरी नब्बे किमी बची थी, रास्ता बहुत बढ़िया है, इसीलिए कोई परेशानी नहीं हुई। फर्राटे के साथ हम अगले डेढ़ घंटे में नोआमुंडी आ गए। लौह-अयस्क का इलाका शुरू हो गया, हर जगह की मिट्टी लाल नजर आने लगी। बस और तीस किमी ही तय करना बचा था, शाम के चार बज रहे थे। सूर्यास्त से पहले तक किरीबुरू पहुच जाना तय ही था। कुछ ही दूर आगे बड़ाजामदा नामक एक जगह है, जो की किरीबुरू का सबसे नजदीकी स्टेशन है। यहाँ कुछ दूर तक लाल रंग की धूल ने परेशान किया। फिर किरीबुरू की पहाड़ियां शुरू होने से पहले ही रास्ते में लिखा हुआ मिला- "एशिया के सुप्रसिद्ध सारंडा के जंगलों में आपका स्वागत है।" दोनों ओर से ऊँचे-ऊँचे हरे-हरे पेड़ और रास्ते में कुछ बंदरों का दिख जाना रोमाचक लग रहा था। रास्ता भी बहुत सुन्दर बना है, इसीलिए बाइक चलने में कोई दिक्कत नहीं हुई।
किरीबुरू माइंस का प्रवेश द्वार आ गया जहाँ बड़े बड़े अक्षरों में ढेर सारे सन्देश लिखे हुए थे। यहाँ के लोग भी काफी विनम्र स्वभाव के होते हैं, तभी तो रास्ता पूछने पर लोगों ने विस्तार से बताया। दो महिलाओं ने तो यहाँ तक कह दिया की अगर होटल न मिले तो हम आपकी सहायता करेंगे, अपना मोबाइल नंबर भी दे दिया। यह सुनकर हमें काफी सुखद एहसास हुआ की इतने सुदूर इलाके वालों का दिल कितना साफ है, जबकि हम शहर वाले तो शायद ही किसी अजनबी को अपने घर रुकने को कहें। बस यहाँ से दो-चार किमी बाइक चलाकर पौने पांच बजे ही किरीबुरू के सनसेट पॉइंट पहुँच गए। पहले हम सोच रहे थे की भला किरीबुरू कोई जाता भी होगा? लेकिन सनसेट पॉइंट पर अच्छी भीड़ थी। लोग भी अच्छे कपड़ों में दिख रहे थे, शायद बोकारो से ही आये होंगे क्योंकि कंपनी वहीँ स्थित है और वहां के कर्मचारी इधर छुट्टी मनाने आते हैं। सूर्यास्त शानदार था। विश्वास ही नहीं हुआ की ये झारखण्ड है! घने जंगलों से घिरा हुआ किरीबुरू का यह रूप अद्भुत था! सूरज झारखण्ड के इन घने जंगलों में डूब रहा था, हरियाली को छूते हुए सफ़ेद बादलों का उड़ना-घुमड़ना बड़ा सुन्दर था। फिर अँधेरा घिर आया, हम तो भूल ही गए की होटल भी ढूंढना है! SAIL कंपनी के यहाँ दो गेस्ट हाउस हैं, लेकिन दोनों में लाख कोशिश करने पर भी जगह न मिली, कह दिया की कमरा खाली नहीं है। अब क्या करे? अब एक ही चारा बचा था- बड्बिल जाने का, जो यहाँ से आठ किमी पर था, पर वहां रुक कर क्या फायदा? क्योंकि किरीबुरू के सुहावने मौसम में वक़्त न गुजार कर कही और चल जाने का मतलब था, यात्रा का बेकार हो जाना। अब उन्ही दोनों महिलाओं से मदद की उम्मीद बची थी, जिनसे हमने रास्ता पूछा था। फोन लगाया और उनका पता पूछकर उनके घर चले गए। यह एक सरदार परिवार था। हमने कहा की गेस्ट हाउस में ही रुकने का इंतजाम करा दें तो बढ़िया रहेगा, लेकिन उन्होंने जिद कर दिया, कहा की "हमें मेहमानों की सेवा करने में मजा आता है, वैसे भी इधर बाहर के बहुत कम लोगों से ही संपर्क हो पता है, ऐसे में आपलोगों का आना हमारे लिए काफी खुशी की बात है।" बस अब हमारी भी मजबूरी थी, उनका आमंत्रण तो सहस्र स्वीकार करना ही था। शायद इसे ही तो होमस्टे (Homestay) कहते हैं न! सरदारजी के परिवार ने हमारा पूरा आदर-सत्कार किया। हर सुख-सुविधा का ध्यान रखा। अपने ही राज्य के में ऐसा अनुभव पाना हमारे लिए काफी सौभाग्य की बात थी। शाम को उनके बेटे ने ही पुरे किरीबुरू का भ्रमण करवाया। मौसम काफी सुहावना और ठंडक के एहसास दे रहा था, जबकि उसी वक़्त जमशेदपुर में गर्मी थी। कम आबादी वाला लगभग दस हज़ार लोगों द्वारा बसा यह छोटा सा इलाका काफी सुन्दर है। रात्रि में भी नजारा अच्छा था, दुकानें जगमगा रही थी, कहीं भी रोशनी की कमी न थी। छोटा सा शहर होने के बावजूद यहाँ खेल के मैदान, स्टेडियम, निजी स्कूल, हॉस्पिटल आदि सारी सुविधाएँ हैं, लेकिन स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (SAIL) के ही बदौलत! सुबह सुबह हमने विदा लेने की सोची, लेकिन उनलोगों ने फिर जिद किया, कहा की कुछ जगह जो बचे हैं, वो भी घूमकर ही जाएँ। खुद सरदारजी ही हमारे साथ निकल पड़े। हमें किरीबुरू माइंस के अन्दर भी ले गए, जहाँ बिना उनकी मदद के प्रवेश भी नहीं मिल पाता। लाल रंग की लौह भूमि को देखना अद्भुत था। हरे हरे जंगलों के गर्भ का यह रूप आश्चर्यजनक है। यहाँ लोहे के खान काफी खोदे जा चुके हैं, फिर भी आने वाले अनेक सदियों तक की जरुरत पूरा करने की क्षमता है। जंगलों में बन्दर काफी तादाद में हैं। खान के अन्दर सड़कें लौह चूर्ण के कारण धूल भरी हैं। अचानक एक छह फूट का सांप रास्ते में दिख जाने से हमारे रोंगटे खड़े हो गए! सरदारजी ने बताया की कभी कभी खदान के मशीनों में भी सांप घुस कर छिप जाते है, जो मजदूरों के लिए काफी भयंकर स्तिथि होती है। माइंस देख लेने के हिल टॉप की ओर हमने रुख किया, जहाँ से बड्बिल और जोड़ा- ये दोनों शहर दिख जाते हैं। लेकिन रात का नजारा ज्यादा मनोरम होता है। अंत में एक छोटे से झरने के दर्शन के साथ ही दिन के ग्यारह बज आये। किरीबुरू एक ऐसा जगह है जिसका आधा से ज्यादा हिस्सा झारखण्ड और बाकि उड़ीसा में है। इसीलिए यात्रा के दौरान छोटी-छोटी दूरियों में ही रोमिंग लग जाता है। रास्ते किनारे किनारे तार के बड़े बनाये गए है, जिसके एक ओर झारखण्ड तो दूसरी ओर उड़ीसा है। यहाँ बीएसएनएल, एयरटेल और एयरसेल का नेटवर्क बढ़िया है, थ्री जी भी उपलब्ध है। सरदारजी और उनके परिवार की मेहरबानी की बदौलत ही किरीबुरू की यात्रा सफल रही। सभी लोगों से विदा लेकर उन्हें दिल से धन्यवाद दिया। रवि और मैंने वापस जमशेदपुर की ओर प्रस्थान किया। रास्ते भर सिर्फ उन्ही की बातें होती रही, मन ही मन हजारों बार शुक्रिया अदा करते-करते शाम के साढ़े छः बजे हम फिर से जमशेदपुर की वही गर्मी झेलने को हाजिर हो गए।
अब इन तस्वीरों की यात्रा पर चलें - सारे चित्र लेख में बताये गए घटनाओं के क्रमानुसार ही हैं---
सामद जी एंड कंपनी संग माघे पर्व का आनंद
किरीबुरू का सूर्यास्त स्थल (SUNSET POINT, KIRIBURU)
यही है सरदार दम्पति जिन्होंने हमारी मदद की
आईये देखें जरा लोहे के इन खानों को--
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