उत्तर भारत जहां काशी एक ऐसा शहर है जो वरुणा और अस्सी नामक दो छोटी नदियों के गंगा नदी में संगम होने के स्थान पर स्थापित है। काशी भारत का सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित शहर है तथा हिंदू धर्म के सिद्धांत का केंद्र माना जाता है। बल्कि ऐसा कहा जाता है कि जहां काशी हिंदूधर्म के केंद्र में है, तो वहीं काशीविश्वनाथ मंदिर इस देवभूमि भारत की धड़कन है। यह दिव्य परिसर भारत के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है जो आज देश में मौजूद हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर
वैसे तो काशी को वाराणसी/बनारस के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में स्थापित है। यह उत्तरप्रदेश में स्थित एकमात्र ज्योतिर्लिंग है और भगवान शिव के सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।। काशी को शिव और पार्वती का आदिस्थान माना गया है। इन्हें विश्वनाथ या विश्वेश्वर नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ है ब्रह्मांड के राजा। शिव को काशी नरेश भी कहा जाता है। आज के वाराणसी शहर को प्राचीन काल से काशी कहा जाता रहा है। इसलिए विश्वनाथ मंदिर को काशी विश्वनाथ मंदिर भी कहा जाता है।
इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदिशंकराचार्य, सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास, साईं बाबा और गुरुनानक देव सहित कई प्रमुख संत आए। मंदिर की यात्रा और गंगा नदी में स्नान उन कई तरीकों में से एक तरीका है जो मोक्ष (मुक्ति) के मार्ग पर ले जाता है। इस भावना के साथ दुनिया भर के हिंदू अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार काशी विश्वनाथ जाने की कोशिश अवश्य करते हैं। एक बहुत प्राचीन और मूल्यवान परंपरा है यहां की, जिसमें कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को विश्वनाथ मंदिर की तीर्थयात्रा के बाद कम से कम एक इच्छा का त्याग कर देना चाहिए और एक पग मोक्ष की ओर ले जाना चाहिए।
काशी विश्वनाथ मंदिर शैव और शक्ति दोनो हिन्दू संप्रदायों में अतिविशिष्ट महत्व रखता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि केवल तीन ही मंदिर ऐसे हैं जो ज्योतिर्लिंग होने के साथ साथ शक्तिपीठ भी हैं। श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग होने के साथ साथ यह शक्तिपीठ भी है। काशी विश्वनाथ मंदिर के पास गंगा के किनारे मणिकर्णिका घाट को शक्तिपीठ माना जाता है, जो शक्ति संप्रदाय के लिए पूजनीय स्थान है।
पौराणिक मान्यता
महादेव शिव Mahadev Shiv गंगा के किनारे इस नगरी में निवास करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि उनके त्रिशूल की नोक पर काशी बसी है। भगवान शिव काशी के पालक "काशी नरेश" (Kashi Naresh) और संरक्षक है, वही लोगों की रक्षा करते हैं। वहीं कालभैरव को काशी का कोतवाल (रक्षक) कहा जाता है।
माना जाता है कि प्रलयकाल में भी काशी का लोप नहीं होता। प्रलय के समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। केवल इतना ही नहीं, आदि सृष्टिस्थली भी यहीं काशी की भूमि को बताया जाता है। काशी में ही भगवान विष्णु ने सृष्टि के सृजन की इच्छा से तपस्या करके शिव/आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनकी निद्रा के दौरान उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर/विश्वनाथ की बड़ी आराधना की। आपकी पूजा से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये। माना जाता है, कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तो सूर्य की पहली किरण काशी पर ही पड़ी थी। काशी के बारे में कहा जाता है कि इसकी महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति/मोक्ष मिल जाता है। माना जाता है कि भगवान विश्वनाथ/शिव मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र कहते हैं, जिससे वह भविष्य में एक योनि से दूसरी योनि में जन्मने के आवागमन से मुक्त हो जाता है, चाहे वह मृत शरीर किसी का भी क्यों ना हो।
मत्स्यपुराण में माना गया है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित तथा दुखों से परिपीड़ित जनों के लिये काशी ही एकमात्र गति/मार्ग है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:- दशाश्वेमघ, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव, केशव और मणिकर्णिका और इनसे युक्त काशी को अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है
इतिहास : निर्माण और ध्वंस
मंदिर का उल्लेख स्कन्दपुराण के काशीखंड सहित अन्य पुराणों में भी मिलता है। Kashi Vishvanath Temple (काशी विश्वनाथ) का उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।
आज से करीब 3300-3400 वर्ष पहले यानी 11वीं सदी ई. पू. में राजा हरीशचन्द्र ने जिस काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसी का ही, बाद में सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। काशी विश्वनाथ मंदिर की इसी मूल संरचना को शायद पहली बार, 1194 ई. में मोहम्मद गोरी की सेना ने कुतुबुद्दीन ऐबक (Qutb-ud-din Aibak) की अगुवाई में, कन्नौज के राजा का हरा कर ध्वस्त कर दिया था।
इसके बाद दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान इल्तुतमिश (1211–1266 CE) के शासनकाल के दौरान एक गुजराती व्यापारी द्वारा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया था। इसे फिर दूसरी बार हुसैन शाह शर्की (जौनपुर का सुल्तान) (1447-1458) ने और सिकंदर लोधी (1489-1517) ने अपने शासनकाल में क्रमशः दूसरी और तीसरी बार ध्वस्त कर दिया।
राजा मान सिंह ने मुगल सम्राट अकबर के शासन के दौरान मंदिर का पुनर्निर्माण किया। लेकिन कुछ हिंदुओं ने इसका ये कहकर बहिष्कार कर दिया कि, राजा मान सिंह ने एक हिन्दू राजपूत शासक होकर मुगलों को अपने परिवार के अंदर शादी करने दी। राजा टोडरमल (अक़बर के नवरत्नों में से एक) की सहायता से पं. नारायण भट्ट ने 1585 में मूलस्थान पर पुनः एक भव्य काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishvanath) का पुनर्निर्माण निर्माण कराया।
नोट:- डॉ. एएस भट्ट, अपनी किताब 'दान हारावली' में जिक्र करते हैं कि, टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था।
तो आगे बढ़ते हैं, हमने देखा कि कैसे अबतक तीन बार, हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े और मुख्य प्रतीकों में से एक काशी विश्वनाथ के भव्य मंदिर को विदेशी इस्लामिक लुटेरे ध्वस्त कर चुके थे, लेकिन वो अभी भी नहीं रुके, ना ही उनके अत्याचार। चौथी बार सन् 1632 में शाहजहां ने बाकायदा आदेश पारित कर मंदिर तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो नहीं तोड़ सकी, लेकिन उन्होंने काशी के 63 अन्य मंदिर खीझ में तोड़ दिए।
इनके अत्याचारों का घड़ा भर तेजी से भर रहा था। धार्मिक उन्माद और अत्याचार की नित नई परिभाषा लिखते हुए आखिर पांचवीं बार, 18 अप्रैल 1669 को क्रूर मुगल औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath temple) को ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मसीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
कहा जाता है कि, विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने और मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान को तोड़ने के बाद हुए जबरन धर्मपरिवर्तन की वजह से आज मौजूद अधिकांश मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे। काशी और पड़ोस के लोगों को जब पता चला था कि औरंगजेब इस मंदिर को तोड़ना चाहता है, तो उन्होंने भगवान शिव के मूल ज्योतिर्लिंग को एक कुएं (ज्ञान कूप) में छिपा दिया गया। इसी ज्ञानकूप के नाम पर वहां जबरन मस्जिद बनाई गई उसका नाम ज्ञानवापी मस्जिद रख दिया गया। ये कुआं आज भी मंदिर और मस्जिद के बीच में स्थित है।
1742 में मराठा शासक मल्हार राव होलकर ने मस्जिद को ध्वस्त करके मूलस्थान पर विश्वेश्वर मंदिर के पुनर्निर्माण की योजना बनाई थी। लेकिन उनकी ये योजना, अवध के तत्कालीन नवाब के हस्तक्षेप के कारण सफल ना हो पाई। इसके बाद 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिरमुक्ति के प्रयास जारी रखे। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।
1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर (मल्हार राव होलकर की पुत्रवधू) द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया, जिस पर पंजाब के वीर महाराजा रणजीत सिंह ने सन् 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने का छत्र बनवाया गया था। नागपुर के भोंसले परिवार ने चांदी प्रदान की। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था। क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है अतः इसे ही आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है।
30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया। पूर्ववर्ती मंदिर के अवशेषों को नींव, स्तंभों और अंदर से टूटी हुईं दीवारों से बाहर झांकते मंदिर के खंडहरों को मस्जिद के पीछे के भाग में आसानी से देखा जा सकता है।
इतिहास की पुस्तकों में 11-15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। इसे क्रम में मोहम्मद बिन तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देवक्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर लिखते है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
मंदिर की संरचना और वास्तुकला
विश्वनाथ मंदिर (Vishvnath Temple Kashi) परिसर में कई छोटे-2 मंदिरों की एक श्रृंखला है, जो गंगा नदी के पास विश्वनाथ गली नामक एक छोटी से गली में स्थित हैं। मंदिर में स्थापित मुख्य शिवलिंग/ज्योतिर्लिंग 24 इंच ऊंचा और 35 इंच परिधि का है। मुख्य शिवलिंग/ज्योतिर्लिंग एक गहरे भूरे रंग का एक पत्थर है जो चांदी के एक मंच पर रखा गया है। मुख्यमंदिर चतुर्भुजाकार है और अन्य कई देवताओं के मंदिरों से घिरा हुआ है। परिसर में कालभैरव, दंडपानी, अविमुक्तेश्वर, विष्णु, विनायक, शनिश्वर, विरुपक्ष और मां गौरी के छोटे मंदिर हैं। मंदिर में स्थित एक छोटा कुआँ है जिसे ज्ञानवापी कूप (ज्ञान का कुआँ) कहा जाता है। ज्ञानवापी कुआं मुख्य मंदिर के उत्तर में स्थित है।
मंदिर की संरचना तीन भागों को मिलाकर बनी है। पहला भाग भगवान विश्वनाथ या महादेव के मंदिर पर बना शिखर, दूसरा भाग एक स्वर्ण गुंबद है और तीसरा भगवान विश्वनाथ मंदिर के ऊपर ध्वज और त्रिशूल धारण किए हुए सोने का शिखर है। एक सभागृह (Congregation Hall) है जिससे होकर अंदर स्थित मुख गर्भगृह (Sanctum Sanctorum) का रास्ता जाता है।
वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी की महत्त्वाकांक्षी परियोजना काशी विश्वनाथ कोरिडोर से इसे नया रूप देकर भक्तों के लिए सुगम बना दिया गया है। जिसमे उन्होंने इस मंदिर के नवीनीकरण के साथ इसकी ख्याति को विदेशों में और मजबूती से प्रसारित करने का मंतव्य दिखाया है। देखना होगा कि कैसे फिर एक बार काशी विश्वनाथ मंदिर नए रंग, रूप, कलेवर और नए वातावरण के साथ विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।