भारतीय परिवारों में घूमना फिरना तभी होता है जब किसी तीर्थ स्थान पर जाने की योजना बनाई जाए। खासकर के मध्यम वर्गीय परिवारों में तो यात्राएँ सिर्फ तीर्थ स्थानों पर ही होती है। पिछली दो यात्राएंँ अपने दोस्तों के साथ करने के बाद अब बारी थी परिवार के साथ कहीं घूम कर आने की।
हमारे परिवार में नगरकोट वाली माता की पूजा होती है यह मंदिर कांगड़ा घाटी में स्थित है तो वहीं जाने की जाने की योजना बनी।
मैं शिमला टॉय ट्रेन में यात्रा कर चुका था इसलिए कांगड़ा घाटी की टॉय ट्रेन की यात्रा करने के लिए मैं रोमांचित था।
8 अप्रैल की शाम को दिल्ली से हम पूजा एक्सप्रेस से पठानकोट की ओर निकले। साइड की निचली बर्थ ने इस यात्रा का मजा दोगुना कर दिया।
यह ट्रेन सुबह 6:00 बजे पठानकोट कैंट स्टेशन पर पहुँचा देती है पर कांगड़ा घाटी की ओर जाने वाली गाड़ियाँ आपको पठानकोट जंक्शन स्टेशन से ही मिलेंगी जो कि 3 कि.मी. दूर है । ऑटो से 6:45 पर जब वहाँ पहुँचे तो पता चला कि इस स्टेशन पर सुविधाओं का दूर-दूर तक नाम नहीं है।
ऑनलाइन चेक करने पर पता चलता है कि दिन में 6 से 7 ट्रेनें कांगड़ा के लिए चलती है लेकिन असलियत में सिर्फ एक ट्रेन 11:00 बजे है इसलिए अब हमें करना था 5 घंटों का इंतज़ार वह भी एक ऐसे स्टेशन पर जहाँ पर साफ सफाई का नामोनिशान नहीं था।
ऐसा नहीं है कि यहाँ पर सवारियों की कमी है पर यहाँ आने वाले अधिकतर लोग तीर्थयात्री हैं। शिमला टॉय ट्रेन की तरह यहाँ पर विदेशी पर्यटक और पैसे वाले मोटे आसामी नहीं आते और शायद इसी वजह से यह रेलवे लाइन इस हालत में है। खैर 11:00 बजे जैसे तैसे ट्रेन में घुसे भीड़ भाड़ में थोड़ी धक्का-मुक्की करने के बाद खिड़की वाली सीट मिली ।11:30 पर ट्रेन चल पड़ी और थोड़ा दूर आगे निकलते ही धौलाधार रेंज पर जो नज़र पड़ी तो सारी थकान दूर हो गई ।
धौलाधार रेंज आपको पठानकोट से लेकर कांगड़ा तक दिखती रहेगी धौलाधार रेंज के बराबर में ही ये रेलवे लाइन चलती रहती है।
मैं शिमला टॉय ट्रेन का सफर कर चुका हूँ अगर शिमला टॉय ट्रेन को 10 में से 10 नंबर दो तो यहाँ पर तो पांच नंबर कभी मिलना मुश्किल है पर खिड़की से बाहर दिखने वाले नज़ारे बहुत राहत दे रहे थे। कांगड़ा में समतल भूमि है। यूपी बिहार की तरह यहाँ भी गेहूं के खेत और आम के बगीचे हैं पर परिदृश्य में धौलाधार रेंज है जो इस सफर को आसान बना देती है। धौलाधार का नाम शायद पूरे साल सफेद बर्फ से ढके रहने के कारण पड़ा है। आप जरा कल्पना कीजिए आप के बगीचे और उसके ठीक पीछे सफेद बर्फ से ढके आसमान छूते पहाड़, कुछ ऐसे ही नज़ारे थे।
खैर इन नज़ारों का आनंद लेते हुए कांगड़ा मंदिर के करीब पहुँचे ही थे कि वहाँ से दो स्टेशन पहले ज्वालामुखी रोड पर ट्रेन को रोक दिया गया और कहा गया कि आगे ट्रैक की मरम्मत चल रही है इसलिए ट्रेन आगे नहीं जाएगी।
इस वक्त ट्रेन बाणगंगा नदी के साथ- साथ चलती है। नीचे करीब 100 मीटर गहराई में नदी की धारा है और ऊपर पहाड़ पर रेल की पटरी।
खैर ज्वालामुखी रोड स्टेशन से बाहर आकर हिमाचल रोडवेज की बस पकड़ी।कांगड़ा यहाँ से करीब 30 कि.मी. दूर था और बस का रास्ता वाह! जी वाह!क्या कहा जाए बाणगंगा नदी के साथ- साथ काफी ऊँचाई पर रोड चलता है, नीचे खाई में नदी बहती है और नीचे आप रेल की पटरी भी देख सकते हैं।
रास्ते में हमको एक पहाड़ पर कांगड़ा किला भी दिखा। एक ऊँचे पहाड़ की नोंक पर काले पत्थर से बने इस किले में कभी कांगड़ा का राजसी परिवार रहा करता था।
हिमाचल के बस चालक जिस तरीके से बस चलाते हैं मुझे नहीं लगता दुनिया में कोई और चला सकता है। सर्पीले मोड़ों पर गाड़ी को इतनी रफ्तार से घुमाते हैं कि सर चकरा जाता है ।लगता है जैसे किसी रोलर कोस्टर पर बैठे हैं।अगर आँख बंद करके बैठे तो नींद भी बहुत अच्छी आती है।
5:00 बजे हम कांगड़ा पहुँचे और पहले हमने कमरा लिया और नहा धोकर फिर गए दर्शन करने। दर्शन करने के नाद मैंने कमरे की बालकनी से कुछ ऐसा देखा कि दिन बन गया।
सामने थी करीब 10 km लंबी मैदानी घाटी और घाटी के पार थे हरे भरे पहाड़ जिनपर धर्मशाला और मैक्लोडगंज बसे हुए थे। धर्मशाला और मैक्लोडगंज की ऊँचाई को बोना साबित कर रहे थे बर्फ से ढके और आसमान छूते धौलाधार के पहाड़।
थक गए थे पर मुझ घुमक्कड़ को आराम कहाँ, 9:00 बजे, लगभग सोने से पहले मैं कांगड़ा शहर में आसपास घूम कर आया । यहाँ पर तीर्थ यात्रियों की भरमार है और पंजाबी बोली जाती है । धर्मशाला यहाँ से 18 कि.मी. दूर है मेरा बहुत मन था लेकिन किसी कारण से मैं जा नहीं पाया लेकिन अगली बार ज़रूर जाऊँगा। हमारे होटल रूम के सामने धौलाधार पहाड़ों के नीचे मैक्लोडगंज और धर्मशाला जुननुओं की तरह रात को जगमग चमकते हैं।
अगले दिन सुबह बाणगंगा नदी घूमने गए जो हमारे होटल से करीब 3 कि.मी. दूर थी।रास्ते में बहुत से तीर्थयात्री नहाने जा रहे थे या लौट रहे थे। जिस तरह से ऋषिकेश में गंगा माँ घूमती हैं छोटे और बड़े पत्थर के बीच से बहती है कई सारे रैपिड बनते है उसी तरह बाणगंगा नदी है। किनारे और बीच में छोटे बड़े पत्थर जमा रहते है।पानी सिर्फ घुटनों तक ही रहता है। 1950 का लकड़ी का एक पुल है जिसके नीचे मछलियाँ जमा रहती है क्योंकि ऊपर से लोग खाना डालते है।
यहाँ नहाने में तो मज़ा ही आ गया था।मुख्य आकर्षणों में से एक रहा।
फिर दोपहर की बस से हम ज्वालामुखी देवी मंदिर पहुंँचे।
कांगड़ा से 30 km दक्षिण में इस छोटे से कस्बे का नाम ज्वालामुखी है। यहांँ के मंदिर में प्राकृतिक रूप से माता की ज्योति जलती रहती है शायद पहाड़ के अंदर नेचुरल गैस का भंडार है।अकबर का माता को अर्पित किया हुआ सोने का छत्र भी देखा।
यहांँ पर हमने लंगर में खाना खाया और फिर शाम की बस से चिंतपूर्णी माता के दर्शन के लिए चल दिए। चिंतपूर्णी ज्वालामुखी करीब 28 km दूर है।
यहाँ का बस अड्डा नवनिर्मित है और यह से क्या दिखता है?? धौलाधार!!
शाम को चिंतपूर्णी माता के दर्शन करके एक धर्मशाला में कमरा लिया। चिंतपूर्णी कस्बे में धर्मशालाओं की भरमार है और कई लंगर लगातार चलते रहते हैं।मंदिर भी सुंदर है।
अगले दिन हमें अंब आंदौरा रेलवे स्टेशन से हिमाचल एक्सप्रेस पकड़नी थी। सुबह माता के दर्शन करके हम अंब अंदौर पहुँच गए जो कि चिंतपूर्णी से 35 किलोमीटर दूर था।ये कस्बा समतल जमीन पर हैं ।शहर से 3 km दूर छोटा सा स्टेशन है । यहाँ से सिर्फ दो एक्सप्रेस ट्रेन को चलती है।
हमारी ट्रेन 8 बजे थी। शाम को में रात को खाना होटल से लाने के लिए लिफ्ट मांगकर अम्ब गया। लिफ्ट वाले अंकल बोलने का लहजा देखकर समझ गए और बोले आप तो दिल्ली से हैं शायद। मैंने कहा बिल्कुल ठीक पकड़े हैं ।
स्टेशन पर हमें एक परिवार भी मिला जो 27 सदस्यों के साथ यात्रा कर रहा था ।मैं तो सुनकर बहुत चक्का रह गया जाते समय भी मुझे निचली बर्थ ही मिली थी
रात में 10:00 बजे के आसपास ट्रेन की खिड़की से गुरुद्वारा किरतपुर साहिब और आनंदपुर साहिब के भी दर्शन हो गए ।
सुबह करीब 6:00 बजे हम पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गए और यात्रा का समापन हुआ
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