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मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी नॉर्मल बोरिंग जिंदगी में भी एक ऐसा दिन आएगा जब मैं एक अनजान सफर पर निकल जाऊंगी लेकिन अपने घर पर चल रहे ‘लड़की 25 साल की हो गई है, शादी कर लो अब’ का जाप मैं और नहीं सुन सकती थी। कुछ वक्त तो मैंने जैसे तैसे अपने घरवालों को इस ख्याल से दूर रखा लेकिन जनवरी 2018 में वो दिन आ ही गया जब मेरे घरवालों ने एक परिवार को घर बुलाने का फैसला कर लिया। उस दिन मैं ऑफिस में यहीं सोचती रही की इस मुसीबत से कैसे निकलुँ?
खुद को शांत करने के लिए मैंने हेडफोन पहने और अपना पसंदीदा गाना लगा दिया, ये हसीं वादियों ये खुला आसमां! ये गाना भले ही रोमांटिक हो, लेकिन मुझे ये हमेशा पहाड़ों को शांति की खूबसूरती की याद दिलाता है। गाना बंद हो गया था मगर मेरे दिमाग से पहाड़ों का वो नज़ारा जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। बस तभी मुझे अहसास हुआ कि शायद ये गाना सिर्फ मन बहलाने का जरिया नहीं था, बल्कि मेरे लिए एक इशारा था। फिर क्या, ऑफिस की घड़ी में 6 बजते ही मैंने बैग उठाया, मजनू का टीला से बस पकड़ी और मैक्लॉडगंज की सुंदर वादियों में खुद को खोने के लिए तैयार हो गई।
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सफर की शुरुआत- थोड़ी हिचक, थोड़ा उत्साह
बस मजनू का टीला से निकलकर दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक में ब्रेक लगाकर चल रही थी। बाहर का शोर मानों मेरे अंदर के शोर से बिल्कुल मेल खा रहा था। मैंने घरवालों को फैमिली ग्रुप पर बता दिया था कि मैं कुछ दिनों के लिए घूमने निकल रही हूँ, और फिलहाल तो लड़के वालों से नहीं मिल सकती। डांट भी पड़ी, कई कॉल्स भी आए, लेकिन अब मैं सोच चुकी थी कि अब सुबह की शुरुआत करूंगी तो पहाड़ों में!
सुबह 4.30 बजे जब हिचकोले खाती बस में मेरी आखें खुली, तो एक ऐसा नज़ारा दिखा जिसे मैं ज़िदगी भर नहीं भुला सकती। बस की खिड़की से बाहर देखा तो नीचे बसा गाँव ऐसे टिमटिमा रहा था मानों तारों भरा आसमान नीचे उतर आया हो। चारों तरफ फैले ऊँचे हरे देवदार के पेड़ों ने इस नज़ारों को किसी दुल्हन के घुंघट की तरह सजा रखा था। जैसे ही बस मोड़ लेती, मैं फिर से इसे देखने के लिए सीट पर उछल कर बैठ जाती। मेरी साइड वाली सीट पर बैठी आंटी ने मुझे इसके लिए कई बार घूरा भी! लेकिन ये ऐसा अहसास था जो मुझे आज से पहले कभी नहीं हुआ, रास्ते में पड़ने वाले उस छोटे से गाँव के नज़ारे ने मुझे ताज़गी और उत्साह से भर दिया, और अब मेरे सारे सवाल और उदासी उस ठंडी हवा में कहीं गायब हो गए थे।
मैक्लॉडगंज में मिला शांति और सुकून
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करीब 6 बजे मैं धर्मशाला बस स्टैंड पर पहुँची, यहाँ से मैक्लॉडगंज अभी आधे घंटे की दूरी पर था, जिसके लिए मैंने पास ही से टैक्सी कर ली। अब घर से बड़े जोश में निकल तो लिए लेकिन धर्मशाला जाकर होटल का जुगाड़ भी तो करना था। यहाँ मेरी किस्मत ने मेरा साथ दिया और मुझे हिमाचल प्रदेश टूरिसम के होटल भाग्सू में कमरा मिल गया। वैसे मुझे इस सरकारी होटेल से ज्यादा उम्मीदें नहीं थी, लेकिन होटल भाग्सू से मैं निराश नहीं हुई। होटल की लोकेशन, उनका बड़ा गार्डन, धूप में लगी बेंच, और सामने बर्फ से ढकी हिमाचल की चोटियों का नज़ारा, बिल्कुल पर्फेक्ट!
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थोड़ी देर आराम करने और एक लोकल आन्टी से लज़ीज थुपका का नाश्ता करने के बाद मैंने अपने सफर की शुराआत भाग्सू फॉल्स से करने की ठानी। होटल से भगसू फॉल्स का सफर करीब 3.5 कि.मी. लंबा है। आप चाहे तो इसे आधे रास्ते तक टैक्सी से भी पूरा कर सकते हैं, लेकिन मैंने ये सफर पैदल ही तय किया।
मार्केट से गुज़रते इस रास्ते पर कई दुकाने दिखी जहाँ तिब्बती और हिमाचली संसकृति से जुड़ा सामान मिलता है। फिर आया भाग्सूनाथ मंदिर। सफेद दिवारों में रंगा ये मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ एक छोटा सा आर्टिफिशियल तालाब भी है जहाँ कई लोग डुबकी लगाते हैं। मॉनसून में तो भगसू वॉटरफॉल की धारा मंदिर तक भी पहुँचती है।
मंदिर का दर्शन कर मैं भाग्सू फॉल्स के रास्ते पर निकल पड़ी। रास्ते का शुरुआती हिस्सा तो सीधा और सीढ़ी नुमा है, लेकिन उसके बाद आपको एक संकरे, कच्चे रास्ते पर चलना होता है। इस रास्ते पर चलते वक्त कई बार मुझे अपने फैसले पर संदेह हआ, लेकिन फिर वॉटरफॉल की आवाज़ और साथ चल रहे लोगों के जोश ने मुझे फिर खुद पर विश्वास दिला दिया। करीब आधे घंटे बाद मैं वॉटरफॉल पर पहुँची और फिर यहाँ पहुँचते ही सारी थकान मिट गई। रंगीन तिब्बती झंडे, क्रिस्टल सा चमकता साफ पानी और इन सब को घेरे उँचे पहाड़, ये नज़ारा ही तो है जो आपको कुदरत के कमाल का एहसास दिलाता है। यहाँ पहुंचकर मानों मेरी सारी मुश्किलें बहुत छोटी लग रही थी और शायद मुझे इसी एहसास की ज़रूरत भी थी।
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फॉल्स पर कुछ वक्त बिता कर और शिवा कैफे में ताज़ी सब्जियों से बने लंच के बाद मैं निकल पड़ी नामग्याल मोनैस्टरी की ओर। पीले, सफेद और लाल रंग से सजे इस क़ॉम्पलेक्स में दलाई लामा का मंदिर है और साथ ही बौद्ध स्कूल भी है। यहाँ शांति और अध्यात्मिकता का ऐसा संगम है जो आपके अंदर के सारे उफान को स्थिर कर देता है। मंदिर के अंदर बनी खूबसूरत पेंटिंग बौद्ध धर्म गुरूओं की कहानी बयान करता है और इस कॉम्प्लेक्स से आप मेक्लॉडगंज का नज़ारा भी देख सकते हैं।
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शाम होते ही मैं अपने शांत मन को लेकर पहुँची मैक्लॉडगंज के मार्केट में। यहाँ के रंगीन कपड़े और ज्वेलरी रात की रोशनी में बड़े ही सुंदर लगते हैं, हालांकि यहाँ मिलने वाला सामान आपको मजनू का टीला मार्केट में भी मिल ही जाएगा। और फिर अपने पहले दिन के लंबे सफर को विश्राम देकर मैं कमरे में सोने चली गई।
धर्मशाला में अध्यात्म की खोज
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अब क्योंकि मेरी घर वापसी धर्मशाला से ही होनी थी इसलिए मैंने दूसरा दिन यहाँ आस-पास की जगह देखने में बिताया। सबसे पहले मैं स्टेट आर्ट म्यूजियम पहुँची। पर्वतों की आड़ में धर्मशाला का नज़ारा यहाँ से साफ-साफ दिखाई देता है। इस म्यूजियम में हिमाचल की संसकृति और वहाँ के लोगों के पहनावे और जीवन-शैली की जानकारी मिलती है।
इसके बाद मैं पहुँची दुनिया के सबसे ऊंचे क्रिकेट ग्राउंड यानी HPCA स्टेडियम। हरी घास का मैदान और किसी सुनहरे साए की तरह पीछा करता हिमालय, वाकई यहाँ किसी भी खेल को देखना और खेलना बहुत ही रोचक होता होगा।
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स्टेडियम का चक्कर लगाने के बाद मैं धर्मशाला की उस जगह गई जो शायद यहाँ की सबसे बेहतरीन, शांत और सुंदर जगह है: नॉरबुलिंग्का इंस्टिट्यूट। 1995 में बना ये इंस्टिट्यूट तिब्बती संसकृति, साहित्य और कला को संजो कर रखने पर काम करता है। रंगीन तिब्ब्ती झंडों, बड़े-बड़े पेड़ों, सुनहरे, सफेद मंदिरों से सजा ये इंस्टिट्यूट एक ऐसी जगह है जहाँ मुझे खुद से जुड़ने का असली अहसास हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे जिंदगी कितनी सीधी और सरल है और हम खामखा ही उसे मुश्किल बनाने में लगे रहते हैं। लेकिन हाँ, मुझे यहाँ ये भी ऐहसास हुआ कि कभी-कभी हमें अपनी खुशी के लिए खुद ही खड़ा होना पड़ता है, भले ही ये थोड़ा विद्रोह ही क्यों ना लगे।
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बस इस ख्याल और एक बड़ी-सी मुस्कान लेकर मैं बस में बैठ गई, दिल्ली जाने को तैयार। हाँ, घर पर एक लंबा भाषण और ढेर सारी डांट भी मेरा इंतजार कर रही थी, लेकिन उसे झेलने के लिए मेरे इस सफर ने हिम्मत की पोटली मेरे साथ बांध दी थी। शादी तो मैं अभी भी करने के लिए तैयार नहीं हुँ, लेकिन घरवालों को अपनी स्थिति को बेहतर समझाने का तरीका मुझे इस यात्रा ने ज़रूर सिखा दिया था।