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सफ़र लंबा ज़रूर है लेकिन वाक़ई में बेहद खूबसूरत है। मैं किसी लंबे और कठिन ट्रेक की बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि एक सफ़र है जो हर किसी को एक बार ज़रूर करना चाहिए। HRTC की बस से दिल्ली से लेह की यात्रा। दिल्ली से लेह लगभग 1036 किमी. की दूरी पर है। मई-जून से कुछ महीनों के लिए हिमाचल परिवहन निगम की एक बस दिल्ली से लेह के लिए चलती है। मैं इस यात्रा को काफ़ी पहले से करना चाहता था। मुझे जैसे ही पता चला कि इस बार दिल्ली से लेह की बस सर्विस शुरू हो गई। मैंने झट से ऑनलाइन बुकिंग की और पहुँच गया इस शानदार और जबर यात्रा को करने के लिए।
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मैं आपको इस यात्रा के बारे में बता दूँ कि दिल्ली से लेह की दूरी 1036 किमी. है। इस यात्रा को पूरा करने में 36 घंटे का समय लगता है। इस यात्रा में हमारी बस अलग-अलग राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों से होकर गुजरती है, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और आख़िर में पहुँचते हैं लद्दाख। दिल्ली से लेह की यात्रा के लिए ऑनलाइन बुकिंग एचआरटीसी की वेबसाइट और एप से हो जाती है लेकिन ये बुकिंग पूरी दिल्ली से लेह तक के लिए नहीं होती है। पहले आपको एक टिकट दिल्ली से केलांग के लिए करानी पड़ेगी। इसके बाद केलांग से लेह के लिए ऑनलाइन टिकट भी हो जाती है और केलांग बस स्टैंड से काउंटर से भी टिकट मिल जाती है। दिल्ली से लेह का कुल किराया 1765 रुपए होता है।
दिल्ली से लेह बस रूट
दिल्ली - चंडीगढ़ - मनाली - रोहतांग दर्रा - केलांग - जिस्पा - बारालाचा ला - सरचू - नाकीला - लाचलुंग ला - पांग - तांगलांग ला - उप्शी - कारू- लेह
यात्रा शुरू
मैं अपने टिकट के साथ दिल्ली के कश्मीरी गेट आईएसबीटी पहुँच गए। बस अपने ठीक समय 3:45 पर दिल्ली से निकल पड़ी। लगभग 1-2 घंटे का समय तो दिल्ली से निकलने में ही लग गया। दिल्ली से बाहर आने पर एक अलग ही ख़ुशी होती है। लगभग 5 घंटे की लगातार यात्रा के बाद बस चंडीगढ़ के पहले एक ढाबे पर रूकी। यहाँ मैंने हल्का-फुल्का खाना खाया। कुछ देर बाद बस फिर से चल पड़ी। चंडीगढ़ से निकलने के बाद मुझे हल्की-हल्की नींद आने लगी लेकिन बस में सोने का मतलब है झटका लगना।
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मैं बस के झटके से उठ जा रहा था और फिर से नींद की आग़ोश में चले जा रहा था। इतनी लंबी यात्रा के लिए नींद पूरी करना बहुत ज़रूरी है। कब हिमाचल आ गया, मुझे तो पता ही नहीं चला। बीच-बीच में आँख खुल रही थी लेकिन जगह का अंदाज़ा नहीं हो पा रहा था। सुबह लगभग 6 बजे आंख खुली थी तो पता चला कि हम हिमाचल प्रदेश में पहुँच चुके हैं। कुछ देर बाद हमारी बस कुल्लू पहुँच गई। कुल्लू बस स्टैंड पर बस काफ़ी देर रूकी रही। मैंने यहाँ आप चाय-नाश्ता किया और अपनी बस में आकर बैठ गया।
अटल टनल
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इतनी लंबी यात्रा करने के बाद शरीर अकड़ तो गया था लेकिन ऐसी यात्राओं का अनुभव रोज-रोज तो नहीं मिलता है। बस खचाखच भर गई और थोड़ी देर बाद बस मनाली के लिए निकल पड़ी। लगभग 2 घंटे के बाद हमारी बस मनाली के एचआरटीसी बस स्टैंड पहुँचती है और कुछ देर बाद रूकने के बाद वहाँ से आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ती है। मनाली से निकलने के बाद सुंदर-सुंदर नज़ारे शुरू हो जाते हैं। कुछ देर बाद आती है, अटल टनल। अटल टनल के होने से अब ख़तरनाक और कठिन रोहतांग पास से होकर गुजरकर नहीं जाना पड़ता है। अटल टनल दुनिया की सबसे लंबी टनल है, ये टनल लगभग 9.62 किमी. की है।
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लगभग 10 किमी. गुफा में रहने के बाद हम बाहर की दुनिया में आते हैं। अटल टनल को पार करते ही हम हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति ज़िले में आ जाते हैं। अटल टनल के एक तरफ़ कुल्लू जिला है और दूसरी तरफ़ लाहौल स्पीति जिला पड़ता है। थोड़ी देर हमारी बस सिस्सू पहुँच जाती है। लाहौल स्पीति आते ही एकदम खूबसूरत नज़ारों से भरा रास्ता शुरू हो जाता है। तांडी होते हुए 11 बजे हम पहुँच जाते हैं, केलांग। दिल्ली से लेह जाने वाली ये बस केलांग पहुँचने के बाद एक दिन रूकती और अगले दिन सुबह 5 बजे लेह के लिए निकलती है। मैंने केलांग से लेह की ऑनलाइन टिकट नहीं ली थी इसलिए बस स्टैंड पर काउंटर से टिकट ले ली। मुझे बस में सबसे पीछे वाली सीट मिली। इसके बाद बस स्टैंड के सामने एक होटल में एक कमरा ले लिया और पूरे दिन लंबी यात्रा की थकान मिटाई।
तो चलें लेह
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अगले दिन सुबह- सुबह 5 बजे से पहले ही बस के पास पहुँच गया। मेरी सीट को देखकर कंडक्टर साहब को दया आ गई और उन्होंने ड्राइवर के पीछे वाली सीट मुझे दे दी। सुबह के 5 बजते ही बस लेह के लिए निकल पड़ी। थोड़ी देर बाद बस जिस्पा पहुँची। जिस्पा के बाद दारचा पुल आता है। दारचा पुल लेह-मनाली हाइवे पर सबसे लंबा ब्रिज है। इस पुल को पार करने के बाद थोड़ी ही दूर जाते है और चेकिंग पोस्ट पर हमारी बस को रोक दिया जाता है।
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बात करने पर पता चलता है कि आगे ग्लेशियर के टूटने से रास्ता कल रास्ता से बंद है। रास्ते को सही करने के लिए बीआरओ के लोग जब आएँगे तब, रास्ता शुरू हो पाएगा। पहाड़ों में ऐसा कई बार होता है कि आपको लंबा इंतज़ार करना पड़ता है। दिल्ली से लेह की यात्रा वैसे तो 36 घंटे की है लेकिन कभी-कभी ये यात्रा काफ़ी लंबी हो जाती है। थोड़ी देर में बस से सभी लोग बाहर निकल आते हैं। लगभग 1-2 घंटे में 2-3 किमी. का लंबा जाम लग जाता है। थोड़ी देर पता चलता है कि रास्ता खुल गया है लेकिन तब पता चलता है कि हमारी बस से ड्राइवर और कंडक्टर जाने कहां चले गए हैं? कुछ देर बाद वो दोनों आते हैं तो पता चलता है कि नाश्ता करने गए थे। इस तरह से हमारी यात्रा फिर से शुरू हो जाती है।
ऊंचे-ऊंचे पहाड़
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से होकर गुजरने वाला रास्ता अक्सर कठिन होता है। ऐसे ही कठिन रास्तों से होकर हमारी बस बढ़ती जाती है। हमारी बस सूरज ताल के पास पहुँचकर फिर रूक जाती है। पता चलता है कि आगे बर्फ़ और पत्थर हटाने का काम किया जा रहा है। यहाँ पर बस रूकने का एक फ़ायदा तो हुआ। सूरज ताल को अच्छे से देखने का मौक़ा मिल गया। सूरज ताल से बर्फ़ से जमी हुई थी और चारों तरफ़ पहाड़ बर्फ़ से ढँके हुए थे। लगभग 1 घंटे का बाद रास्ता खुला तो हमारी बस से फिर से चल पड़ी।
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थोड़ी देर बाद आता है बारलाचा पास। बारालाचा पास पार करने के बाद एक जगह मिलती है, भरतपुर। भरतपुर में एक ढाबे पर मैंने दाल-चावल से पेट भरा और आकर बस में बैठ गया। कुछ देर बाद बस फिर से चल पड़ी। हमारी बस देरी से चल रही थी इसलिए कंडक्टर और ड्राइवर कहीं पर ज़्यादा देर तक रूकने के मूड़ में नहीं थे। सरचू को पार करने के बाद आ जाता है, गाटा लूप्स। गाटा लूप्स में 21 लंबे-लंबे हेयर पिन मोड़ हैं। अक्सर इस घुमावदार रास्ते में लोगों की हालत ख़राब हो जाती है।
गाटा लूप्स की कहानी
गाटा लूप्स की भी एक अपनी कहानी है। कहा जाता है कि एक ट्रक में ड्राइवर और हेल्पर इस रास्ते से होकर गुजर रहे थे लेकिन तभी उनका ट्रक ख़राब हो गया। ड्राइवर पास के गाँव में मदद लेने के लिए चला गया और हेल्पर बस में ही रूका रहा। अचानक मौसम ख़राब हो गया, तूफ़ान और बर्फ़बारी हो गई। इस वजह से ड्राइवर गाँव से जल्दी लौट नहीं पाया। जब मौसम में ठीक हुआ तो ड्राइवर वापस लौटा तो देखा कि भूख, प्यास और सर्दी से हेल्पर की जान चली गई। तब से यहाँ से गुजरने वाले लोग पानी से भरी बोतल को चढ़ाते हैं। आपको गाटा लूप्स के रास्ते में एक जगह मिलेगी, जहां पर बोतलों का गुच्छा दिखा देगा।
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काफ़ी समय बाद गाटा लूप्स पार हुआ। गाटा लूप्स के बाद नाकीला पास आया लेकिन मैं तो उस समय सो रहा था, इसलिए नकीला पास को नहीं देख पाया। नकीला पास के बाद व्हिस्की नाला पार करने के बाद हमें लाचलुंग ला दर्रा भी मिला। इस दर्रे को पार करने के बाद पांग नाम की एक जगह आई। पांग में हमारी बस ने ब्रेक लिया और मैंने यहाँ पर थुकपा का स्वाद लिया। थोड़ी देर बाद बस फिर से चल पड़ी। केलांग से लेह के रास्ते में पांग तक का रास्ता काफ़ी ख़राब मिलेगा और उसके बाद रास्ता एकदम बढ़िया मिलता है। मैं आपको एक बात और बता दूँ कि केलांग से निकलने के बाद जिस्पा तक मोबाइल में नेटवर्क आता है, उसके बाद आप नो नेटवर्क ज़ोन में चले जाएँगे। इसके बाद अगर आपके पास पोस्टपेड सिम है तो उप्शी में जाकर नेटवर्क मिलता है। इस बीच में आप बाहरी दुनिया से कट जाते हैं।
लेह
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पांग के पार करते ही एकदम बढ़िया रास्ते से बढ़ते जाते हैं। कुछ देर बाद हम तांगलांग ला हिमालयी दर्रे से होकर गुजरते हैं। मनाली-लेह हाइवे पर स्थित सभी हिमालयी पास में तांगलांग ला सबसे ऊँचाई पर स्थित दर्रा है। यहाँ पर हमें हल्की-हल्की बर्फ़ भी देखने को मिली। तांगलांग में 5 मिनट के लिए हमारी बस भी रूकी। यहाँ हमने थोड़ी फोटोबाजी की लेकिन हवा इतनी ठंडी चल रही थी कि ज़्यादा देर रूक ही नहीं पाए। कुछ देर बाद हमारी बस एकदम सामान्य रास्ते पर आ गई। दूर-दूर तक सीधा रास्ता दिखाई दे रहा था।
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रास्ता और नजारा देखकर लगने लगा था कि हम लद्दाख में पहुँच गए हैं। दूर-दूर तक बंजर पहाड़ और मैदानी इलाक़ा नज़र आ रहा था। कुछ देर बाद सूरज ढल और फिर जल्दी ही अंधेरा गया। उप्शी और कारू होते हुए बस लेह पहुँच गई। हम रात को 10 बजे लेह पहुँचे। वैसे बस का लेह पहुँचने का समय शाम 5 बजे का था लेकिन ख़राब रास्ता और दो-तीन जगह पर काफ़ी देर के लिए रूकना पड़ा। इस वजह से हमें काफ़ी समय लग गया। दिल्ली से लेह का सफ़र कठिन ज़रूर रहा लेकिन ज़िंदगी भर के लिए यादगार बन गया।
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