फ़िल्मों की कहानियों मे सुना था, हॉरर फ़िल्मों के सेट खौफनाक होते है, है ना? हालांकि, मैं जो अनुभव आपके साथ बाँटने जा रहा हुँ, उसे मैं ना तो बढ़ावा देता हुँ और ना ही इसे दोहराने की सलाह देता हुँ।
ये किस्सा उस वक़्त का है जब मैं और मेरे टीन दोस्त, साथ कॉलेज मे पढ़ा करते थे। पढ़ाई तो कभी की नहीं, मगर हम जैसै टीवी और फोन पर चिपके रहने वाले लोगों के हाथ लगा एक आर्टिकल- ‘दिल्ली की सबसे डरावनी जगहें’।
फिर क्या था, हमने हर जगह को कागज़ पर लिखा और अलग-अलग चिट बनाई। जब चिटों को उछाला, तो जो हाथ में आई उस चिट पर लिखा था, 'मैटिनी सिनिमा ट्रैजिडी'।
ये जगह थी दरअसल दिल्ली का एक सिनिमा हॉल, जो काफ़ी वक्त पहले एक फिल्म स्क्रीनिंग के दौरान आग की चपेट में आकर, एक दर्दनाक हादसे का शिकार हो गया। इस जगहे को भी सील कर दी गई और यहाँ आना जाना भी माना है। ये सिनेमा हॉल दिल्ली के ग्रीन पार्क इलाके में है, जहाँ आज भी 70 प्रतिशत इमारते अभी भी उसी हालत में हैं, जैसी पहले थी।
जब चिट निकली तो हम तीनों ने एक दूसरे की तरफ देखा, तीनों की आँखों में सवालिया निशान घूम रहे थे।
“क्या कहते हो?”
बस, फिर रात के 2.30 बजे हम तीनों उस हॉल के बाहर खड़े थे।
मेरे दोस्त क्षितिज ने मुझसे कहा, “भाई, वापिस चलते हैं, नहीं करना ये!”
लेकिन मैं पहले ही बोल चुका था, “भूत वूत कुछ नहीं होते”। और मैं ये बोलकर फंस चुका था। हॉल के बाहर लगी ग्रिल बंद थी, अंदर कुछ 20 साल पुरानी कार के जले हुए मॉडेल्स लगे हुए थे। ये सब देखकर मेरी डर से हालत खराब हो गई, लेकिन ये बात मैंने अपने चहरे पर नहीं आने दी।
टिकेट काउंटर के बगल में एक छोटे से दरवाज़े से हम तीनो अंदर दाखिल हुए। ऊपर सीढ़ी से चढ़ते चड़ते हुए कुछ आवाज़ सुनाई दी, तीनों की तो जैसे सांसे अटक गई।
मैं एक बात आप सब को बता दूँ, ये ज़रूरी नहीं होता की अड्वेंचर हमेशा टेढ़े रास्ते पर ही मिले, मगर वो कहते हैं ना , जब आगे मोड़ हो और रास्ता ना दिखे तो उस मोड़ पर जाने का रोमांच और बढ़ जाता है?
अब रात के 2:45 हो चुके थे।
मेरे दूसरे दोस्त आकाश ने कहा, “3 से 5 बजे भूतों का पीक टाइम होता है, गाँव में सुना है, मैं अब भी कह रहा हूँ लौट चलते हैं।”
मैंने धीरे से गुस्से में कहा,”भूत कौनसा डॉक्टर हैं की 3-6 बैठेंगे, पागल है क्या?
मैटिने पहँचते ही, मानो पैर जाम गए
शायद किसी ने सही कहा है, दिन की रोशनी मे देखी हुई चीज़ और रात के फ्लश लाइट मे दिखती दुनिया, बहुत खौफनाक होती है। हमें तलाश थी, थियेटर हॉल की। इस तलाश में हमें पुरानी फ़िल्मो के पोस्टर्स दिखे, आधे जले, मकड़ी के जाले लगे हुए
हमें कैसा लग रहा था, ये मैं यह मैं शायद कभी शब्दो में नही बता पाउँगा। थोड़ा आगे चलने पर, टॉर्च लाइट से ह्में दिखा आध जला एंट्रेन्स। हमने सोचा हो आते हैं अंदर, जैसे ही अंदर घुसे, और 10 कदम आगे गए, हमारी साँसे सच में रुक गई।
एक जले हुए सेट को असल में देखना बहुत अलग होता है, तब तरह-तरह की चीज़ें दिमाग़ मे दौड़ रही थी। 200 से ज्यादा सीट जाली पड़ी थी, 70mm स्क्रीन आधी जाली हुई थी, जिसे ठीक सामने से घूर रहा था एक प्रोजेक्टर रूम। छत में हुए छेद से आती रोशनी जले हुए थिएटर को एक अलग डरावनी तरह से रोशन कर रही थी और टूटे दरवाजे ऐसे थे कि जिनको देखते ही लग रहा था मानो अभी 100 लोग उसे तोड़कर भागे हों। कुछ पुराने जूते पड़े हुए थे, और ये सब सीन हम सब चुप छाप देख रहे थे, हमारी हिम्मत नही हुई किसी भी सीट पर बैठने की।
और जब आप ऐसी किसी जगहे होते हैं तब आपका मन अजीब अजीब ख्याल बुनने लगता है, जैसे, पीछे कोई हाथ रख कर कहेगा - सिर टिकेट? या फिर बहुत सारे लोग एक भूतिया अंदाज़ में एक साथ हसने लगेंगे, या जैसे जली हुई सीटों में कोई बैठा हुआ होगा, या उस कॉर्नर से सीटी की आवाज़ आएगी, या पीछे घूमेंगे तो जोरो से आधी जाली हुई स्क्रीन चालू हो जाएगी।
उस वक़्त हमने कुछ तस्वीरें लेने की कोशिश की मगर फ्लैश लाइट वाली तस्वीर वो बयां नही कर पाती जो हमने वहाँ महसूस किया। मैंने दोस्तों से कहा की छत पर जाते हैं, मगर वो ज़्यादा हो जाता क्योंकि एक अजनबी बिल्डिंग जो सुनसान पड़ी हो उसे आप दिन में पूरी तरह नहीं घूम सकते, और यहाँ तो रात हो रही थी।
आर्टिकल में पढ़ा था कि इस जगह पर तरह- तरह की आवाज़ें सुनाई देंगी जैसे किसी के रोने की आवाज़, दौड़ने की, और आज देख भी लिया, मेरा मतलब सुन भी लिया।
अपना ये असल अनुभव आपको ये बताने के लिए है, की अड्वेंचर के नाम पर हर सीमा को क्रॉस करना हर बार सही नही होता। जिस बात की मनाही हो, उसे करने का मन तो ज़रूर करता है, मगर कभी सोचा है कि "मनाही लगाई क्यों जाती है?" उसकी भी तो कोई वजह होगी!