क्यों मुझे अब दिल्ली में दिवाली मनाना एक सज़ा लगती है! 

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बचपन की दिवाली में मिट्टी की महक थी। आस-पास के गाँवों के कुम्हार दशहरे से ही गली-गली घूमते आवाज़ लगाते थे:

"दीवा ल्यो रे.... दीवा लेल्यो "

सूखे दीयों को पानी में डुबो कर रख दिया जाता था, ताकि धनतेरस को जब इनमें तेल भरें तो माटी तेल न सोख ले।

फिर धनतेरस को माँ थालियों में दर्जनों दीपक सजा कर एक-एक थाली हम बच्चों के हाथ में थमा देती थी। कहती थी छत सजा आओ।

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हम सभी छत पर जाकर मुंडेर के सहारे दीपक रखते जाते। मोहल्ले की सारी मुंडेरों पर हमारे ही जैसे मिट्टी के दिए झिलमिला रहे होते थे।

दो दिये घरों के दरवाज़े के अगल-बगल में सजे होते; मानों घर को किसी ने धनतेरस पर सुनहरे झुमके दिला दिए हों।

आज मिट्टी के दिये बेचने वाले कुम्हार गली में तो क्या, बाज़ार में भी नहीं दिखते। कोई खरीदार ही नहीं अब उनका यहाँ। बस चाइनीज़ लाइटें दिखती हैं हर दुकान में। बिजली की झालरें। सस्ती-महँगी, प्लास्टिक-रबड़ के टुकड़ों से बनी।

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लोग गुच्छे के गुच्छे ले जाते हैं इन बिजली की झालरों के। पाँच सौ रुपये से कम की कोई झालर नहीं। और पूरी छत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बिछाने के लिए दसियों मीटर लम्बी तीन-चार झालरें खरीदनी पड़ती है । लोगों को अब अपनी छत नहीं सजानी बल्कि अपनी छत पड़ोसी से बढ़िया सजानी है।

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झालरों पर हज़ारों का खर्चा कर लेंगे, मगर मिट्टी के दिए नहीं खरीदेंगे।

मिट्टी के दिये सड़क किनारे किसी गरीब की थैली में पड़े लोगों का मुँह ताकते ही रह जाते हैं। उन्हें कोई नहीं पूछता।

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मैनें तो ये भी सुना है कि नए ज़माने के कई मॉडर्न लोग लक्ष्मी जी की तस्वीर के आगे भी खुशबू वाली मोमबत्ती जलाने लगे हैं।

अब अक्टूबर के सर्द महीने की शान्ति कहाँ हैं ?

अक्टूबर के महीने में बारिश थम सी जाती है और हवा में ठंडक कुछ बढ़ जाती है। बादलों से पटे आसमान तले अपने घर की बालकनी में खड़े होकर गरमा-गरम नींबू की चाय पीने में अलग ही मज़ा है।

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कप की गर्माहट आपकी उँगलियों के पोरों में महसूस होती है। कप को होंठो से लगाते हैं तो भाप गालों को सहलाती है, आप चाय की चुस्कियाँ लेते हुए शाम की चुप्पी में हवा की सांय-सांय का संगीत सुन ही रहे थे कि अचानक बम के धमाके की आवाज़ से आप काँप जाते हैं। कानों में कुछ देर सन्न की आवाज़ गूँजती रहती है। हाथ से कप लगभग गिर ही गया था। चाय छलक कर फर्श पर बिखरी है और आपके गर्म मोज़ों को भिगो दिया है। आपके कान इस धमाके की आवाज़ से उबरे ही थे कि एक के बाद एक भीषण धमाकों से आपके घर की दीवारें गूँज जाती है।

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आपकी कॉलोनी में ही रहने वाले कई पढ़े-लिखे आतंकवादी अपने-अपने घरों से दिवाली का असला-बारूद निकाल लाये हैं। लक्ष्मी बम, सूतली बम, गंगा जमुना और न जाने क्या-क्या जलाकर अपने ख़ास तरीके से आपको दिवाली की मुबारकबाद दे रहे हैं।

अब बदलते मौसम की ठंडी हवा में ताज़गी कहाँ है

बचपन की दिवाली कुछ अलग हुआ करती थी। चार फुलझड़ियाँ, तीन जमीन चक्कर, दो अनार, और एक रॉकेट में हम बच्चों का दिल बहल जाता था।

कल पता चला कि सामने वाले बहल साहब अपने बेटे के लिए 50 मीटर लम्बी दस हज़ार धमाकों वाली लड़ी लाये हैं।

दिवाली पर लोग करोड़ों के पटाखे जलाते हैं। दिल्ली, जो क्षेत्रफल में कई राज्यों के जिलों से भी छोटा है, मगर जहाँ कई राज्यों की कुल जनसँख्या से भी ज़्यादा आबादी रहती है, वहाँ दिवाली के मौसम में 10 प्रतिशत जनता ही ऐसी होती होगी, जो पटाखे ना जलाती हो। जब पास-पास रहते करोड़ों लोग एक साथ बारूद जलाएँगे और हवा को शुद्ध करने के लिए पेड़ों के नाम पर लोगों की बालकनी में रखा मनीप्लांट ही बचा है, तो पूरे शहर को साँस लेने के लिए साफ़ हवा का एक कतरा तक नसीब नहीं होता।

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पहले जहाँ अक्टूबर के महीने की हवा में दूर से आती ताज़ा कटी घास की खुशबू तैरती थी, अब वहाँ जले बारूद की बदबू घुल चुकी है। नींबू की चाय अब कसैली सी लगने लगी है। आसमान के सुहाने सलेटी बादल किसी फैक्ट्री से निकले गाढ़े काले धुएं जैसे लगने लगे हैं।

दिवाली पर पटाखे जलाने वालों में कई तो ऐसे जाहिल भी होते हैं, जो सड़क किनारे सोते कुत्ते की पूँछ में पटाखे बाँध देते हैं और इधर से उधर भागते इस बेचारे मूक निर्जीव चौपाये की दयनीय दशा देख कर खिलखिलाते हैं।

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शान्ति भंग करने वालों और प्राणियों को दुःख देने वालों के लिए अगर दंड का प्रावधान है, तो दिवाली के महीने में पटाखे फोड़ने वालों के कान में पिघला सीसा भर कर उन्हें गहरी अँधेरी कालकोठरी में जीवनभर सड़ने के लिए छोड़ देना चाहिए।

मगर चाहने से क्या होता है ? होता तो वही है जो बहुमत चाहता है। और शहरों में रहने वाला बहुमत दिवाली के महीने में पटाके फोड़ना ही चाहता है। ज्ञान का सूरज हर एक के लिए नहीं उगता है।

ऐसे में आप इन लोगों को तो नहीं बदल सकते, मगर दिवाली के दिन मैं तो अपनी दशा ज़रूर बदल लेता हूँ।

अब जब दिवाली पहले जैसे नहीं रही, अब जब हवा साँस लेने लायक नहीं रही, अब जब लोग दिवाली पर एक-दूसरे के गले नहीं मिलते, तो मैंने अपना दिवाली मनाने का तरीका बदल दिया है।

दिवाली के त्यौहार के आस-पास जानलेवा पटाखे छुड़ाने वाले सिरफिरों और हवा में घुले ज़हर से बचने का एक ही तरीका है :

अब दिवाली का असली आनंद लेने के लिए क्या करें

आप मेरी तरह ही किसी शांत जगह घूमने निकल लें।

घर के आस-पास

अगर त्यौहार के दिन कहीं दूर जाने का मन न हो तो कम-से-कम किसी धार्मिक स्थल या ऐतिहासिक स्मारक पर ही घूमने निकल जाएँ। पुलिस और धर्म के रक्षक ये उपकार तो ज़रूर करते हैं कि ऐसी जगहों के आस-पास लोगों को पटाखे नहीं छुड़ाने देते।

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शहर से दूर, शोर और धुँए से परे

अगर आप थोड़ी खुली विचारधारा वाले हैं और ये सोचते हैं कि जहाँ आपका परिवार है वही दिवाली का त्यौहार है, तो परिवार सहित कश्मीर के सूर्य मंदिर में घूमने निकल जाएँ। यहाँ पहाड़ों से घिरे मंदिर में शांति से बैठें, ध्यान-प्राणायाम करें और खुलकर साँस लें।

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अगर ट्रैकिंग करने का शौक है तो आप उत्तराखंड के ओसला गाँव में बने दुर्योधन मंदिर में पहुँच जाते हैं, जहाँ वादियों के बीच इस शांत मंदिर में दिवाली का एक दिया जलाते हैं।

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कल्पनाओं को पंख लगा दें

उत्तराखंड के पहाड़ों में ताज़ी खुली हवा और शान्ति का आनंद लेते हुए आप पाताल भैरव की गुफा की ओर निकल जाते हैं, जो अपने आप में एक अनोखी प्राकृतिक बनावट है। 500-600 मीटर लम्बी गुफा में पत्थर पर उकेरी हुई कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। कहते हैं कि इस गुफा के दर्शन कर लेने से ही चार धाम घूमने का पुण्य लग जाता है।

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दिवाली के दिन शहर के धूल-धुएँ-शोर से दूर घूमने की खूब जगहें हैं। बस घूमने की इच्छा होनी चाहिए। आपको किस तरह दिवाली मनानी हैं ये फैसला आपको लेना है। मैं तो जा रहा हुँ इस धुएँ और शोर से दूर।

आप इस दिवाली पर कहीं घूमने जा रहे हैं? अपनी यात्रा के किस्से Tripoto पर लिखना ना भूलें!

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