देखा जाए तो दुनिया में दो ही काम सबसे निराले हैं...एक तो फक्कड़ी और दूजी घुमक्कड़ी। और जब दोनों सर चढ़ के बोलने लगे तो समझ जाइये कि अल्लाह का करम हो आया है। यादों के एल्बम में कैद करने को कुछ हसीं लम्हें आपके आस पास फिरने वाले हैं, बस आपको उन्हें बिना कुछ सोचे समझे झट से पकड़ लेना है। जिंदगी के उदास दिनों में यही तो उल्लास के दीपक बनते हैं। तो हुज़ूर, इसी फ़न्डे पर अपनी ज़िन्दगी को जीते हुए, हम हमेशा कुछ नया तलाश लाते हैं जीने के सहारे के लिए। इस बार रोमांच और रोमांस से भरा सफ़र, यादों के पहलू में उतरे, उसके पहले आप सब से कुछ अहसास साझा कर लेना चाहती हूँ।
हमेशा से मन मे एक सवाल कौंधता कि, "क्या कभी वक़्त के दरिया को पार किया सकता है?" जवाब आता,“नहीं”...मगर इस सफर के बाद लगा कि हाँ, हम ने किया है। बीते बरस, साल के आखिरी दिन जब हम द्वारका से चल के, पोरबंदर के तटवर्ती रास्तों से होते हुए अगली सुबह वक़्त के दरिया के इस पार सोमनाथ पहुँचे तो कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। क्योंकि वो इस साल का पहला दिन था और हम एक रात के सफ़र में साल भर का फासला तय कर आये थे। जब सुबह-सुबह, मंगला आरती के लिए सोमनाथ मंदिर पहुंचे तो देखा सूरज अभी अलसाये हुए धीमे-धीमे पलकें मिचमिचा रहे थे। लेकिन परिन्दें जाग चुके थे और ऐसा लगता था मानों अपनी चहक से नए साल में, नयी उम्मीदों का स्वागत कर रहे हों। मंदिर से टकराती अरब सागर की लहरें मानों कह रही थी कि कोई सपना टूटे तो गम ना करना, दोबारा नए आगाज़ के साथ उससे बड़ा सपना बुन लेना।
इसके साथ ही कई दफ़ा ढहने के बावजूद सीन ताने खड़ा सोमनाथ मंदिर किसी प्रेरणा से कम नहीं था। मंदिर का चप्पा-चप्पा उसकी ऐतिहासिकता का गवाही दे रहा था। पत्थरों पर उकेरी एक एक मूर्तियाँ, अपने वजूद के मिटने - बनने की कहानी कह रही थी। स्थापत्य कला का शानदार नमूना होने के संग-संग शिव का विशाल ज्योतिर्लिंग मंदिर के आध्यात्मिक भव्यता का भी द्योतक था। इसके अलावा मंदिर के अहाते में छोटा सा उपवन अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहता। मैं सोच बैठती हूँ कि अगली बार यहाँ आऊँगी तो संग में अपनी डायरी लेती आऊँगी। इस अहाते में एक अपना कोना चुनकर चुपचाप, अपने आप में खो कर वो सभी बातें लिखूंगी जो दिल के किसी पन्ने में ज़ब्त हैं। यू नो, सीक्रेट टाइप वाली डायरी लिखूंगी। मंदिर के पीछे फैले अथाह समुद्र को तकते हुए ये सब सोच कर मुस्कुरा ही रही थी कि धूप कब पीठ पर महसूस होने लगी, पता ही नहीं चला। सुबह के नौ बज चुके थे। अब सोमनाथ से विदा लेने का समय हो चला था। चलते समय उस शहर से वादा किया कि अगली बार तुम्हारे सोहबत में कुछ और ज़्यादा लम्हे गुज़ारेंगे। अभी चलना होगा। एक और अनजान देस का बुलावा है। एक नए मंज़र को थामे सांझ का सूरज हमारे इंतज़ार में है...ऐसा सोचते हुए हम सोमनाथ को सुबह के किनारे छोड़, दुपहरी की घड़ी में सवार सुन्दर सपनीले देस "दीव" चल निकले। चलने से पहले नाश्ते में पोहा, गठिया, भजिया और जलेबियां दबा के निकले थे जिससे अब ये कारवां दीव पहुँच के ही रुके।
सोमनाथ से दो-ढाई घंटे की दूरी पर बसे "दीव" की एक झलक पाने के लिए पूरे समय रास्तों के आर-पार मौसमी फलों के गझिन बगीचे, ताड़ के ऊँचे-लंबे पेड़ों से 'केम छो' कह के हाल चाल पूछते रहे। अक्सर मेरे इस अंदाज़ को समझने की कोशिश में लोग मुझे या तो पागल समझ ले रहे थे या तो दीवानी। बड़े हो जाने पर बचपना दिखाने को नादानी समझा जाता है। खैर, अपन को भी ग़म नहीं। उस वक़्त निदा साब का वो शेर याद हो आया,
"दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को, पढ़ा नदी को, मौसम को उस्ताद किया।"
मैं तो मस्ती के मूड में घुस चुकी थी इसलिये हर फूल, पत्ते, झरने, तालाबों से उनका हाल पूछ रही थी और उनके लिए कवितायेँ लिख रही थी। साथ में मेरे पार्टनर, हमारी मैजिकल यादों के लिए एल्बम बनाते चल रहे थे। मतलब कि फोटोग्राफी करते चल रहे थे। बीच बीच में कुछ फ्रेम मुझे भी मिल जा रहे थे तो मज़ा दुगुना हो जा रहा था। अब माइलस्टोन पर 'दीव' पंद्रह किलोमीटर देख दिल बाग़ बाग़ हो उठा। लेकिन यह क्या!! दीव से कुछ किलोमीटर दूर, सड़क के दोनों किनारों की ज़मीन दलदली, लिजलिजी, पनीली मिट्टी से सनी हुई दिखाई दे रही थी। आखों से ओझल जैसी दूरी पर समंदर दिखाई देना शुरू हो चुका था। ड्राईवर ने बताया कि यह फ्लड-जोन है। हाई-टाइड और बाढ़ के समय समंदर का पानी मिट्टी के पाटों तक घुस जाने से जमीन इतनी दलदली हो जाती है। अभी बात हो ही रही थी कि सामने एक सिंहद्वार दिखाई पड़ा जहाँ से गुजरात की सीमा ख़त्म हो रही थी और एक छोटी सी यूनियन टेरिटरी 'दमन एंड दीव' की सीमा प्रारम्भ हो चुकी थी।
तो लीजिये, अब हम एक सुन्दर सपनो के शहर "दीव" पहुँच चुके थे जो दुनिया की भाग-दौड़ से दूर , धूल-धुआँ जैसे प्रदुषणों से मुक्त था। जहाँ हर चीज़, सलीके से, अपने ठिकाने पर थीं। साफ़-सुथरी सड़कें, रंग-बिरंगे साइन बोर्ड्स और लैंप-पोस्ट्स, डिवाइडर्स पर अलग-अलग रंगों की बौगांबेलिया की सजी हुई क्यारियां, शहर की ख़ूबसूरती में चार-चाँद लगा रहे थे। सडकों के किनारे वाई शेप वाले दोमुंहे ताड़ के पेड़ों से पूरा दीव घिरा हुआ था। दो शाखाओं वाला ताड़ और जगह-जगह खिले फूल इस पूरे टापू को अनूठे रंगों और खुशबुओं से भर दे रहे थे। दीव को 'होम्का' ताड़ के रूप में प्रकृति ने एक अनूठी चीज दी है। ताड़ की यह इकलौती प्रजाति है जिसका पेड़ ऊपर जाकर किसी गुलेल-सा दो शाखाओं में बंट जाता है। किसी-किसी पेड़ में तीन शाखाएं भी उग आती हैं। होम्का ताड़ सिर्फ दीव में ही पाये जाते हैं। वो कहीं गझिन तो कहीं महीन होते जा रहे थे। जहाँ महीन थे, उनके बीच से दूर तक फैले सागर के किनारे हमें अपनी ओर खींच रहे थे।
साल का पहला दिन था इसलिए दूर से ही नागोआ बीच पर सैलानियों की मौज-मस्ती नज़र आ रही थी। नागोआ बीच, यहाँ के सभी समुद्र तटों में से सबसे सुन्दर तट है। हमारा आरामगाह, नागोआ बीच के सामने एक सुन्दर-सा रिसोर्ट बना। वहां से बीच कदमों की दूरी पर था। रिसोर्ट पहुँच कर कुछ देर आराम किया और उसके बाद नागोआ बीच पर मस्ती करने पहुँच गए। नए साल का जश्न मनाने,देश-भर के सैलानी वहां इकट्ठे हुए थे। सब अपने मस्ती में सराबोर थे। कोई पैरासेलिंग कर रहा है तो कोई वाटर सर्फिंग। कोई ऊंट की सवारी तो कोई जीप की। लेकिन हमने उस रोज़ बस लहरों पर थिरकने की सोची। समंदर की लहरों में अजब ही आकर्षण होता है, हर लहर अपनी ओर खिंचती है और हम उस लगाव से खींचे चले जाते हैं। लहरों की ताल पर ताथैया करने का अपना ही रोमांच है। दिन शाम के सिरहाने बैठ चुका था लेकिन अपना मन ही नहीं हो रहा था वापस लौटने को। फिर भी जब सूरज चाचू भी घर लौट गए तो हमने भी लौटने की सोची। बीच के किनारे बने चाय-स्नैक्स की गुमटियां पकौड़ों और कड़क चाय की खुशबु से सराबोर थी, सो गीले कपड़ों में ही चाय-पकौड़ों का लुत्फ़ उठाने बैठ गए। नया साल होने की वजह से दुकानों पर ग्राहकों के साथ साथ उनके नाते-रिश्तेदारों का भी आना-जाना लगा हुआ था। सभी औरतें पारंपरिक गुजराती परिधान में सजी संवरी हुई थी। बात करने पर पता चला कि वो सब काम की तलाश में जूनागढ़ के आस-पास के गाँव से दीव चली आई थी। वो यहाँ के रोजी-रोजगार से ज़्यादा खुश हैं और गाँव में परदेसी होने का ठाट है सो अलग। मगर गाँव छोड़ने का दुःख भी है उनके मन में, इसलिए त्योहारों पर वो एक दूसरे के घर जाकर मन आन-मान कर लेते हैं। खैर!! अब हमें अगले दिन की प्लानिंग करनी थी, और शाम भी ढल रही थी इसलिए रिसोर्ट लौटना उचित लगा। यह गुजरात की तरह नॉन-अल्कोहलिक जोन नहीं है इसलिए यहाँ बीचस् पर देर शाम तक घूमना ठीक नहीं। उससे अच्छा शाम को दीव के छोटे से बाजार निकल जाना, ज़्यादा बढ़िया आईडिया है। दीव के बाजार से लकड़ी के बने हुए छोटे-छोटे समुद्री जहाज की कलाकृतियां, सुगन्धित टेल्कम पाउडर, बीच-वेअर, और सीप के सजावटी झाड़फनूस खरीदना बिल्कुल ना भूलें।
अगली सुबह हम दीव के सबसे मनोहारी, शांत तट "घोघला बीच" पर गए। वहां सुनहरी रेत, नीला आकाश और मोतियों की चमक-सी लहरों से मिलकर खुद से पूछने का मन हो आया कि इसके सिवाय और कुछ चाहिए क्या। हम नंगे पैर घंटों उस सूरज की किरणों से नहायी हुई गीली रेत पर चहल-कदमी करते रहे। ऐसे सुकून के पल कहाँ हमेशा हासिल होते हैं। मैं चुपचाप, दोनों बाहें फैला कर समंदर से अपना पता पूछती रही, अपने होने को महसूस करती रही। प्रकृति की विशालता के आगे अपने बौनेपन को महसूस कर लजाती रही। "कभी कभी हम खुद को कितना बड़ा मान लेते हैं, गुरूर से भर उठते हैं लेकिन अगले ही पल अगर अपनी तुलना हम प्रकृति की महता से कर लें तो सारी उलझने ही दूर हो जाये", ऐसा कुछ मैं बीच के किनारे लगाये गए झूलों पर झूलते हुए सोचती रही।
उसके बाद अगला पड़ाव दिउ-फोर्ट था। अरब सागर की तरफ नज़र गड़ाये, चुपचाप से खड़े इस आलीशान क़िले का अपना अनोखा इतिहास है। पुर्तगाली क़िले वैसे भी अपने दुश्मनों के हमले के खिलाफ एक रणनीतिक सहूलियत के हिसाब से बनाये जाते थे। उसी तरह इसका निर्माण भी 1535 ईस्वी सदी में हुआ। किला अपनी दो खाई के साथ, तोपों की शानदार व्यूह रचना और लाइट-हाउस के लिए प्रसिद्ध है। शहरी जीवन की नीरसता से त्रस्त हम जैसों के लिए ये बहुत ही रोमांचकारी होने के साथ साथ रोमांसकारी जगह भी था। अपने बचपने के दिन जेहन में ताज़ा हो गए, जब छुपन-छुपाई का खेल हुआ करता था और हमें देर तक कोई ढूंढ नही पाता। जहाँ मैं अपने बचपने में खोयी हुई थी, वहीँ मेरे पार्टनर अरविन्द किले की भव्यता को हर एंगल से कैमरे में कैद कर रहे थे। घूमते घूमते काफी समय हो जाता है इसलिए किले में जाने से पहले धूप के चश्मे और पानी साथ में ज़रूर रखें। दोपहर के समय धूप में घूमते हुए सिर चकराने लगा था। क़िले के बाहर नींबू-पानी, शिकंजी वालों को देख कर कुछ राहत हुई।
दिउ-फोर्ट से ही कुछ दूरी पर भव्य सेंट-पॉल चर्च है जिसकी सफ़ेद मीनारें आसमान तक पहुँचने की लालसा रखती हैं। दीव के छोटे से एन्क्लेव में यह इबादतगाह, शांति और दिव्यता का प्रतीक है। इसके करीब ही 1598 ईस्वीं में बना सेंट-थॉमस चर्च, अब म्यूजियम में तब्दील हो चुका है। गोथिक स्टाइल में बना यह चर्च अब अपने देश में कुछ ही बचे हैं। इसके सफ़ेद मीनारों पर गुटरगूं करते कबूतर मानों इसकी ऐतिहासिकता का परिचय दे रहे हों। इसके आस-पास में रंग-बिरंगे पुर्तगाली घरों, साफ-सुथरी गलियों और घरों में रह रही उम्रदराज़ महिलाओं को देखकर लगता ही नहीं कि हम अभी इक्कीसवीं सदी में हैं। चप्पे चप्पे पर, चेहरे-मोहरे पर वही पुर्तगाली रुबाब देखते ही बनता है।
पश्चिमी तटों पर दिसंबर के दिन भले ही ना छोटे लगें लेकिन अब दिन डूबने को था। चाह कर भी जालंधर बीच पर जा ना सके। कहा जाता है, जालंधर नामक राक्षस का संहार, श्री कृष्णा द्वारा यहीं पर हुआ था। देखने को तो इसके बाद भी बहुत कुछ था दीव में लेकिन मेरे लिये उतना ही घूमना काफी होता है जिसके बाद ऊब ना पैदा हो और अगली सुबह तक वो उन्माद बाकी रहे। सो हम वापस लौट चले अपने रैन-बसेरे की तरफ। रात में जम कर अपने मन पसंद का डिनर किया, आफ्टर डिनर छोटा-सा वॉक लिया और फिर चादर तान के बेतहाशा सोये।
अगली सुबह फिर मॉर्निंग वॉक के लिए बीच पर निकल लिए। नंगे पैर थोड़ा चलते, थोड़ा सुस्ताते, गीत गुनगुनाते, लहरों को आते जाते देखते, जब वो वापस जाती तो हम उनके पीछे-पीछे भागते और जब वो हमारी ओर मुड़ती तो हम उनसे रेस लगाते, जिसमे हमेशा वही हमारे पैरों को गीला करके जीत जाती। फिर लौटकर चाय की दूकान पर दो-तीन प्याली चाय की चुस्की लगायी। कड़क तेज़ पत्ती की चाय ने हमें पूरे दिन के लिए तरोताज़ा कर दिया था।
दीव को अलविदा कहते हुए मैंने समन्दर के किनारे, अपनी और अरविन्द की सेल्फ़ी खिंची और फिर हम अपने अगले डेस्टिनेशन जूनागढ़ गिर नेशनल फारेस्ट की ओर चल निकले। तो फिर इस तरह रहा मेरे सपनो के शहर "दीव" का नज़ारा। चलते वक़्त एक ही ख्याल दिल पर काबिज है कि, "दीव" को जैसा मैंने देखा, जैसा मैंने पाया, ये उतना ही दिलकश और हसीन...हर उस घुमक्कड़ को लगे जो दिल की नज़र से दुनिया को देखता है।
✍Renu Mishra
{Poet/Writer/TravelBlogger}