चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला श्रृंखला के इस पोस्ट में आइए हम आपको चोपता से लेकर चंद्रशिला तक की यात्रा (नवम्बर 2017) करवाते हैं। रात के दो बज रहे थे और सभी साथी चोपता के एक बुगियाल में अपने अपने घोसले (टेंट) में नींद की आगोश में लिपटे हुए हसीन सपने में खोए हुए सो रहे थे। तभी अचानक से मोबाइल का अलार्म बजता है और किसी एक की नींद में खलल उत्पन्न होता है और वह नींद के थैले (स्लीपिंग बैग) के अंदर से ही उसी घोसले में अपने साथ सो रहे तीन और साथियों को हिला-डुला कर और कुछ आवाज़ लगाकर जगाता है। कुछ आँखें खुलती है तो कुछ बंद ही रहती है लेकिन जगाने वाला भी जिद में था कि जगा कर ही छोड़ना और आखिरकार सबको जगाकर ही वो रुकता है।
इसके बाद सिलसिला शुरू होता है दूसरे घोंसले में सो रहे पक्षियों को जगाने का। कुछ घोसेले से सोए हुए पक्षियों की मीठी आवाज़ें (खर्राटे की आवाज) आ रही थी तो कुछ घोसले में बिल्कुल ही खामोशी छाई हुई थी। शाम को जितने लोगों ने चंद्रशिला जाने के लिए हामी भरा था उन सबको एक-एक कर जगाने का दौर शुरू हो चुका था। धीरे धीरे करते हुए सबको जगा दिया जाता है। पर क्या कहें नींद माता की खुमारी सब पर ऐसे छाई हुई थी कि एक को जगाओ तो दूजा सो जाता है और यही हो रहा था कि एक को जगाते ही दूसरे नींद की शरण में चले जाते।
अंत में धमकियों का दौर आरंभ हुआ कि अब जो नहीं जागेगा उसके ऊपर ठंडे ठंडे पानी के छींटे मारे जाएँगे। अब एक तो शून्य का तापमान और उसके ऊपर से पानी के छींटे में कौन भीगना चाहेगा और सब जल्दी से जागकर तैयार भी हो गए। कुछ साथी तो तैयार होने के बाद भी मना कर दिए कि नहीं जाएँगे। उन मना करने वाले सदस्यों में प्रतीक गांधी 10 सीजीपीए अंक के साथ सबसे ऊपरी क्रम पर विराजमान थे। जिन लोगों ने मना किया उन सभी को छोड़कर कुल 13 लोग (संजय कौशिक, रितेश गुप्ता, संगीता बलोदी, चारु दूबे, मनोज धाड़से, आलोक जोशी, रोहित दुधवे, कपिल चौधरी, अनुराग चतुर्वेदी, नितिन शर्मा, अभ्यानन्द सिन्हा, बीरेंद्र कुमार और नरेंद्र चौहान) चोपता से तुंगनाथ की तरफ चले। योजना थी कि 9 बजे तक चंद्रशिला तक जाकर वापस चोपता वापस आ जाना है।
3 बज चुके थे। चारों तरफ घुप्प अंधेरा फैला हुआ था, कहीं से किसी झींगुर के बोलने तक भी आवाज़ नहीं आ रही थी। हर तरफ सब कुछ बिल्कुल नीरवता धारण किए हुआ था। केवल हवा की सांय सांय करती आवाजें थी। ठंड से हाथ-पैर की उंगलियाँ भी काम नहीं कर रही थी। एक तो दुमास और उसके ऊपर से खरमास भी आ जाए तो सोचिए कैसा लगेगा ठीक उसी तरह एक तो कड़ाके की ठंड और उसके ऊपर से तीर चुभाती ठंडी हवा जान लेने पर आतुर थी। ठंड का आलम ये था कि इंसान तो क्या खुद जो चंदा मामा जो शाम से आधा दिख रहे थे वो भी बादलों का कम्बल ओढ़कर तकिया लगाकर सो गए।
कदम कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा की तर्ज पर हम सब भी कदम कदम बढ़ाते हुए तुंगनाथ की तरफ चलते चले जा रहे थे। यहाँ एक बार पहले भी आ चुके थे इसलिए रास्ते की कठिनाइयाँ का आभास तो पहले से था ही। यहाँ पर हम लोगों के सोने पर सुहागा का जो अर्थ निकलता है उसके विपरीत अर्थ के वाक्य हम लोगों के लिए फिट बैठ रहे थे। कड़ाके की ठंड, घना अंधेरा, तीर की तरह चुभती सर्द हवाएँ, कठिन रास्ता और उसके ऊपर से एक दिन पहले सनियारा की थका देने वाली चढ़ाई उतराई की थकान ने इस सफर को बहुत ही मुश्किल बना दिया था। फिर भी सारी मुश्किलों को पार करते हुए हम लोग अंधेरा रहते ही तुंगनाथ मंदिर तक पहुँच गए थे।
यहाँ आकर संगीता दीदी, अनुराग और चारु दुबे ने हाथ खड़े कर दिए कि अब यहाँ से आगे नहीं हम नहीं जा पाएँगे तो उन लोगों के साथ संजय कौशिक जी और रितेश गुप्ता जी भी वहीं तुंगनाथ पर ही रुक गए। 13 में से पाँच लोग इसी स्टेशन पर विश्राम करने लगे और बाकी 8 लोग चंद्रशिला की तरफ बढ़ गए। अभी भी अंधेरा हम लोगों के साथ ही चल रहा था। चोपता से जो उसने हम लोगों को पकड़ा वो अभी तक साथ नहीं छोड़ा था। हमने कई बार सोचा कि इस अंधेरे को यहीं छोड़कर जाएँ पर वो मानने के लिए तैयार नहीं था, हर बार एक ही जवाब देता कि अगर हमने साथ छोड़ दिया तो जो आप लोग चंद्रशिला पर जो देखने जा रहे हो वो नहीं मिलेगा, इसलिए मैं वहीं जाकर तुम्हारा साथ छोड़ूँगा।
तुंगनाथ से चंद्रशिला के रास्ते में हम सबने अभी आधी दूरी भी तय नहीं किया होगा कि एक साथी रोहित दुधवे ने और आगे जाने से मना कर दिया कि अब हमसे नहीं चला जाएगा और हम यहीं रुकेंगे या वापस तुंगनाथ मंदिर के पास जाकर आपका इंतज़ार करेंगे जहाँ पहले से ही पाँच लोग थे। रोहित जी के मना करने के बाद अब हम सात लोग थे जो चंद्रशिला तक जाने वाले थे और अंधेरा खत्म होने से पहले हम लोग चंद्रशिला तक पहुँच गए थे। हम लोगों के वहाँ पहुँचते ही अंधेरे ने भी हम लोगों का साथ छोड़ दिया। चोपता से लेकर तुंगनाथ और ऊपर चंद्रशिला तक रास्ते में जो नज़ारे मिलते हैं और वहाँ पहुँचकर जो दौलत हासिल होती है वो दुनिया के किसी खज़ाने में समाहित नहीं हो सकता। चाहे आप जिस मौसम में चले जाओ आप वहाँ जाकर दिल खोकर ही आओगे। वहाँ की लुटेरी हवा आपका दिल हर हाल में लूट लेगी।
पिछली बार जब यहाँ आए थे बरसात का मौसम था और बादल भैया और बरखा दीदी के डर के कारण सूरज बाबा अपने घर से बाहर नहीं निकले और हम बिना उनके दर्शन के ही वापस चले गए थे। लेकिन इस बार मौसम अलग था। चारों तरफ हिमालय की मनोहारी वादियाँ दिखाई दे रही थी। जिधर भी नज़र करते उधर बस पहाड़ और घाटियाँ ही थी। एक तरफ चौखम्भा भी सीना तान कर खड़ा था और हम लोगों के साथ साथ उसे भी सूरज बाबा का इंतज़ार था। कुछ ही मिनट पश्चिम दिशा में स्थित चौखम्भा के बदलते रंग को देखकर ये अहसास हो गया था कि पूरब से सूरज बाबा अपने रथ पर सवार होकर हमें दर्शन देने के लिए चल चुके हैं। अब तक जो चौखम्भा सफेद बर्फ से रुपहले रंग में चमक रहा था, सूरज की रोशनी पड़ते ही वो सुनहरे रंग में रंगने लगा था।
चौखम्भा को इस रूप में देखकर यही प्रतीत हो रहा था कि जैसे कोई बहुत बड़ा आईसक्रीम हो और किसी ने उसके ऊपर लाल सीरप या लाल-लाल चेरी के टुकड़े बिखरा दिया हो। इस समय हम सबका मन बिल्कुल आह्लादित था, जिधर भी हम नज़र घुमा रहे थे उधर बस रंग ही रंग दिखाई पड़ रहे थे। उसी दिन तुंगनाथ से चंद्रशिला तक हल्की बर्फबारी भी हुई थी, ओस भी जमे हुए थे और इन पर भी सूर्य की रोशनी पड़ रही थी। घास पर जमे हुए ओस पर जब सूरज की रोशनी पड़ रही थी तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हमारे स्वागत में किसी ने हर जगह सुनहरे मोती बिखरा दिए हों। कुछ ही समय में सूरज का सुनहरा प्रकाश दुधिया रोशनी में बदल गया और चौखम्भा फिर से सफेद हो गया और उधर पूरब दिशा से सूरज जी का रथ आगे बढ़ता हुआ चला आ रहा था। पहाड़ के एक कटे हुए हिस्से से सूरज बाबा धीरे धीरे दिखाई देने लगे थे और कुछ ही पलों में चाँदी सा चमकता हुए एक थाल हमारी आंखों के सामने आ चुका था।
सूरज की रोशनी पड़ते ही हरी वादियाँ खुशी से झूम उठी थी। दूर दूर तक जहाँ तक नज़र जा रही थी बस घाटियाँ ही घाटियाँ हमारा स्वागत कर रही थी। इन दृश्यों को देखकर पिछली बार इन दृश्यों से वंचित रहने का जो दुख था वो आज दूर हो चुका था। धीर धीरे सूरज बाबा ऊपर आते जा रहे थे और मौसम में जो ठंडक थी वो अब धीरे धीरे कम होने लगी थी और हम सब भी वहाँ से अब वापस तुंगनाथ की तरफ चल पड़े थे। चंद्रशिला से वापसी में फोटो वोटो के चक्कर में हम थोड़ा पीछे हो गए और हमारे साथी आगे बढ़ चुके थे। कभी हम आगे जा रहे साथियों को देखते तो कभी फोटो खींचते, कभी उन सुनहरे और मनोहारी वादियों को देखते तो कभी चंद्रशिला की तरफ देखते कि पता नहीं अब फिर कब आएँगे और इसी कशमकश में हमारा पैर रास्ते से हटकर घास पर पड़ गया और जमे हुए ओस के कारण जो पैर फिसला तो एक ही बार बिना कोई कदम बढ़ाए करीब 30 फीट नीचे घिसटते हुए चले आए। उस समय मेरे दाएं हाथ में लाल कैमरा और बाएँ हाथ में छोटा कैमरा था लेकिन दोनों कैमरों का कोई नुकसान नहीं पहुँचा पर जो हुआ वो भी कम नहीं था।
घिसटते हुए नीचे आने से बाएँ हाथ की कलाई में मुड़ गई था और मुँह में भी जोर-शोर से चोट लगी थी। घिसटने से पीठ में भी हलकी चोट लगी थी। गिरे गिरे नजर दौड़ाया तो देखा कि सभी साथी लगभग नीचे पहुँच चुके हैं मतलब कि हमें कोई उठाने नहीं आएगा। किसी तरह उठे और धीरे धीरे कदम बढ़ाकर उतरने लगे। कुछ कदम नीचे आते ही ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि कुछ छूट गया है। देखा तो सिर से टोपी और आँखों से चश्मा गायब था। नजरें ऊपर उठाकर देखा तो टोपी दूर खड़ा मुस्कुरा रहा था और चश्मा कराह रहा था। अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि फिर से सौ-डेढ़ सौ फीट ऊपर जाकर टोपी-चश्मा लाने जाएँ इसलिए उसे वहीं पड़ा रहने दिया और हम नीचे की तरफ चल दिए। मन तो कर रहा था कि सभी साथियों को जी भर कर गाली दूँ पर अगर गाली देता तो हिमालय की उस सुनसान वादियों में वो केवल हम ही सुन पाते और साथी तो सुनते ही नहीं इसलिए गाली देने का मन बदलकर तेज कदमों से चलते हुए हम भी उन लोगों के पास आए।
वापस तुंगनाथ पहुँचकर कुछ देर यहाँ बिताकर वापस चोपता की तरफ चल पड़े और संजय कौशिक जी ने वापस आने की जो समय सीमा तय किया था उससे दो मिनट पहले हम सब चोपता पहुँच गए थे। इन्हीं शब्दों के साथ चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला यज्ञ की एक और आहूति के साथ हम विदा लेते हैं।
हर हर महादेव।