"फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं।
वो बच्चे ट्रेन के नीचे जो झाड़ू लगाते हैं।
अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मशालें लेकर,
परिन्दों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं।।"
शेर मुनव्वर राना साहब का है। उन नस्लों की निशानी है इस शेर में, जिनका इस दुनिया में कोई नहीं होता। कैसे जीते हैं वो, कैसे रहते हैं, क्या खाते हैं और कहाँ सोते हैं, कोई नहीं जानता या शायद जानना नहीं चाहता। प्रेमचन्द की कहानियों में मिलते हैं वो कई बार, किसी नेता की वोट के लिए लपलपाती ज़बान में शायद, लेकिन वो भी इसी हिन्दुस्तान का हिस्सा हैं जिसके प्रोग्रेसिव होने की हिमायत हम दुनिया भर में करते आए हैं। आज उसी बिरादरी का एक लड़का अपना नाम कमा चुका है, नाम है अमीन शेख़। इस शख्स की कहानी मुंबई के रेलवे प्लैटफॉर्म से लेकर बार्सेलोना के सफर और उस सफर से आए बदलाव की है और ये कहानी आपका दिल जीत लेगी।
अमीन का हम ज़िक्र क्यों कर रहे हैं, नाम कमाने पर या फिर और कोई कारण भी है? अमीन उस जगह से आते हैं जहाँ करोड़ों सपने सजते हैं लेकिन सामाजिक और आर्थिक दबाव इतना ज़्यादा है कि शायद ही कोई सपना हकीक़त में तब्दील हो पाए।
अमीन एक कैफ़े चलाते हैं। नाम है बॉम्बे टू बार्सिलोना कैफे़। इसी कैफ़े में छिपी है अमीन की कहानी। चलिए शुरू करते हैं:
बचपन के दिनों को याद करते हुए अमीन अपनी क़िताब 'Bombay Mumbai Life is life I am because of you' में उतारते हैं वो क़िस्सा, जब 5 साल की उम्र में एक बच्चा अपने लिए रोटी की तलाश में दर दर घूम रहा होता है। खेलने, खाने और सो जाने वाली उम्र में वो बच्चा सारे काम कर रहा है जिससे उसका पेट भर सके। अख़बार बेचता है, मानसिक और शारीरिक प्रताड़नाएँ भी झेलता है।
'एक आज़ाद परिन्दा था मैं। चोरी करता, जूते पॉलिश करता, ट्रेनों में पत्थर लेकर गाता, कभी कभी ठीक न गा पाने के कारण पिटता भी। कई बार बेहद बेशर्म महसूस भी करता था अपने होने पर। इसके बावजूद, अन्ततः ख़ुश ही था मैं।', अमीन अपनी क़िताब में कहते हैं।
मुंबई की सड़कों पर सिमटता बचपन
अमीन का बचपन सड़कों की धूल फाँकते बीता है। जहाँ होने न होने का कोई मतलब नहीं होता। अभी तक नहीं पता कि बचपन में पेट कैसे भरते हैं। पाँच साल के बच्चे को ना ही कोई काम देता है, ना पैसे। बस लोग सहानुभूति देकर फ़ायदा उठाने की कोशिश करते हैं।
लगभग इसी उम्र में अमीन को मिलती हैं सिस्टर सेराफिन, जो फ़ादर प्लेसी के साथ स्नेहसदन नाम का अनाथालय सँभालती थीं। उन्होंने ही अमीन का दाख़िला स्कूल में कराया, रहने खाने कपड़े का इंतज़ाम किया। लेकिन स्कूल में भी प्रताड़न का दौर रुका नहीं। स्कूल के मास्टर अमीन से नौकरों सा सलूक करते, ये जानते हुए भी कि वो एक विद्यार्थी है।
अमीन की पढ़ाई महज़ सातवीं क्लास तक रही है। अभी तक उनके जीवन में ख़ास बदलाव नहींं आया था। भीख माँगने से थोड़ा प्रमोशन गैराज में गाड़ी साफ़ करने का हो गया था।
ज़िन्दगी बदलने की तरफ़ पहला कदम
अमीन की ज़िन्दगी बदलने का पहला कदम शुरू होता है यूस्टेस फ़र्नांडीस से, जिनकी पहचान आपके ज़हन में अमूल गर्ल को बनाने वाले शख़्स की रही है, जो स्नेहसदन के सहयोगियों में से एक थे। वो यहाँ से पासआउट होने वाले बच्चों को काम सिखाते थे। इनके साथ रहते हुए ही पहली बार अमीन इंग्लिश बोलना सीखते हैं।
बार्सिलोना जाने की ख़्वाहिश
क्रिसमस का दिन था, साल 2002, यूस्टेस के जान पहचान वालों में अमीन की भी शुमारी होने लगी थी। यूस्टेस से अमीन बार्सिलोना जाने की ख़्वाहिश रखते हैं और उनको मौक़ा मिल भी जाता है जब यूस्टेस उन्हें क्रिसमेस गिफ्ट के तौर पर बार्सिलोना की टिकट थमा देते हैं। यहाँ से क़िस्सा शुरू होता है अमीन के होने वाले सपने का।
बार्सिलोना पहली ऐसी जगह है जहाँ कोई भी बच्चा आपको सड़कों पर भीख़ माँगता नहीं दिखेगा।
कैसे आया कैफ़े खोलने का आइडिया
बार्सिलोना में ढेर सारे कैफ़े हैं जहाँ पर लोग पढ़ने आते हैं। ज्ञान पाना बहुत आसान है यहाँ। एक हाथ में कैफ़े की कॉफ़ी उठाई और दूसरे में क़िताब। अनपढ़ होना उस अंधे के जैसा है कि जिसके पास आँखें हैं।
यहीं पर पहली बार कैफ़े खोलने का आइडिया आता है अमीन के मन में, जो 2010 तक बस सपना ही रहता है।
और इसलिए लिख दी किताब
यूस्टेस की मृत्यु हो चुकी थी। फंंड करने वाला कोई नहीं था लेकिन बार्सिलोना में अमीन की दोस्ती हुई थी मार्टा मकेल से, जो उड़ीसा और नेपाल के अस्पतालों में मदद करती थीं।
उनको अस्पताल के लिए पैसों की ज़रूरत थी, जिसके लिए उन्होंने किताब लिखी। किताब की सेल से जो पैसा मिला, उन्होंने अस्पताल के लिए लगा दिया।
ये रास्ता अमीन को भी ख़ूब भाया। लेकिन बस पेन उठा के कोई भी किताब लिख दे तो हर कोई शशि थरूर ना बन जाए। यहाँ काम आते हैं पत्रकार दिलीप डिसूज़ा और विभा कामत, जिनकी मदद से अमीन 11 महीनों में अपनी किताब लिखने में कामयाब होते हैं।
अन्ततः 2012 में ये किताब बाज़ार में आई। आमीन ने खुद ही सड़कों पर जाकर उस किताब को बेता और जो पैसा मिला, सारा इस कैफ़े में लगा दिया गया।
बॉम्बे टू बार्सिलोना लाइब्रेरी कैफ़े
स्नेहसदन से बाहर निकलने वाला हर बच्चा पढ़ाई में अच्छा नहीं होता है। अमीन भी कुछ ख़ास नहीं थे। लेकिन अमीन को खाना बनाना आता था। स्नेहसदन के ऐसे ही कुछ लोग थे, जो चित्रकला का हुनर रखते थे, कुछ इलेक्ट्रिकल का काम देख सकते थे। बस, इनकी ही बदौलत वो काम शुरू हुआ जिसकी तमन्ना लेकर आमीन बार्सिलोना से आए थे।
अब तक इस किताब की 11,000 से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। और कैफ़े भी लोगों की नज़र में आ चुका है।
हालिया स्थिति
बॉम्बे टू बार्सिलोना लाइब्रेरी कैफ़े मुंबई में काफ़ी चर्चित रेस्तराँ है और अँधेरी पूर्व में है। हालांकि आमीन को कैफे को चलाए रखने के लिए अभी भी फंड्स की ज़रूरत है। इस लिंक पर आप लेटेस्ट जानकारी पा सकते हैं।
अगर आप सपने देख सकते हो तो उन्हें पूरा भी कर सकते हो।
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