दिल्ली के महरौली क्षेत्र में एक व्यस्त मार्किट की भीड़ के बीच, किन्नरों को समर्पित एक धार्मिक स्थल छिपा हुआ है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इसे हिज़ड़ों का खानकाह कहा जाता है, जिसका मतलब है ‘हिज़ड़ों का एक सूफी आश्रय’।
हिज़ड़ों का ख़ानक़ाह
एक साधारण-सा गेट इस खानकाह में आपका स्वागत करता है जिसके बाद आपको संगमरमर की बनी कुछ सीढ़ियों को पार करना होता है। सीढ़ियाँ एक आँगन तक जाती हैं, जहाँ सफ़ेद रंग की कब्र बनी हुई हैं जो 49 हिज़ड़ों के लिए बनाई गई हैं। कब्र के चारों ओर एक गहरी खामोशी और शांति महसूस होती है।
सभी कब्रें एक छोटी सी छत से जुड़ी हुई है। ये कब्र, हरे और सफेद चारखाने वाली एक संगमरमर की दीवार से जुड़ी हुई है, इसे देखकर ऐसा लगता है मानों से अपना सिर झुका रही हों। सभी मज़ारों में से, मुख्य मज़ार,जो कि एक कोने में स्थित है, हिज़ड़ों में सबसे बुज़ुर्ग, मियाँ साहिब की है। लोक-कथाओं के अनुसार, लोदी वंश के पसंदीदा सूफी संत कुतबुद्दीन बख्तियार काकी ने मियां साहिब को बहन की तरह माना था । यह स्थान मियाँ साहिब और किन्नर समुदाय के लिए उनकी तरफ से एक उपहार था।
कब्रिस्तान का निर्माण लोदी वंश के शासनकाल के दौरान किया गया था और बड़ा स्मारक मियाँ साहिब को सम्मानित करने के लिए बनाया गया था।
किन्नरों का घटता सम्मान
वर्तमान समय के विपरीत, हिजड़ों को पूरे इतिहास में एक उँचा सम्मान प्राप्त था। प्राचीन और पवित्र हिंदू ग्रंथ (रामायण और महाभारत) में भी उनके सम्मान का ज़िक्र है । मुग़ल साम्राज्य के दौरान भी हिज़ड़ों ने अदालतों में महत्वपूर्ण, प्रभावशाली पदों का कार्यभार संभाला था। लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान जो भेदभाव और अपमान उनके प्रति शुरू हुआ वह आज तक बरकरार है, जिसकी वजह से अक्सर इन लोगों को फटकार और हिंसा सहनी पड़ती है।
आज, तुर्कमान गेट के हिजड़ों को इस ख़ानक़ाह का अधिकार प्राप्त है। हालांकि, यहाँ पर कोई नया दफन नहीं हुआ है। वास्तव में, किन्नर समुदाय की मान्यताओं के अनुसार, केवल अपने ही समुदाय के लोगों को उनके अंतिम संस्कार की अनुमति दी जाती है।ज्यादातर यह आध्यात्मिक स्थल शांत और लगभग सुनसान होता है, लेकिन धार्मिक त्योहारों पर ख़ुशी मनाने, अपने मृतकों को श्रद्धांजलि देने और गरीबों में भोजन बाँटने के लिए किन्नर यहाँ इकट्ठा होते हैं।
देश की इस हेरिटेज साइट की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है जो इससे कहीं अधिक ध्यान और सम्मान की हकदार है।
यह कब्रिस्तान पर्यटकों के लिए खुला है। कोई भी व्यक्ति यहाँ आकर इस पूरे समुदाय को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकता है। जहाँ एक तरफ तो उनके आशीर्वाद को इतनी मान्यता दी जाती है वहीं दूसरी तरफ ये समुदाय समाज की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है।
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