अपने कैफे-रेस्टोरेंट के लिए दिल्ली भर में मशहूर हौज खास में हौज खास विलेज की ओर मुड़ने वाले रास्ते में श्री अरबिंदो मार्केट के निकट दो मध्यकालीन इमारतें हैं जिन्हें 'दादी-पोती के मकबरे के नाम से जाना जाता है। दिखने में खूबसूरत ये दोनों ही मकबरे दिल्ली प्रदेश के कई अन्य मकबरों की तरह ही गुमनामी के शिकार हैं और यहाँ किन्हें दफ़नाया गया है, ये भी पूर्णतया स्पष्ट नहीं।
मैं कहीं और, किसी दूसरी जगह की तलाश में निकला था और रास्ते में मुझे ये मकबरे दिख गए। परन्तु जिस बात ने मुझे इनके प्रति आकर्षित किया, वह था इनका नाम-'दादी-पोती का मकबरा।' मैं एक ही नजर में इतना तो समझ गया कि ये मकबरे किसी राजसी परिवार के सदस्यों के नहीं, बल्कि मध्यकाल में दिल्ली में रहने वाले किसी रईस के खानदान से सम्बंधित हैं, मगर इसके अंदर की कब्रें किनकी हैं, ये स्पष्ट नहीं था और बाहर पुरातात्विक विभाग का बोर्ड देखकर ये भी समझ आ गया कि उन्हें तो बिल्कुल भी जानकारी नहीं इसपर।
असल में इस जगह को लेकर कुछ दंत-कथाएँ हैं जिनमें से प्रमुख ये है, और जैसा नाम स स्पष्ट होता है, इस क्षेत्र में एक बूढ़ी महिला अपनी पोती के साथ आया करती थी और जब उनकी मृत्यु हुई, तो उन मकबरों को बनवाया गया था। एक अन्य कहानी ये है कि बड़ा वाला मकबरा (दादी का) किसी मालकिन का है, और छोटा वाला (पोती का) उसकी सहायिका का। एक बात जो मैंने गौर की, और जोकि बाकी मकबरों से बेहद अलग थी, वह थी पोती के मकबरे के ऊपर बनी लालटेननुमा आकृति, जोकि कुछ हद तक इसे राजपूताना कोण भी देने लगी। ऐसी कुछ और कथाएँ भी जरूर होंगी, मगर अंदर पत्थर के वे कब्र किनलोगों के हैं, ये तब भी स्पष्ट नहीं।
अब एक बात और, दादी-पोती के मकबरे में एक और विशेष बात ये थी कि छोटा वाला यानि पोती का मकबरा, दादी के मकबरे से पहले निर्मित हुआ था। रचना के हिसाब से भी दोनों अलग-अलग आकृति, वक्त और शासनकाल की हैं। एक ओर जहाँ पोती के मकबरे का निर्माण तुगलक काल में 1321 से लेकर 1414 ईसवीं के बीच हुआ, दादी के मकबरे को लोदी काल के दौरान 1451 से लेकर 1526 के बीच बनाया गया था। अगर आपको मकबरों व इतिहास की कुछ गहन जानकारी होगी, तो शायद आप ये अनुमान भी लगा सकते हैं कि इन मकबरों की प्रेरणा कहीं-न-कहीं बड़े खान के मकबरा व छोटे खान के मकबरे से ही ली गयी है।
हौज खास में एक ही इलाके में कई मकबरे हैं और उनमें दादी का मकबरा शायद सबसे बड़ा है। लोगों को इस जगह की जानकारी नहीं, मगर फिर भी वे अन्य जगहों की तरह यहाँ आगे दालान में पसरे हुए थे। दादी के मकबरे के अंदर छह कब्र हैं, जोकि किसी एक परिवार की हैं। लोदी काल की परम्परा के अनुसार आप उनपर कुरान की आयतें भी देख सकते हैं। सम्भव है कि जब आप यहाँ जाएँ तो कुछ लोग आपको कब्र के आसपास भी बेफिक्र सोते हुए मिल जायें। उन्हें परेशान न करें, चक्कर लगायें जगह की। छत पर जाने के लिए सीढ़ी भी है, जिनपर लगे तार व कुंडी देख ये समझ आ गया कि ऊपर जाने की मनाही है मगर मैं आदत से मजबूर होकर छत पर चला गया, और वहाँ से हौज खास का एक बेहतरीन नजारा देख आया। अगर आप भी वहाँ जाएँ, तो ऊपर छत पर जाने की कोशिश में तारों से सावधानी जरूर रखियेगा।
दिल्ली में मुझे एक बड़ी मजेदार बात ये लगती है कि जिन जगहों की कहानी लोगों को पता नहीं होती, उन्हें लेकर कोई न कोई डरावनी कहानी बना दी जाती है। इस जगह को लेकर भी शायद आपके सुनने में आये और मैं उन कहानियों को सुनाने में अपना और आपका वक्त जाया नहीं करूँगा क्योंकि सब बेरोजगारी से उपजी हैं। बेफिक्र होकर जाइये, अगर हौज खास किला जा रहे तो यहाँ भी हो आइये। दिन में तो खूबसूरत दिखता ही है ये, रात में भी रोशनी की अच्छी व्यवस्था के कारण इसकी जगमगाहट बढ़ जाती है। शहर को जानने, खोज करने का शौक यदि आपको भी है, तो हो आइये यहाँ, आपको अच्छा लगेगा...
कैसे जाएँ?- निकटतम मेट्रो स्टेशन हौज खास है।
समय:- सूर्योदय से सूर्यास्त।
प्रवेश शुल्क:- निःशुल्क।