My first date with river Tista

Tripoto
15th May 2022
Day 1

तीस्ता की अठखेलियों के साथ।  ( A date with river Tista)

गंगटोक और दार्जिलिंग की यात्रा अवसान पर थी।  सो लौटती बेर थी। जाते समय सिलीगुड़ी ,दार्जिलिंग , कलिम्पोंग और सिंगताम  होते हुए गंगटोक पहुँचा था लेकिन लौटती बेर गंगटोक से सीधा सिलीगुड़ी लौटना था। गंगटोक से सिलीगुड़ी आने के कई मोड हैं। टैक्सी नियमित अंतराल पर चलती रहती हैं।  इनके अलावा प्राइवेट बसेज भी हैं।  और इनके अतिरिक्त SNT( सिक्किम नेशनलायजड  ट्रांसपोर्ट ) की सरकारी बस भी सुबह 6 बजे से लेकर दिन के 3 बजे तक हर १ घंटे के अंतराल पर चलती रहती हैं। 
पसंद सबकी अलग -अलग होती हैं लेकिन मैंने SNT की बसों को तरजीह दिया।  किराया जहाँ टैक्सी से काफी कम था वहीँ स्पेस के लिहाज से भी टैक्सी काफी नैरो होती हैं।  एक टैक्सी में 10 लोगों को ले जाते हैं।  तिस पर भी यदि पिछली सीटें मिली तो काफी दिक्कतें महसूस होती हैं। इसलिए 23 जून की अहले सुबह ब्रश करके नाश्ता करने के बाद मैंने सुबह 9 बजे की बस से सिलीगुड़ी के लिए रवाना हो चूका था। बस में बैठते ही जहाँ गंगटोक और पिछली जगहों से जुडी यादें उमड़ने -घुमड़ने लगी वहीँ आगे के नए रास्ते जिसे आने समय में नहीं देख पाया था , उसके साथ रूबरू होने  का एक रोमांच भी मन में पैदा हो रहा था। 

बस अपने नियत समय पर गंगटोक से रवाना हो गयी। गंगटोक शहर से बाहर आने में यही कोई 20-25  मिनट लगे होंगे।  जैसे ही बाईपास से बस निकली और शहर की सीमा से बाहर हुई ,छोटे -बड़े मकानों की जगह रास्ते के दोनों तरफ हरे -भरे पेड़ लहराते नजर आने लगे। पेड़ों पर गर्द का नामोनिशान नहीं था।  गंगटोक में प्रतिदिन कमोबेश बारिश हो ही जाया करती हैं।  इसलिए वहाँ के लोगों की आदतों में छाता लेकर घर से बाहर निकलना भी शुमार है।  रंग -बिरंगे छाते।  बूढ़ों वाले बड़े -बड़े छाते।  कॉलेज गर्ल्स की रंग -बिरंगी फैंसी छतरियाँ। मैदानी हिस्सों में रोज की बारिश किचकिच पैदा कर देती हैं लेकिन पहाड़ों पर ऐसा बिलकुल नहीं होता।  भारी  बारिश के बाद भी 5 मिनट में सबकुछ साफ़।  बल्कि पहले से और अधिक सुन्दर।  पेड़- पौधे  जवाँ और सुन्दर दिखने लगते हैं जैसे अभी - अभी नहाकर सजधज कर मानों तैयार हुए हों। 

इन्हीं सजीले और मनोरम वादियों से गुजरते हुए जैसे ही हम 10 -15 किलोमीटर दूर सिंगताम के थोड़ा सा पहले  आये होंगे कि बस की खिड़की से नजर आयी खिलखिलाती हुई तीस्ता नदी।  जैसे मानों बोल रही हो कहाँ थे अब तक ? तुम्हारा ही तो इन्तजार कर रही थी मैं कब से। क्या शोखी , क्या अल्हड़पन ? वाह , अद्भुत। बहाव इतना तेज कि कोई भी ताकत उसे रोकना चाहे ,  वो  तो रुकने से रही। बिलकुल उस नवतरुणि की मानिंद जिसकी तरुणाई ने अभी -अभी प्रथम बसंत देखे हों।  ऐसी अवस्था जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं चल सकता , जो किसी के रोके नहीं रुक सकता।  जिसे सारी दुनिया को देख लेने , सारी बाधाओं को तोड़ डालने की जल्दी है। जिसे कोई यदि रोकना चाहे तो उसे अपने वेग में बहाकर वहाँ फेंक आएगी जहाँ कोई अतापता न चले। तीस्ता अपने पूरे वेग और तरुणाई से वैसे ही बह रही थी और हर आने -जाने वालों को अपनी शोखियों और अल्हड़पन से लुभा और ललचा रही थी। मैं भी तीस्ता के इस खिलंदड़पन की जद में आने से नहीं बच सका।

मुझे नहीं पता था कि तीस्ता के साथ मेरा यह सफर कहाँ तक चलने वाला है।  लेकिन इसकी परवाह किसे थी।  न मुझे ,न ही उस सौंदर्य की प्रतिमूर्ति तीस्ता को।  और परवाह हो भी तो क्यों ? प्रेम भला किसी भी बात की परवाह करा है आजतक ? प्रेम में लोग सोचते कहाँ हैं ? और सोचने लगे तो प्रेम कैसा ? वह तो प्रेम नहीं , वह तो व्यापार है जहाँ दोनों ही पक्ष व्यापारी हैं।  दोनों एक- दूसरे से उम्मीदे लगा रखे हैं।  तीस्ता से मुझे प्रेम हो गया था और मैं इस बात को जेहन में लाये बगैर  कि तीस्ता के सौंदर्य की उपासना कब तक कर सकूँगा और कब इससे वंचित होना पड़ेगा , उसकी अठखेलियों के साथ खुद भी खेलता जा रहा था। 

करीब डेढ़ घंटे बाद हम सिंगताम से निकलकर रांगपो आ चुके थे। मुझे उम्मीद थी कि बस कुछ मिनटों के लिए रुकेगी। लेकिन कंडक्टर ने रोकने से मना किया और साथ ही यह भी कहा कि हमलोग आधे घंटे बाद रुकेंगे जहाँ पर लोग खाना -पीना भी कर सकेंगे। तीस्ता की मौज बिना किसी रूकावट के जारी थी। बस में से भी उसकी कलकल -छलछल की आवाज साफ़ सुनाई दे रही थी। उसके आसपास से गुजरने वाले सभी उसके सौंदर्य को देख मदमस्त हो रहे थे।  रोमांच का अतिरेक ही तो था वह। क्या बच्चे , क्या तरुण और क्या बूढ़े।  कोई भी तीस्ता के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता था।  बूढ़े और प्रौढ़ जो अपनी युवावस्था को पीछे छोड़ आये थे और अब अपने जीवन के उत्तरार्ध में आ चुके थे और पहली बार तीस्ता के सौंदर्य का साक्षात्कार कर रहे थे , के मन में एक टीस पनप रहा होगा। तीस्ता का सौंदर्य एक तरफ उनको नाच उठने को उकसा रही होगी वहीँ शरीर की क्षमता और उम्र का लिहाज उन्हें ऐसा करने से रोकता है।  लेकिन इसमें तीस्ता का क्या कसूर ? मानो तीस्ता उन सभी से कह रही हो -  देर तो तुमने ही की।  मैं तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी।  तुम्ही जीवन की साँझ में आये। मैं चिरयौवना तीस्ता , सबको प्रेम किया , सबको अपना प्यार लुटाया , किसी के साथ भी पक्षपात नहीं किया।  और सच में , तीस्ता का प्यार किसी एक के लिए नहीं था भी नहीं।  उसने अपना प्यार अपने पास आने वाले हर आगंतुकों पर लुटाया।  जिसने भी उससे उसके स्नेह  और प्रेम का प्रतिदान माँगा , उसने किसी को भी निराश नहीं किया।  सबको अपने सौंदर्य से अभिभूत किया।  सबको स्नेह से पुष्पित किया। तीस्ता का प्रेम दो व्यक्तियों का प्रेम नहीं था।  यहाँ एकतरफ प्रकृति अंश , प्रकृति पुत्री चिरयौवना, अप्रतिम सुंदरी  तीस्ता थी तो दूसरी तरफ मानव संतति थीं  जिसे हमेशा सौंदर्य और स्नेह की तलाश रही थी।  तीस्ता अपनी अठखेलियों से , अपनी शोखियों से और अपने चांचल्य से सबको आह्लादित करती रही।

सफर के लगभग ढाई घंटे बीत चुके थे।  हम सिक्किम से कब का निकल चुके थे और बंगाल की सीमा में प्रवेश कर काफी दूर आ चुके थे।  बंगाल में एक जगह है चित्रे।  यहाँ से गंगटोक और कलिम्पोंग जाने के रस्ते अलग होते हैं।  वहाँ के लोगों ने चिरयौवना तीस्ता के नाम पर इस जगह का नाम ही तीस्ता रख दिया है।  तीस्ता अपनी मौज में बहती हुई चलती रहती है। उसकी मौज में कोई कमी नहीं , कोई रूकावट नहीं। लेकिन तीस्ता के व्यवहार में यहाँ आते -आते खासा बदलाव नजर आने लगता है। वह रांगपो वाला खिलंदड़पन और अल्हड़पन छोड़ सौंदर्य के दूसरे प्रतिमान ढूंढ लेती है। उसमें बहाव तो पूर्ववत है लेकिन वह उछल - कूद और शरारतों को त्याग कर ऐसा लगता है जैसे परिपक्वता का आवरण ओढ़ लिया हो।  पानी में गर्द भी नहीं दीखते।  साफ़ पानी और दोनों किनारों पर खड़े उसके सहचर और सहचरी विभिन्न प्रकार के पेड़ और लताएँ।  सबों ने मिलकर  तीस्ता को  मानों  दुल्हन की तरह सजा दिया हो।  तीस्ता ने अपनी गति , अपना उमंग तो वही रखा है लेकिन अब वह 15 साल की नवयौवना की तरह अल्हड सी नहीं रही। उसके प्रवाह में जहाँ मस्ती बरक़रार है वहीँ उसने थोड़ी सी गंभीरता भी अपना ली है। लेकिन मौज तो अब भी काट रही। ऐसा प्रतीत हो रहा कि उसे उसके सहचरियों ने श्रृंगार कर दुलहन की तरह सजा दिया हो और तीस्ता ने हलकी सी शर्म की परत भी अपने ऊपर चढ़ा ली हो। उसकी शरारतों और उसकी हया का यह अनोखा और विचित्र संगम , लताओं और झाड़ियों से सजे उसके गहने ने उसके सौंदर्य में मानो चार चाँद जड़ दिए हों। तीस्ता का यह रूप बड़ा लुभावना और विस्मित करने वाला है। 

तीस्ता को निहारते , उससे बतियाते हम अब काफी आगे आ चुके थे जहाँ एक जगह शिलापट्ट पर सहसा दीखा कि सिलीगुड़ी अब मात्र 22 किलोमीटर दूर ही रहा। रास्ते के दोनों तरफ जहाँ -तहाँ मानवीय बसावट भी मौजूद मिल जाती थी जिन्हे तीस्ता से हमसाया होने का सौभाग्य प्रतिदिन  प्रतिपल प्राप्त होता होगा। अधिकांश बस्तियाँ नेपालियों की ही थीं।  छोटे -छोटे बच्चे दिन दुनिया से बेखबर अपनी मस्ती की दुनिया में मस्तीखोर बने जा रहे थे। बस का ड्राइवर रांगपो के बाद से ही पुराने हिंदी रूमानी गीत बजाकर माहौल को और भी रूमानी बना रहा था।  तभी सहसा तीस्ता से हलकी सी शीतल हवा आकर गालों को चूमकर गुजर जाती है।  और मैं देखता रह जाता हूँ।  क्या इस दान का कोई प्रतिदान न होगा ?  तीस्ता एकतरफा अपने प्रेम का इजहार कर चली गयी।  पर मैं ? मुझे  उसने मौका तक नहीं दिया कुछ कहने का।  यह कैसी बेबसी थी मेरी।  कितना स्नेहिल स्पर्श था वह। कम से कम पूछ तो लेती कि उस स्पर्श ने कितना भिंगो दिया मुझे।  कहाँ तीस्ता की वे शरारतें जो किसी को अपने पास आने से डराती थीं और कहाँ यह मनमोहक रूप जहाँ उसकी धारा ने वेग बरक़रार रखते हुए गहराई का वरण किया है।  यह गहराई उसके तरुणाई से , उसके अल्हड़पन से उसके वय होने की विकास यात्रा तो नहीं ? एक पंद्रह साला अल्हड युवती से एक भरी गात वाली , अपने यौवन के शिखर को छूने वाली युवती में रूपांतरण तो नहीं ?

तीस्ता के बहाव के साथ बहता हुआ आखिर वहाँ आ पहुँचा जहाँ तीस्ता की धार खामोश थी।  अंदर से तो बह रही थी लेकिन ऊपर से देखने पर मानो  लग रहा था बहुत शांत हो , खामोश हो।  शायद उसे आभास हो चूका था।  अगले ही पल सेवोक (SEVOK ) आने वाला था। तीस्ता की ख़ामोशी मानो कह रही हो अब अलग होने का समय आ चूका है। अचानक देखा तीस्ता की धारा दूसरी दिशा की तरफ जा रही है और हमारी बस दूसरी दिशा में मुड़ रही है।  एकबारगी मुझे विश्वास नहीं हुआ कि तीस्ता के साथ का मेरा सफर यहीं रुकने वाला है।  लेकिन उसने शायद पहले ही इसे भाँप लिया था। 

बस के मुड़ने से पहले मैंने पीछे मुड़कर तीस्ता को बड़े गौर से निहारा। तीस्ता की ख़ामोशी और मेरे चेहरे पर उसका साथ छूट जाने की उदासी मानो आपस में बात कर रहे हों।

तीस्ता - जा रहे हो ?

मैं - हाँ  तीस्ता , जाना तो पड़ेगा।

तीस्ता - फिर आओगे ?

मैं - हे चिरयौवना , सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ,  मैं तुमसे क्या कहूं और तुम मुझसे क्या कहोगी।  तुम सब जानती हो।  जीवन के इस कर्मक्षेत्र में सबकी भूमिका तय है , स्क्रिप्ट लिखा जा चूका है।  हम सब सिर्फ उस स्क्रिप्ट के हिसाब से चले जा रहे हैं।  मुझे भी अपनी भूमिका के हिसाब से आगे बढ़ना होगा।  फिर आने का वादा तो नहीं कर सकता लेकिन मैं अपने जेहन में तुम्हारी शोखियों को , तुम्हारे अल्हड़पन को , तुम्हारी मनमोहक चंचलता को , तुम्हारे सोलहों श्रृंगार को , तुम्हारे अप्रतिम सौंदर्य को समेटे जा रहा हूँ जिसकी छाप अमिट रहेगी।  मैं तुम्हारे इस शास्वत सौंदर्य के सदियों -सदियों तक बरक़रार रहने की कामना करता रहूँगा ताकि आने  वाली हजारों -लाखों पीढ़ियों को अपने इस सौंदर्य और स्नेह से सिक्त करती रहो। 

अलविदा। 

लालबाबू ललित
27 /06 /2019

सिंगताम के नजदीक।

Photo of My first date with river Tista by Lal Babu Lalit

रांगपो, सिक्किम का प्रवेश द्वार।

Photo of My first date with river Tista by Lal Babu Lalit

तिस्ता बाजार के आसपास।

Photo of My first date with river Tista by Lal Babu Lalit

Further Reads