दिल्ली की अप्रैल मई की उस तपती गर्मी से मेरा भाग जाने का मन कर रहा था। तो कुछ अलहदा जगहों के बारे में पढ़ कर मैंने हिमाचल के एक छोटे से खूबसूरत गाँव नग्गर जाने का फैसला किया। नग्गर पहुँचने के लिए मनाली जाने वाली बस से जाना था और पतलीकूहल नाम के एक गाँव में उतरना था। लेकिन जब मैं बस का टिकट बुक करने गई तो पता चला मनाली जाने वाली किसी भी बस में सीट खाली ही नहीं है। फिर मैंने भुंतार तक की बस लेने का फैसला किया क्योंकि वहाँ से नग्गर के लिए लोकल बस जाती थी।
दो दिन बाद मैंने दिल्ली से भुंतार के लिए शाम की बस ली और अगली सुबह मैं भुंतार पहुँच गई। जैसे ही मैं भुंतार पहुँची मैंने देखा एक बस बिलकुल निकलने के लिए तैयार खड़ी थी।
मैंने बस के कंडक्टर से पूछा - ये बस नग्गर जाएगी?
कंडक्टर- (बड़ी ही बेरुखी से बोला) हाँ, जल्दी बैठो!
मैं फटाफट बस में चढ़ी और खिड़की वाली सीट पकड़ ली। बस चली और हिमाचल की खूबसूरती ने मेरी आँखों को अपनी ओर टिका लिया था। बस पता नहीं कितने गाँवों से गुज़री जिनके नाम मुझे किसी दूसरे प्लैनेट के लग रहे थे। एक घंटे बाद मेरे फोन का नेटवर्क मुझे टाटा बाय-बाय बोलने लगा।
मेरे बगल में बैठे लड़के से मैंने पूछा- नग्गर कितनी दूर होगा यहाँ से ? पर उसे भी उतना ही पता था जितना मुझे। कुछ देर बाद आखिरकार बस रुकी और बस में बैठे सब लोग उतर गए।
मैंने ड्राइवर से पूछा- नग्गर यहाँ से कितनी दूर है?
ड्राइवर ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने पता नहीं क्या पूछ लिया हो।
ड्राइवर: नग्गर????? ये बरशैणी है और इसके आगे बस नहीं जाएगी। आप गलत बस में बैठ गए होंगे।
उसकी बात सुनकर मुझे थोड़ा डर लगा और गुस्सा भी आया। अब भुंतार के लिए अगली बस मुझे पूरे डेढ़ घंटे बाद मिलनी थी। सबसे ज्यादा गुस्सा तो मुझे उस कडंक्टर पर आ रहा था और मेरे फोन पर जिसमें अभी भी नेटवर्क नहीं था। सिर्फ एक चीज़ जो मुझे शांत कर रही थी वो थे वहाँ के खूबसूरत नज़ारे। क्योंकि बस आने में अभी टाइम था इसलिए मैंने आसपास की जगहों को घूमना ही ठीक समझा।
पार्वती नदी के गुजरने की रूहानी सी आवाज को छोड़ दें तो पूरा बरशैणी बिलकुल शांत था। कुछ दूर चलने पर एक डैम को पार किया और उसके बाद मैंने ऊपर चढ़ना शुरू किया जहाँ से मैं पूरी घाटी देख सकती थी। मैंने अभी चढ़ना शुरू ही किया था कि मुझे एक अधेड़ उम्र की महिला मिली। उनके बाल भूरे थे और उनकी आंखे भी भूरी रंग की थी। मैं एक अनजान शख्स को अपनी पूरी दास्तां सुनाए जा रही थी।
उन्होंने मुझसे पूछा- क्या तुम भी कल्गा की तरफ जा रही हो?
कुछ देर बाद मुझे पता चला कि मैं उनके साथ एक ऐसे गाँव पहुँच गई थी जिसके बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था।
कुछ देर बाद उन्होंने मुझे बताया कि वो इजराइल से हैं और उनका नाम डेवराह है। तब तक हम कल्गा पहुँच चुके थे और मुझे डेवराह के साथ मजा आने लगा था। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रही थी मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं खुद को नग्गर ना जाकर यहीं कल्गा में डेवराह के साथ रहने के लिए मना रही हूँ। कुछ देर जोड़ घटा करने के बाद मैंने देखा कि कल्गा में रुकने से मेरा कोई नुकसान नहीं हो रहा है, क्योंकि नग्गर में मैंने होटल का एडवांस दिया नहीं था और मेरी वापसी की बस भी भुंतर से थी जहाँ मैं क्लगा से सीधे पहुँच सकती थी। मैंने फोन निकाला तो देखा कि थोड़ा नेटवर्क आ रहा है, मैंने फटाफट अपने होटल को फोन मिलाया और होटल के मालिक को पूरी कहानी सुना दी। खैर, वो मेरी बुकिंग कैंसल करने के लिए तुरंत मान गए। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं एक फेल्ड ट्रिप के लिए इतना कैसे खुश हो सकती हूँ।
डेवराह ने पहले से ही रूम बुक किया हुआ था तो हम सीधे ही वहाँ के लिए निकल पड़े। रास्ते में हमें बिलकुल शांत और सुंदर से घोड़े मिले। कुछ दूर चलने के बाद मैंने देखा कि काफी दूर से बड़े ही प्यारे से कुत्ते हमारा पीछा कर रहे थे। हम एक बड़े ही अनोखे से कैफे में जाकर रुके जहाँ हमारी मुलाकात क्लियोपैट्रा नाम की एक बहुत प्यारी सी बिल्ली से हुई। कुछ देर में हम एक बेहद खूबसूरत और आरामदायक जगह पहुँचे जो कि अगले दो दिन तक हमारा घर होने वाला था। पूरे दिन मैं और डेवराह अपनी अपनी जिंदगी, दुनिया और दोनों के बीच की छोटी बड़ी चीजों के बारे में बातें करते रहे।अगले दिन हमने एक जंगल में चढ़ाई की, आसपास के गाँव में घूमें और वहाँ के गाँव के लोगों से बात की। टाइम का पता भी नहीं चला और दिन ढलने को था,और हमसे कह रहा था कि अब घर लौटने का वक्त हो गया है।
कई महीने बीत गए कल्गा गए हुए लेकिन अब तक वो यादें बिलकुल ताजा हैं और मेरे दिलों दिमाग में बिलकुल टैटू की तरह छपी हुई हैं। कुछ दिन पहले ही मेरी डेवराह से बात हुई और अब मैं उससे मिलने के लिए इजराइल जाने की सोच रही हूँ।
आज जब मैं उस दिन को मुड़ कर देखती हूँ तो लगता है जिंदगी कितनी खूबसूरत हो सकती है और कई बार बेवकूफी भरे फैसले भी हमारी जिंदगी बदल देते हैं।
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