, पेंगोंग की दूरी यहाँ से करीब 135 किमी थी, और आज रात हमें वहीँ बिताना था। पेंगोंग के रास्ते फिर से एक बड़ा ऊँचा दर्रा आने वाला था जिसका नाम तो आपने सुना ही होगा- 28 जुलाई 2016: मिशन लद्दाख का सांतवा दिन। रेंचो स्कूल में लगभग एक घंटे रुकने के बाद सुबह दस बजे के करीब हम फिर से निकल पड़े पेंगोंग की ओर चांग ला।
हम चांगला के करीब तो आ रहे थे, लेकिन घाटियों में गिरे हुए एक-दो दुर्घटनाग्रस्त ट्रक के अवशेष दिखाई पड़ गए, जो आर्मी के थे। सचमुच इतने ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से अचानक हजार फीट गहरी खाई में गिर जाने से किसी भी गाड़ी के परखच्चे उड़ना निश्चित रूप से डरावना है। इधर भी झारखण्ड के बहुत सारे मजदूर सड़कों की मरम्मत करते दिख गए।
चांगला पहुँचने पर दूर से ही बर्फ से ढंकी एक चोटी दिख पड़ी। यहाँ कुछ छोटे-मोटे दुकान भी थे और आर्मी का कैंप भी। जमीन पर छोटे-छोटे बर्फ के टुकड़े जमे पड़े थे, और लद्दाख यात्रा में सबसे पहले यहीं बर्फ छूने को भी मिला। हवा चलने के कारण ठण्ड भी जबरदस्त लग रही थी, लेकिन फिर भी बर्फ की मात्रा उम्मीद से बहुत कम थी।
यहाँ एक गलती आपको बताता हूँ। सबसे ऊँचे कहे जाने वाले खार्दुन्गला की ऊंचाई लिखी होती है- 18380 फीट, चांगला की ऊंचाई लिखी गयी- 17688 फीट और इसे दुनिया का तीसरा सबसे ऊँचा दर्रा कहा गया, जबकि तंग्लन्गला की ऊंचाई 17582 फीट और इसे दूसरा सबसे ऊँचा दर्रा कहा गया। इन आंकड़ों के मुताबिक तो चांगला को दुसरे और तंग्लंगला को तीसरे स्थान पर होना चाहिए !
कहा जाता है की किसी चांगला बाबा के नाम पर ही इस दर्रे का नाम चांगला पड़ा है, जबकि स्थानीय घुमंतू जनजातियों को चांगपा कहा जाता है। लेह से पेंगोंग के रास्ते यही सबसे ऊँचा दर्रा है और इतनी ऊंचाई पर बीस-पच्चीस मिनट से अधिक देर तक रुकना भी सेहत के लिए ठीक नहीं, इसीलिए कुछ फोटो वगेरह खींच हम भी यहाँ से चलते बने।
चांगला से तीस किमी आगे डरबुक पर एक रास्ता बांये मुड़कर श्योक होते हुए नुब्रा घाटी की ओर चली जाती है, जबकि दायीं ओर की सड़क पेंगोंग। अगले दिन हमारा भी कार्यक्रम इसी रास्ते से नुब्रा जाने का था। डरबुक के बाद तांगसे में फिर से एक बौद्ध मठ तांगसे गुम्पा दिखाई पड़ा। इस गुम्पे के सामने ही मुख्य सड़क छोड़ कर बांयी ओर की पतली सड़क को पकड़ना होता है, जो पेंगोंग ले जाती है। डरबुक से तांगसे के बीच सड़क किनारे-किनारे एक से बढकर एक भौगोलिक दृश्य दिखाई दिए। एक नदी जो आधी सूखी सी लग रही थी, और उसपर भूरे रंग का कीचड़ सा तैर रहा था, बिलकुल क्रीम जैसा!
तांगसे के बाद का रास्ता तो बेहद उबाऊ रहा। पेंगोंग अब मुश्किल से तीस-पैंतीस किमी ही रहा होगा, फिर भी काफी दूर था। मन में यह डर भी था की कहीं पहुँचते-पहुँचते अँधेरा न हो जाय और पेंगोंग के आसमानी रंग की छटा से कहीं वंचित न हो जाँय! लेकिन अभी भी अँधेरा होने में काफी वक़्त था!
डेढ़-दो घंटे तक सड़क पर बिछे पत्थरों से संघर्ष करते हुए शाम के पांच बजे के करीब दूर से हमें जमीन पर कुछ नीला सा दिखाई पड़ा, कहीं आसमान ही धरती पे तो न उतर आया! ज्यों-ज्यों नजदीक आते गये, नीलेपन का आकर बढ़ता गया और यही था मेरे सपनों का पेंगोंग!
पेंगोंग पर शाम के पांच बजने वाले थे फिर भी धूप तेज थी। यहाँ थ्री इडियट्स के अंतिम दृश्यों की शूटिंग हुई थी, इसीलिए तब से पेंगोंग और भी अधिक विख्यात होता चला गया है। जितने भी दुकान यहाँ है सबके नाम इसी फिल्म के नाम पर रखे गये है- जैसे थ्री इडियट्स कैफ़े, थ्री इडियट्स कार्नर, थ्री इडियट्स पॉइंट, रेंचो कैफ़े आदि। एक और मजेदार चीज झील किनारे स्कूटी पर बैठी करीना कपूर का लगा पोस्टर भी है। आज के समय इस सुदूर जगह में भी खाने-पीने और रुकने की पूरी व्यवस्था है। लेकिन वहीँ दूसरी ओर अत्यधिक पर्यटकों के आने से नैसर्गिक सौंदर्य के नष्ट होने का भी भय है। झील के पास याक की सवारी करवाने वाले भी घूमते रहते हैं, पर सौ से दो सौ रूपये तक उनकी फीस होती है, तो मैंने नजरअंदाज कर दिया। मैंने यूट्यूब पर जमे हुए पेंगोंग का दृश्य देख रखा था, ऊंचाई भी 14000 फ़ीट की है, तो दिसंबर और जनवरी के महीनों में तो यह जम ही जाता है, जमी झील पर गाड़ियां भी दौड़ती हैं, पर उस वक़्त भी क्या लोग यहाँ आते होंगे? एक स्थानीय व्यक्ति से पूछने पर उसने बताया की उस वक़्त अधिकतर विदेशी ही आया करते है, और चांगला जैसे दर्रों को गाड़ियों के टायर में चैन बांधकर पार कर लेते है। वैसे चांगला में बर्फ का हमेशा होना भी जरुरी नहीं होता चाहे ठण्ड का मौसम ही क्यों न हो।
पेंगोंग एक खारे पानी का झील है और ऐसा होना अजीब है क्योंकि पहाड़ों पर पानी अक्सर मीठा ही होता है। झील का आधा हिस्सा भारत और आधा हिस्सा चीन में है। दोनों ओर से सफ़ेद चोटियों वालें भूरे पहाड़ों से घिरे इस झील की सुन्दरता का क्या कहना! मैंने आज तक इतनी सुन्दर जगह नहीं देखी! झील के किनारे तो बहुत से लोग फोटो लेने में व्यस्त थे, लेकिन मेरी इच्छा इसके ठन्डे पानी को चखने की भी थी, तो मैंने चख भी लिया, वास्तव में यह खारा ही था! पानी इतना स्वच्छ था की झील के तल पर मौजूद पत्थर बिलकुल साफ-साफ दिखाई पड़ रहे थे। झील के नीलेपन के कारण यह कह पाना मुश्किल था की कौन धरती है और कौन आकाश! बड़ी देर तक फोटोग्राफी का दौर चल पड़ा ! फिर कुछ देर बाद पास के ही थ्री इडियट्स वाले रेस्तरां में जी भर के खाना भी खा लिया जहाँ हर तरह के मेनू उपलब्ध थे, पर अधिकतर फ़ास्ट फ़ूड ही थे!
आज की रात हमें पेंगोंग किनारे ही टेंट में रुकना था लेकिन वो जगह थोड़ी दूरी पर है, और झील के किनारे-किनारे ही सड़क वहां तक जाती है। लेह में ही हमने कैंप ब्लू वाटर्स नामक टेंट की बुकिंग कर रखी थी। एक टेंट का किराया पंद्रह सौ रूपये था जिसमें तीन लोग आराम से सो सकते थे, साथ ही इसी पैकेज में डिनर और अगले दिन का सुबह का नाश्ता भी शामिल था। ये टेंट अटेच बाथरूम वाले होते हैं, इसलिए परेशानी नहीं होती। यहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं होता लेकिन सेटेलाइट फोन की व्यवस्था भी है पर कॉल चार्ज शायद दस रूपये मिनट है । इस टेलीफोन बूथ पर मुझे दो फ्रांस के घुमक्कड़ मिले। मैंने उनसे जब पूछा की यहाँ कैसा लग रहा है, तो बताया की ठंडी जगह तो हमारे देश में भी है, लेकिन यहाँ अत्यधिक ऊंचाई भी है, जिस कारण समस्या हो रही है।
टेंट में अपना-अपना सामान रखने के बाद हम बाहर आये, तब तक अँधेरा हो चुका था लगभग। कनकनी बढ़ने लगी और तेज हवाएं भी चलने लगी। पहाड़ों की सिर्फ चोटियों पर ही बर्फ दिख रहे थे। चौदह हजार फीट पर आज की रात काफी सर्द होने वाली थी। शाम होते ही हमें डिनर के लिए बुला लिया गया, और खाना भी उत्तर भारतीय, काफी स्वादिष्ट ही बना था। चाय की प्याली तो काफी बड़ी थी, लेकिन मीठी थी, वरना स्थानीय तो नमकीन चाय ही पीते हैं यहाँ!
डिनर के बाद रात के आठ बज रहे थे, और अब करने को भी कुछ ख़ास नहीं बचा था। किसी ने ऐसी ठण्ड के माहौल में बोनफायर का नाम लिया। पूछा तो पता चला की एक राउंड फायर जो घंटे भर चलेगी, की कीमत बारह सौ रूपये है, क्योकि वे काफी दूर नुब्रा घाटी से लकड़ी यहाँ तक लाते हैं, वैसे भी लद्दाख में किसी झाड़ी या पेड़ को काटने से पहले अनुमति लेनी पड़ती है। मोल-तोल कर हम आठ सौ में राजी हुए पर वे हजार से कम पर न माने। बोनफायर रद्द हो गया। इसी बिच मित्र कमल ने अचानक याद दिलाया की लद्दाख से रात में आसमान बिलकुल साफ़ दिखाई देता है क्योंकि यहाँ धूल और बादल बहुत कम होते हैं। नंगी आँखों से भी आकाशगंगा को साफ़-साफ़ देखा जा सकता था, लेकिन इस अनूठे दृश्य को कैमरे में कैद करने के लिए कमल ने काफी देर रात तक अपने डीएसएलआर कैमरे को फुल एक्सपोज़र में आसमान की ओर रखकर एक से एक फोटो लिया, पर दुर्भाग्य से आजतक वो फोटो मैंने उससे लिए ही नहीं हैं।
गैलेक्सी देखने के बाद सब अपने-अपने टेंटों में दुबक गए, और टेंट का चैन बंद कर दिया। जब हवा चलती तब टेंट भी अन्दर तक हिलती, पर ये सब यहाँ के लिए आम बात थी। ठण्ड काफी थी, नींद भी मुश्किल से आ रही थी, ऊपर से एक साथी के खर्राटे ने तो हाल बेहाल ही कर रखा था। इसी बीच न जाने आँखें कब भारी हुई और जब नींद खुली तो सुबह के आठ बजे रहे थे। ओह! सूर्योदय भी देखना था, पर इस ठण्ड में भला उठता कौन! अपना-अपना सामान समेटकर सभी नाश्ते के लिए चले गये, नहाना तो असंभव था, आज यहाँ से एक और दौड़ नुब्रा घाटी के लिए लगानी थी।
पेंगोंग का सफ़र एक नजर में-
टेंट
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