बाबा हरभजनसिंह मन्दिर के प्रांगण में दाखिल होते समय ड्राइवर महोदय के बताने पर कि मन्दिर आ गया। मैं विचारशुन्यता और अचंभित करने वाले हाई वोल्टेज अध्यात्मिक अवस्था से बाहर आया। यह सुखद एहसास शाम तक पूरे यात्रा में खुमारी बनकर छाई रही। मुझे बाबा हरभजनसिंह मन्दिर के बारे में ज़रा भी भान नहीं था कि यहाँ क्या है, ना ही मैंने कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश की थी। बाबा मन्दिर सुनकर लगा था कि भोलेनाथ का मन्दिर होगा , यहाँ के लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है, इसकी जानकारी होटल मैनेजेर और रास्ते में ड्राईवर से मिल चुकी थी।
गाड़ी से बाहर आकर मैंने आसपास का मुआयना किया, पार्किंग में 250-300 गाड़ियाँ का सैलाब देख दंग रह गया। इतनी ऊँचाई पर भी इतनी भीड़, बिल्कुल मेला लगा था। मौसम का मिजाज़ पकड़ में ही नहीं आ रहा था, कहीं तेज़ धूप, कहीं उमड़ते-घुमड़ते बादलों का समुन्दर जैसे बस जल कुंभ उड़ेलने को बेकरार हों । अगला पल कैसा होगा ये अंदाज़ा ही नहीं लग पा रहा था। ठंड तो ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी, वैसे हमने मोटे-मोटे जैकेट भी तो पहन ही रखे थे, पर हमने एक घंटे पहले तापमान चेक किया था जो 1° डिग्री सेल्सियस बता रहा था। हम आगे बढ़ने के पहले मौसम का अंदाज़ा लगा लेना चाहते थे, क्योंकि बच्चों को इतनी ठंड में किसी भी हालत में गीला करने के मूड में नहीं थे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ से थोड़ी दुर ऊँचाई पर एक झरना मूसलाधार अनवरत गिर रहा था और साथ में भोलेनाथ की एक विशाल प्रतिमा भी दिख रही थी, जिससे मेरे अंदाजे को बल मिला कि यहाँ भोलेनाथ का मन्दिर है। क्योंकि हम लोग बाबा साधारणतया भोलेबाबा को ही पुकारते हैं।
चारों बच्चे सो रहे थे , सबको जगाया गया, पर मेरे छोटे राजकुमार जगने को तैयार ही नहीं थे। आखिर हमने उसे ड्राइवर के भरोसे गाड़ी में ही छोड़, इस यात्रा के अन्य तीन छोटे सहयात्रियों के साथ चल पड़े। पार्किंग में लगे बोर्ड पर दी गई जानकारी को पढ़कर मुझे वहाँ के बारे में थोड़ी जानकारी मिली, जो मेरी सोच से अलग और हैरान करने वाली थी। अब ऐसी क्या सूचना थी ये आपको आगे बताऊँगा ।
कल-कल करता निर्मल पावन जल , जैसे संगीत के साथ अलमस्ती में बेपरवाह बहता जा रहा था और जीवन का मूलमंत्र "जीवन चलने का नाम" देता जा रहा था। शान्ति और आनन्द जैसे प्रत्येक रोमकूप में समां कर काया और मन को प्रफुल्लित कर चैतन्यता की अवस्था में ले जा रहे थे। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे आनन्दमय कोष जागृत हो गया हो। आनन्द की जिस अवस्था को मैंने यहाँ चलते-फिरते महसूस किया, उस आनन्दमय अवस्था को पाने और महसूस के लिए अठारह सालों से ध्यान और मन्त्रों का जाप कर रहा हूँ, पर सफलता कोसों दूर खड़ी है जैसे।
वैसे तो हम सबने बूट पहन रखा था , पर पानी में पैर लटका कर बैठने के कारण पैर बिल्कुल सुन्न हुआ जा रहा है। थोड़ी देर वैसे ही बैठे रहे , फोटो लिए , अपनी भी फोटो खिंचवाई। लोग आते-जाते हमें पानी में पत्थरों पर बैठ अटखेलियाँ करते देखते-घूरते आगे बढ़ रहे थे। एक्का-दुक्का को हमारे पागलपन का तरीका पसंद आया तो वो भी पानी में कूद पड़े , फोटो ली और चले गये। काले उमड़ते-घुमड़ते बादलों ने मौसम का मिजाज डरावना बना दिया , चारों ओर अंधेरा छाने लगा तो हम भी तेजी से पहाड़ी की ओर आगे बढ़ने लगे। जैसे ही हम पहाड़ी के निकट पहुँचे , यहाँ से हमें ऊपर की ओर चढ़ाई करना था। बारिश की बूंदें गिरने लगी, पहले तो लगा बारिश नहीं होगी, हम झरने के पास बैठ मज़े करने लगे। थोड़ी देर में बारिश की बूंदें तेज गिरने लगी, आसपास कुछ छुपकर बचने लायक स्थान दिखाई नहीं दे रहा था। आखिर में हमने वापस होने का फैसला किया और तेजी से पार्किंग की ओर भागे।
तेज़ कदमों से भागते टैक्सी स्टैंड पहुँचे, बारिश थम चुकी थी। अब सबको वापस लौटने का मलाल होने लगा। छोटे बेटे को देखा वो अब भी सो ही रहा था। उसे जागकर हम टैक्सी स्टैंड के पास ही लोगों की भीड़ देख उधर चल पड़े। असल में मैंने आपको अब तक यह नहीं बताया कि स्टैंड में लगे बोर्ड में क्या जानकारी देखी थी , जो मेरी सोच और बाबा मंदिर के बारे में खींचे गए खाके से बिलकुल मेल नहीं खा रही थी।
13000 फीट की ऊँचाई पर बाबा हरभजनसिंह मन्दिर नम्नांग चाऊ झरने के तलहटी में स्थित बैठे हुए शिवजी की यह बैठी मूर्ति विश्व की सबसे ऊँचाई पर स्थित शिवजी की मूर्ति है। भगवान शिवजी की यह मूर्ति 12 फीट ऊँची है और उच्च स्तर के फाइबर ग्लास से निर्मित है, यह ऋषिकेश की भगवान शिव की मूर्ति की प्रतिकृति हैं। यह पुरा प्रोजेक्ट आर्मी के 18 JAK RIF द्वारा प्लान और निर्माण किया गया और इसका रख-रखाव पूरी तरह से आर्मी द्वारा ही किया जाता है। यह यहाँ से 500 मीटर की दूरी पर स्थित है और यहाँ पहुँचने में 12 मिनट का समय लगता है।
मन्दिर के सामने सुन्दर कैफेटेरिया बना था, थोड़ा पेट पूजा करने के विचार से आगे बढ़ा ही था की श्रीमतिजी को चक्कर आने लगी और गिरते-गिरते बची और कैफेटेरिया के पास ही चबूतरे पर निढाल हो बैठ गई। ये लक्षण High Altitude Sickness के थे, जिसकी वजह से वो ठीक से साँस नहीं ले पा रही थी। चुकी 14000 फीट की ऊँचाई पर चढ़ाई करने का हमें कोई अनुभव नहीं था, तो हमारे पास ऐसी मुश्किलों का सामना करने के लिए कोई दवाई भी उपलब्ध नहीं थी। सहारा देकर कैफेटेरिया में ले जाकर एक खाली सोफे पर बिठाया, वो ठीक से सांस नहीं ले पा रही थी। अब ऐसी परिस्थिति में अपने सुझबुझ से ही काम लेना पड़ेगा। जहाँ तक मुझे समझ आ रहा था, अपना दिमाग लगाया और सबसे पहले थोड़ा पानी पिलाया और दार्जिलिंग से गंगटोक आते वक्त रास्ते में जो चॉकलेट की खरीदारी की थी, वो हम रास्ते में समय-समय पर खाते रहे थे , उसमें से एक चॉकलेट श्रीमतिजी को खाने को दिया। श्रीमतिजी के चॉकलेट खाने के बाद लंबी-लंबी सांसे लेने को बोल, एक-दो हाजमोला की गोली भी मुहँ में रखने को दे दिया। अब फिर से पानी मांग रही थी, हमारा पानी का स्टॉक समाप्त हो चुका था।
वहाँ काउन्टर पर भी पानी की बोतल समाप्त हो चुकी थी, सिर्फ टमाटर का सूप, चाय, बिस्किट और केक बचा था। काउन्टर पर भीड़ कम ही थी, तो मैं वहाँ काउन्टर पर बैठे सैनिक भाई से बाबा मन्दिर के बारे में बातचीत करने लगा। यह सबसे बढ़िया माध्यम होता है कहीं भी जानकारी जमा करने का, इस युक्ति से जमा किये गए जानकारी गूगल बाबा को भी मत दे देते हैं कई बार। इस जगह के बारे में कई चौकाने वाली जानकारी के साथ, मैंने तीन बड़ों और दो बच्चों के लिए सूप, केक और चाय (चाय दो मात्र) ली, क्योंकि बाकी लोग पेट पूजा कर निकाल चुके थी। गरमा-गरम सूप लेने के बाद श्रीमतिजी कुछ बेहतर महसूस कर रही थी, पर लगातार पानी की मांग कर रही थी। पानी शायद ही गाड़ी में भी हो। खैर, थोड़ी देर में बेहतर महसूस करने लगी और हम फिर से बाहर की ओर निकलने वाले थे कि मेरी नजर वहाँ पड़े टेबल पर गई, जिसे लोगों ने डस्टबिन बना दिया था।
"Mind Your Own Business Please.
I'm not bothering what you are doing, then why you are?"
अब तो महारानी विक्टोरिया की ऑंखें लाल पीली हो गई, अजीब सा मुहँ बन गया। और अगले ही क्षण सूप के कप और और बिस्किट के रेपर मुझे दिखाते हुए वापस उसी टेबल पर बड़े स्टाइल से दे मारा। मैं समझ गया किसी पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्रांत और बिगडैल गधों से पला पड़ा है। वैसे भी मेरा भेजा कुछ जल्दी गरम हो जाता है, तो मैं बात को आगे न बढ़ाते हुए, बड़े रोब से उठा और उनके जैसे लोगों द्वारा किए गए करतूतों से टेबल की जो हालत हुई थी की फोटो ली और चुपचाप वहाँ से निकाल गया। ऐसे लोगों को समझाना शायद ब्रह्मा के बस के भी बाहर है।
दिमाग गुस्से से भनभना रहा था, मन तो किया कि वापस जाकर दो-चार उल्टे-सीधे पंच दे मारूँ। पर अपनी यात्रा को लड़ाई-झगड़े की बली नहीं चढाना चाहता था। मन मार कर गाड़ी की आगे बढ़ गया, अब हमें वापस जाना था। बाकी लोग पहले ही गाड़ी में बैठे मेरा इंतजार कर रहे थे। अब आप कहेंगे मैंने सैनिक भाई से कैफेटेरिया के काउंटर पर जो चौकाने वाली जानकारी जमा की, वो नहीं बताया। तो बात ये है कि यह यात्रा वर्णन लंबी हो चुकी है और उस जानकारी को मैं चंद शव्दों में समेट कर नाइंसाफी नहीं करना चाहता। तो बाबा मन्दिर की आश्चर्यजनक और चौकाने वाली जानकारी अगले पोस्ट में लेकर आपके सामने पेश होता हूँ।