#रहस्यमय_झील_की_यात्रा #भाग_संख्या_1 कहने को तो उत्तराखड देवभूमि है कण कण मैं शंकर की अवधारणा यहाँ

Tripoto
14th Oct 2020
Day 1

#रहस्यमय_झील_की_यात्रा
#भाग_संख्या_1

कहने को तो उत्तराखड देवभूमि है कण कण मैं शंकर की अवधारणा यहाँ जन मानस के तन मन मे है इस पवित्र धरती के कोने कोने मैं पवित्र मंदिरों की घंटियां बजती है हर पहाड़ की पगडंडी स्वर्ग के रास्ते ले जाती है हर बहने वाली नदी पवित्र गंगा के समतुल्य है । 6 मास के ग्रीष्म काल मे विभिन्न तीर्थ यात्राओं के दौर शुरू हो जाते है चार धाम के दर्शन के लिए श्रद्धालु निकल पड़ते है और वादियां लोगो की चहल पहल से गुलजार हो उठती है वैसे ही देवभूमि मैं होने वाली हर यात्रा पवित्र और दुर्लभ है परंतु कुछ यात्राएं ऐसी भी है जो बेहद दुर्गम होने के साथ साथ दुर्लभ भी है ऐसी ही एक यात्रा है #नंदादेवी_राजजात_यात्रा जो बेहद कठिन होने के साथ ही बेहद कम लोगो को सुलभ है । ऐसी यात्रा जिसका योग 12 साल मैं एक बार आता है और ये यात्रा बेहद पवित्र होने के साथ साथ भावुक कर देने वाली है । माँ नंदा की ये यात्रा को कैलाश मैं जा के संपन्न होती है । तीन सप्ताह मैं 280 किलोमीटर की दुर्गम और खतरनाक पदयात्रा करके विश्व विख्यात रूपकुंड और मौत की घाटी को पार कर के होमकुंड पर समाप्त होने वाली ये यात्रा जितनी रोमांचक है उतनी ही संवेदनशील है जितना इसमे भय है उतनी की उत्सुकता।जिन महानुभाव की वजह से  इस महान यात्रा की विवेचना पूर्ण पोस्ट लिखने का जो मुझे सौभाग्य मिला है उन pramod babele जी को मेरा नमन है जिनकी वजह से मैं एक दुर्लभ यात्रा के बारे मे इतनी गहनता से जान सका। श्री नंदा देवी राजजात यात्रा 2000 के जो विवरण मुझे एक दुर्लभ किताब से प्राप्त हुए उसके लेखक स्वर्गीय श्री बद्रीप्रसाद जी अब इस दुनिया मे नही रहे है लेकिन उनकी पुस्तक जिसमे उनकी यात्रा के बेहद हैरान करने वाले विवरण है उसको अपने शब्दों मैं बयान करने का मौका मुझे मिला है। ये सीरीज कुछ भागों मैं विभक्त होगी जो प्रतिदिन पोस्ट करी जाएगी आपका प्यार मिलता रहे बस यही कामना है । आप सब को इस पवित्र यात्रा से परिचित कराना ही मेरा मकसद है । कल से प्रतिदिन एक भाग मैं नियमित रूप से पोस्ट करता रहूंगा। हर हर महादेव
#रहस्यमय_झील_की_यात्रा
#भाग_संख्या_2

माननीय बी पी पुरोहित जी ग्वालियर मैं मशहूर आर्थोपेडिक सर्जन थे । घुमकडी उनके खून मैं थी। घुमकड़ी और साहसिक घुमकड़ी मैं बहुत फर्क होता है । आज के वक़्त मैं लोग बेशक पर्यटन और घुमकड़ी मैं फर्क न समझे परंतु घुमकड़ी पर्यटन बिल्कुल भी न है । पुरोहित जी ने जब इस प्रमुख श्री नंदा राज जात यात्रा के बारे मे सुना था तब से ही जाने क्यो उन्होंने इस यात्रा को करने का मन बना लिया था इसके लिए उनका ये तर्क बहुत प्रभावी था कि ये यात्रा 12 वर्ष मैं एक बार होती है अगर इस वर्ष वो चूक गए तो अगली यात्रा के लिए 12 वर्ष का इंतजार बहुत कालजयी समय है शायद शरीर साथ न दे या प्रभु आपको ये मौका ही न दे । कुल मिला के ये यात्रा को करने का मौका वो हाथ से जाने न देना चाहते थे। किसी भी यात्रा को करने के लिए सबसे पहले सहयात्रियों की तलाश करनी थी। ये यात्रा बेहद खास और दुर्लभ थी अतः उनकी तलाश पूर्व सैनिक राधा किशन जी और रामावतार शर्मा जी पर खत्म हुई। तो तय ये हुआ कि 21 दिवसीय राजजात यात्रा मैं से 9 दिन की वो यात्रा का भाग किया जाएगा जो पैदल तय किया जाना है । कुछ महीनों की तैयारी के बाद पथिक निकल पड़े थे इन महान यात्रा के प्रस्तावित समय पर ।
    ये यात्रा संसार की कठिन तम और साहसिक यात्रा है। इसे लघु पर्वतारोहण कहा जा सकता है ये यात्रा अधिकतम 19000 फुट की ऊँचाई तक जा कर 13500 फुट पर होमकुंड मैं समाप्त होती है। नंदा देवी राजजात यात्रा का इतिहास बहुत पुराना है कम से कम ये यात्रा 1200 पहले से होने के तो प्रमाण उपलब्ध है अन्यथा ये यात्रा आदिकाल से ही चली जा रही है । नंदा देवी को पहाड़ मैं पुत्री का स्थान प्राप्त है । किवदंती है कि एक बार नंदादेवी 12 वर्ष तक मायके मैं रही थी फिर जब वो कैलाश पति के पास वापस लौट रही थी तब इस यात्रा का प्रतिपादन हुआ। नम आंखों और भावुक गांव वालों ने आंसुओ से अपनी पुत्री नंदा देवी को विदा किया । तो कह सकते ये यात्रा आस्था से ज्यादा रीति रिवाजों से ज्यादा जुड़ी है जिनसे हर पहाड़ का व्यक्ति अपने मन मानस से जुड़ा हुआ है। इस यात्रा मैं देवी की डोली के साथ ही 200 अन्य देवी देवताओं के चिन्ह व छतऔलिया शामिल होती है । इस यात्रा का मुख्य आकर्षण है काले रंग का 4 सींग का मेड़ा जो 12 वर्ष के अंतराल पर इस इलाके मे कही जन्म लेता है और पूरी यात्रा मैं सबसे आगे चले हुई पूरी यात्रा का पथ प्रदर्शक होता है । और अंत मे होमकुंड पर यात्रा के समापन पर इस मेढे के अकेले कैलाश यात्रा पर निकलना सच मे लोगो को भावुक कर देता है इस मेढे पर माँ नंदा के प्रतीक सजे होते है । लिखित इतिहास के अनुसार भी 7 वी सदी मैं ये यात्रा चल रही है। 14 वी शताब्दी मैं इस यात्रा के साथ हुई एक दुर्घटना का जिक्र भी आता है । यशोधवल नामक राजा की राजजात यात्रा के दौरान हुई रूपकुंड दुर्घटना आज भी दुनिया के चर्चित रहस्यों मैं जानी जाती है कहते है कन्नौज के राजा यशधवल ने गढ़वाल की राजकुमारी से विवाह किया था विवाह के अवसर पर भूल वश माँ नंदा देवी को याद न किया गया। जब कन्नोज राज मुसीबतों मैं घिर गया तो इस भूल के पश्चताप के तौर पर इस यात्रा को करने का निर्णय राजाजी ने बेमन से किया। ये यात्रा निश्चित समय पर शुरू हुई मगर रास्ते मे पवित्रता को भंग करते हुए यात्रा मैं सुरा सुंदरी का उपभोग करते हुए कामुक नृत्य किये गए और जूते पहन कर पवित्र परंपराओं को तोड़ा गया जिसके फलस्वरूप नर्तकियों और साजिन्दों का एक दल पत्थर मैं परिवर्तन हो गया। उस जगह का नाम पथरणचौनिया पड़ गया। जब ये यात्रा और आगे बढ़ी तो रूप कुंड के पास ये भारी हिमपात का शिकार हो गई ये पूरा दल जिसमे हजारों लोग थे इस भु स्खलन का शिकार हो गए।  आज भी ये कंकाल इस पूरे रूपकुंड मैं बिखरे हुए है जो इस जगह का मुख्य आकर्षण भी है । बहुत से ट्रैकर इस स्थान का अवलोकन करते है जहाँ 14 वी शताव्दी के हजारों कंकाल जिसमे महिलाये बच्चे सभी शामिल है आज भी अपनी अंतिम क्रिया की प्रतीक्षा कर रहे है। इन कंकालों को ले कर मत तो अनेक है पर अधिकतम संभावना और विश्वास यही प्रचलित है कि ये यशधवल का ही दल था जो यहाँ अकाल मौत पा कर खत्म हो गया। यहाँ बड़े आकार के जूते आभूषण और अधिक ऊंचाई के कंकाल पाए जाते है एक तरह देखा जाए तो ये मौत का कुंड है जिसे देख कर कोई भी सिहर उठता है लेकिन ये यात्रा रूप कुंड को पार कर के त्रिशूल पर्वत की तलहटी मैं  स्थित ज्युरंगली दर्रा को पार करके मौत की गली नाम की जगह से गुजरती हुई होम कुंड पहुचती है और जहाँ से सुतौल होती गई वापस प्रारंभिक स्थल पर खत्म होती है......
   लेखक ने इस रास्ते पर क्या अनुभवों को जिया क्या मंजर देखा और कैसे मौत की गली को पार किया जानना उत्सुकता को बढ़ाता है क्या ये यात्रा उतनी आसान रही । क्या सब कुछ वैसा ही था जैसा सोचा था या मंजर भयानक था । मौत से सामना होने जैसे अनुभवो से सजी इस कहानी के अगले भाग को ले कर जल्दी आपसे मिलूंगा
     आपका विकाश सुभाष हिंदुस्तानी
जल्द ही मिलते है भाग संख्या 3 मे...
#रहस्यमय_झील_की_यात्रा
#भाग_संख्या_3

हम सब अपनी जिंदगी मैं बहुत से शौक रखते है किसी को अच्छा खाना पीना पसंद है किसी को मॉर्डन लाइफ स्टायल या किसी को घुमकडी पसंद है । ये जो घुमकड़ी पसंद लोग होते है ये जरा अलग होते है ये जब भी वक़्त मिलता है अगली घुमकड़ी के बारे मे सोचने लगते है अक्सर इसमे उनकी जैसी सोच रखने वाले मित्रो का भी हाथ होता है ।
    पुरोहित जी के एक मित्र थे प्रमोद बबेले जी जो अक्सर उन्हें घुमकड़ी के कीड़े से कटवाया करते थे । पुरोहित जी को इस यात्रा पर भेजने मैं Pramod Babele जी का बड़ा योगदान था इस यात्रा मैं वे स्वयं भी शामिल थे पर कुछ फासले से इसकी वजह संचार सुविधाओं की वजह से सामंजस्य न बैठ पाना था।
      खैर कहानी पर लौटते है 21 दिवसीय इस यात्रा का 9 दिवसीय पैदल यात्रा मार्ग था जिसे पुरोहित जी ने करने का फैसला किया इसके लिए बाड़ ग्राम से शामिल होना था। जब लेखक वहा पर पहुचे पूरे गांव मै उत्सव का माहौल था शाम हो चुकी थी पुरोहित जी को उसी कोठरी मैं रात्रि गुजारने की जगह मिली जिसमे माँ नंदा की डोली रखी हुई थी । ये गांव नंदा देवी राजजात यात्रा का आखिरी गांव है यहाँ लाटू देवता का मंदिर है जो नंदा देवी यात्रा के प्रमुख समझे जाते है ये मंदिर बेहद प्राचीन है जो देवदारों से घिरा हुआ है एक किवदंती के अनुसार जब राजजात यात्रा बाड़ गांव पहुचती है उस दिन गांव के किसी घर मे ताला न लगाया जाता है सभी ग्राम वासी आपने घरों को साफ सुथरा करते है और घरों मैं खान पान की इंतजाम कर के गौशाला मैं चले जाते है ये खुले घर यात्रियों की आश्रय स्थल होते है कोई भी कही भी रुक सकता है और व्यवस्थाओं का उपभोग कर सकता है कह सकते है मेहमान को पता न होता कि मेजवान कौन है इस तरह का अतिथि सत्कार शायद ही कही आपने सुना हो । लोग महीनों से इसकी तैयारी करते है अपने घरों को सजाते है और यात्रियों के लिए व्यवस्थाएं बनाते है। और यात्रा के आने पर घरों को खुला छोड़ जाते है घरों मैं खाने पीने की व्यवस्थाएं रहती है। मैं विस्मृति हूं ये जानकर इतना सुंदर है मेरा देश और इसकी पुरातन संस्कृति जिसका लोग आज भी पालन कर रहे है। राजजात यात्रा का अंतिम ग्राम होने के कारण इस गांव के  लोग एक बड़ी ज़िमेदारी का पालन करते है उन्हें यहाँ से 120 किलोमीटर लंबी यात्रा   नंगे पैर डोली उठाकर करनी होती है । ये महत्वपूर्ण भूमिका इसी गांव के लोगो को निभानी होती है। जिस रास्ते मे रूपकुंड जुरंगली धार मौत की घाटी शिला समुंदर ग्लेसियर और पथरण चौनिया जैसे कठिन पड़ाव हो उस रास्ते पर नंगे पांव सफर की बात सुनकर ही हौसले का भजिया बन जाता है खैर सारी रात भजन चलते रहे सुबह हुई तो लेखक जब बाहर निकले तो देखा रिमझिम वर्षा शुरू हो चुकी थी सामने से चले आ रहे चौसिंगा खाडू के दर्शन हुए सभी ग्रामीण उदास लग रहे थे । विदाई का वक्त आ गया था जब पुत्री की डोली उठती है तो कठोर से कठोर व्यक्ति भी आंसुओ मैं भर उठता है विदाई की घड़ी आ चुकी थी माँ नंदा बस विदा की तैयारी मैं थी पूरा गांव गमगीन था भींगी आंखों से ग्रामीणों ने अपनी पुत्री को विदा करने की तैयारी शुरू की। इस पोस्ट को लिखते वक्त भी मैं विकास स्वयं को वही पा रहा हु उसी गांव मे शायद इस पोस्ट के साथ मैं भी मानसिक यात्रा के लिए निकल पड़ा हूं मैं भी अपनी आंखों मैं नम महसूस कर रहा हूं।....😢
        चौसिंगा खाडू को सुंदर तरीके से सजाया गया था उसके चारों सींग अलग और स्पस्ट प्रतीत हो रहे थे उस 14 माह के नंदा वाहन पथ प्रदर्शक की अगुवाई मैं डोली चल पड़ी थी सबसे आगे चौसिंगा खाडू फिर लाटू देवता फिर नंदा देवी की डोली फिर अनगिनत डोलिया जो पहाड़ो के बहुत से देवताओं का निशान लिए चल रही थी । इस गांव मे आस पास के करीब 200 देवताओं का मिलन होता है
जैसे जैसे काफिला आगे बढ़ रहा था भीड़ कम हो रही थी लोग विदाई दी कर पीछे रह गए थे लेकिन अब  भी कुछ हजार लोग इस यात्रा मैं चल रहे थे। गांव से बाहर निकलते ही लंबे लंबे पेड़ दिखने शुरू हो चुके थे । अब चढ़ाई शुरू हो गई थी इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बाड़ गांव 7000 फ़ीट से 10 किलोमीटर चल के गैरोली पाताल 12500 फुट पर है फिर 3 किलोमीटर चल कर वेदिनी बुग्याल 13200 फ़ीट पर है ।
     3 किलोमीटर चलने के बाद किरडी धार नाम की जगह आती है यहाँ नंदा देवी ने महाकाली रूप मे एक दैत्य का संहार किया था जिसमे लाटू देव ने उनकी मदद की थी जिसके फलस्वरूप उन्हें नंदा देवी राजजात का प्रमुख होने का वरदान मिला धार से गुजरने के बाद फिसलन भारी उतार के बाद यात्रा कैलगंगा के किनारे पहुची जंन श्रुति के अनुसार नदी का बहाब   कितना भी तेज हो लाटू देवता के निशान के रूप मे कपड़े के थान को नदी मैं डाल दिया जाता है जिसका सहारा ले कर लोग नदी को पार करते है मान्यता अनुसार निशान डालने से बहाब धीमा हो जाता है लेखक ने भी इस नदी को पार करते हुए नंदा माता को धयान किया और सकुशल इस तेज नदी को पार कर लिया अब चढ़ाई आरंभ हो रही थी तेज चढ़ाई। जंगल घना होता जा रहा था दिन मैं अंधेरा प्रतीत होता था कुछ वक्त मैं एक संकुचित सी जगह आई ये गैरोली पाताल था । वेदिनी बुग्याल से कुछ पहले ये जगह माँ नन्दा का 13 वा पड़ाव था । लोग जहाँ तहां बिखर गए । यहाँ किसी प्रकार की कोई व्यवस्था नही थी। प्राणवायु अब कम हो चली थी । थकान बेतहाशा थी सब रुकने की व्यवस्था बनाने मे जुट गए थे। लेकिन लेखक के दिमाग मे कुछ और ही चल रहा था........💐💐💐💐💐
     उम्मीद है अब तक का सफर आपको अच्छा लगा होगा आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। जल्द ही चौथे भाग मैं मुलाकात होगी जिनमे आगे की रोमांचक यात्रा का किस्सा होगा । क्या सब कुछ सही चल रहा था । क्या ये यात्रा सकुशल होने वाली थी क्या इतनी दुर्गम यात्रा आसान थी या बस प्रतीत हो रही थी । क्या है मौत के दर्रे का रहस्य क्या रूप कुंड के कंकालों की भी इस यात्रा मैं सहभागिता थी। सब समय के गर्भ मैं था ।
                 क्रमशः
आपकी प्रतिक्रिया के इंतजार मैं आपका विकाश सुभाष हिंदुस्तानी

#रहस्यमय_झील_की_यात्रा

#भाग_संख्या_4

सामान्य जीवन मे हम सब यात्री ही है जीवन का सफर तो अनवरत चल ही रहा है लेकिन वास्तिवक जीवन मे भी हम निरंतर यात्रारत रहते है जीवन पालन की यात्रा जो पेट की आग बुझाने से लेकर विलासिताओं के सामान इक्कठे करने मे निरंतर चलती ही रहती है। हम् सब उस सफर के साक्षी भी है और यात्री भी।
     कुछ वक्त पहले मैंने श्री नंदा देवी राजजात यात्रा का वृतांत लिखना शुरू किया था जो 3 भाग लिखने के बाद मुझे कुछ वक्त के लिए रोकना पड़ा असल मैं व्यापारिक व्यस्तताओं के कारण मुझे कुछ लिखने पढ़ने का मौका ही न मिल पाया था। बहुत मित्रो ने मुझे मेसेज किये और उस यात्रा को लिखने के लिए दोबारा कहा जिसे मैं अधूरा छोड़ चुका था आप सब की  प्रेम स्वरूप आज इस यात्रा का अगला भाग....
       गैरोली पाताल मैं आज इस पवित्र यात्रा का तेरहवाँ पड़ाव था ये 13000 फ़ीट की ऊँचाई पर बाड़ गांव से लगभग 10 किलोमीटर दूर एक संकुचित सी जगह थी यहाँ ऑक्सीजन की कमी थी और स्थानाभाव था। इस स्थान को ही पड़ाव क्यो चुना गया इसको लेकर पुरोहित जी विस्मय मैं थे । पुरोहित जी ने यहां रुकना उचित न समझा और अपना पड़ाव यहाँ से 7 किलोमीटर दूर वेदिनी बुग्याल मैं डालने का फैसला किया वो निरंतर चलते रहे और संघर्ष करते हुए जा पहुचे 13200 फुट की ऊँचाई पर स्थित एक विस्तृत कई किलोमीटर लंबे चौड़े एक हरे भरे घास के मैदान मे जिसके मध्य दिख रहा था एक स्वछ जल का तालाब जिस का रूप इस प्रकार था मानो स्वर्ग से उतरने वाले देवो और अप्सराओं की क्रीड़ा का ये स्थल हो । सूर्य की किरणें जल मैं लाखो मोतियों माणिक होने का आभास दे रही थी फूलों की छटा और पर्वतों की छवि मनोहारी थी ये दृश्य जीवित ही स्वर्गारोहण का अहसास कराने वाला था । वेदिनी कुंड के मध्य स्थित इस झील को वेदिनी कुंड कहते है इस के नाम पर ही इस बुग्याल को  वेदिनी बुग्याल कहते है इस बुग्याल से ही सीमा आरंभ होती है औली बुग्याल की जो अपनी छटा फूलों बनस्पतियों के लिए विश्व मैं विख्यात है । औली की सीमा मैं ही पड़ती है वो प्रसिद्ध फूलों की घाटी जिसके आकर्षण मैं हजारों लोग हर साल इतनी दुश्वारियों को झेल कर पहुचते है ।
   टैंट लगाया जा चुका था भारवाहको ने चाय का इंतजाम कर दिया था। यहाँ ऑक्सीजन भरपूर मात्रा मे मिल रही थी । थके तन और मन अब निश्चित थे । कुछ वक्त मैं ही अंधेरा घिरने लगा था अब पहाड़ो की छवि दैत्याकार होने लगी थी कुछ ही वक़्त मैं अंधेरे की चादर ने पूरी घाटी को घेर लिया था । वहाँ कुछ टैंट और भी थे जिनसे निकलते मद्यम प्रकाश तारो जैसे टिमटिमा रहे । ऐसी रातों का बस हम और आप स्वर्गिक रात भी कह सकते है ।
   अष्टमी का अर्ध चंद्र और धवल प्रकाश अब आसमान मैं दिखाई पड़ने लगा था पूरी घाटी धवल प्रकाश मैं नहा उठी थी दूर नंदा देवी चोटी(25645 फ़ीट) और त्रिशूली (22320) दिखाई दे रही थी मानो स्वर्ग का रास्ता पृथ्वी से जुड़ गया हो दिल और दिमाग मदहोशी की अवस्था मे थे अर्ध मूर्च्छा मानो सवार हो चुकी थी चोटियों पर जमी बर्फ मानो चांदी से भी तेज धवल दिखाई देती थी । वक़्त ठहर चुका था टेंट मैं जलने वाले प्रकाश गैस के चूल्हे और रोशनियां चपल दामिनी का अहसास करा रही थी । सभी लोग मानो सामूहिक सम्मोहन की पराकाष्ठा से गुजर रहे थे। सर्दी बहुत तेजी से पैर पसार रही थी मौसम ठंडा और ठंडा होता जा रहा था । फिर सबने अपने टेंटो मैं जाने का निर्णय लिया ।अब सब थकान के चलते नींद के आगोश मैं गिर रहे थे मानो....
    सही मायनों मैं वेदिनी बुग्याल ही इस यात्रा का प्रथम चरण है । प्रतिवर्ष होने वाली नंदा जात यात्रा यही समाप्त होती है जबकि राज जात यात्रा का इसे एंट्री गेट भी कहा जा सकता है । वेदिनी से ऊपर की यात्रा 12 वर्ष बाद होती है जो राजजात यात्रा कहलाती है ।
     कुछ वक्त ही मैं ठंडी हवाएं चलने लगी थी प्रकर्ति की सुंदरता डरावनी हो चली थी हवाओ ने विचित्र डरावनी आवाजो को जन्म दे दिया था जो हमारे टैंट के अंदर मानो घुसने का प्रयास कर रही थी । बादलों ने घाटी पर डेरा डाल दिया पल भर मैं मानो मौसम बदल गया था । हिमांक से नीचे की ठंड बस जानलेवा हो चली थी। कुदरत बस इंद्रधनुष की तरह अपने समस्त रूपो को दिखाना चाहती थी । लेखक अंदर से भय भीत हो चले थे पर जल्द ही निद्रा देवी ने उन्हें अपनी गोद मे ले लिया था । अब बेहद स्वर्गिक नींद ने उन्हें अपने आश्रय मैं स्थान दिया था। बस सुबह होने ही वाली थी.....................💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐

उम्मीद है आपको कथानक पसंद आया होगा । उम्मीद करूँगा जल्द ही अगला भाग लेकर उपस्थित होउ। व्यस्तता बहुत ज्यादा है फिर भी प्रयास होगा कि कल फिर से भाग 5 को पोस्ट कर दू।
     आपका विकाश सुभाष हिंदुस्तानी
#रहस्यमय_झील_की_यात्रा

#भाग_संख्या_5

जोर से आती आवाजो ने अचानक ही पुरोहित जी को जगा दिया था ये उनके भारवाहक नारायण सिंह की आवाज थी जो गहरी नींद मैं सोए पुरोहित जी को जगाने का प्रयास कर रहा था । अब सब लोग टैंट से बाहर निकल आये थे सुबह का प्रभाष हर तरफ फैल रहा था जिस प्रकार पहाड़ मैं रात जल्दी हो जाती है उसी प्रकार सुबह भी जल्दी होती है रात का जो तिमिर था जो डरा रहा था गायब हो चुका था लेकिन सूर्यदेव अभी गायब ही थे पूर्व की निचली पहाड़ियों को छोड़ कर समस्त पर्वत रक्त वर्ण नजर आते थे मानो देव दानव युद्ध मे हर जगह रक्त फैला हो कुछ ही समय मैं दृश्य परिवर्तन हो चुका था कुछ स्वर्ण रंग की रेखाएं अच्चानक उभरी और समस्त शिखरों को स्वर्णमय कर दिया मानो रावण की स्वर्णमयी लंका यही हो परिदृश्य बदल रहा था पल पल अब शिखर रजत होने लगे घाटी बहुरंगी हो चली थी सूर्य अपने सातों घोड़ो पर सवार हो कर प्रकट हो चुके थे विभिन्न शिखर हीरो की तरह प्रकाश को परावर्तित कर रहे थे प्रकर्ति के इस खजाने को देख के हतप्रभ से खड़े थे ये जादू मानो टूटने का नाम ही नही ले रहा था जल्द ही होश को संभाल लिया गया और वेदिनी कुंड की हिमधारा मैं स्नान के लिए प्रस्थान किया गया। स्नान के उपरांत समस्त लोग वेदिनी कुंड के आसपास एकत्र होने लगे थे सब लोगो ने एक मानव सरंचना बनाई और सूत का धागा ले कर एक परिक्रमा की और मौन प्रार्थना की । इसके उपरांत अपने हाथों मैं आये सूत के धागे को तोड़ कर रख लिया गया। यह धार्मिक कार्य और मौन श्रद्धांजलि उन मृतक यात्रियों के लिए की जाती है जो पूर्व की यात्राओं मैं मृत्य को प्राप्त हो गए थे और जिन्हें विधिवत अंतिम क्रिया और तर्पण न मिल सका। मान्यता है वो सभी मृतक आत्माएं इस यात्रा मैं हमेशा रहती है और साथ साथ चलती है और अदृश्य रूप से इस यात्रा मैं सहायता करती है और स्वयं की इस यात्रा को पूर्ण करती है । ऐसी लोक मान्यता पर इस तरह के विश्वास की कहानियां होती है जो लोगो को भरोसा दिलाती है उनके धैर्य को मजबूत करती है पुरोहित जी के एक साथी का स्वास्थ्य यहाँ जबाब दे रहा था वो आगे जाने के स्थिति मे नही थे अतः 2 खच्चर पर लदे समान के साथ उनको एक भारवाहक की देख रेख मैं वापस लौट जाने को कह दिया गया। और अगली यात्रा की तैयारी शुरु की गई अगला पड़ाव था पातर नचौड़िया लेकिन लेखक ने अगले पड़ाव चुना बगुवाबासा जहाँ काफी खुला स्थान था । पातर नचौड़िया वही जगह है जहाँ कनोज के राजा ने नर्तकियों का कामुक नृत्य आयोजन किया था तो देवी के प्रकोप से वो सब पत्थर मैं तब्दील हो गए थे ये स्थान विरल है 1968 और 1987 की राज जात यात्रा मैं यहाँ बहुसंख्यक यात्रियों की तबियत बिगड़ गई और अधिकतर लोगों को वापस लौटना पड़ा था । बगुवाबासा जगह का नामकरण के पीछे किवदंती है कि देवी ने कैलाश यात्रा के दौरान अपने बाघ को यही छोड़ दिया था और सदाशिव भगवान के साथ आगे भ्रमण करने चली गई थी ये ऊची नीची पहाड़ियों के इलाके है पूरी भूमि दलदली है ऊपर ग्लेसियर से निरंतर जल धाराएं बहती रहती है । यहाँ से आधा किलोमीटर आगे एक bsf का कैम्प था जो यात्रा के दौरान मेडिकल चेकअप के लिए लगाया गया था । यहाँ गढ़वाल विश्विद्यालय का लगाया हुआ कैम्प भी था जो हर राज जात यात्रा के दौरान अपने शोधकर्ताओं का एक दल भेजता है ।अगला पड़ाव शिला समुंद था जैसा नाम से स्पस्ट है कि शिलाओं के बड़े इलाके को जिसमे छोटी बड़ी शिला का अंबार था। यहाँ से बल्लभा स्वेलदा गुफा होते हुए छिड़ी नाग का मार्ग आरंभ हो गया था । ये वो जगह थी जहाँ भगवान भोलेनाथ ने अपने नागों को छोड़ दिया था और इस इलाके की सुरक्षा का भार उन्हें दे दिया था ये किवदंती है या सच्चा किस्सा न कहा जा सकता है परंतु पतली फिसलन भरी और सर्पीली पगडण्डी से होता हुआ ये रास्ता ऐसा था मानो नागो की पीठ पर सवार हो कर रास्ता तय किया जा रहा हो। अब हम लोग बस चोटी पर पहुच ही चुके थे । शिखर से नीचे एक विस्तृत मैदान था पूरी घाटी मैं लकड़ियों के ढेर के समान कुछ नजर आता था । सब लोग ढलान पर तेजी से नीचे उतरने लगे थे बिखरी हुई लकड़ियों के ढेर रूप लेने लगे थे आकार स्पस्ट हो रहे थे । ohhhhhhhhh ये तो हड्डियों के ढेर थे । डर की पराकाष्ठ थी हर तरफ मानव कंकाल पूरी घाटी मैं हर तरफ ,ये कैसा मंजर था । मानव मशीनों का इतना विध्वंस ।पूरी घाटी को कंकालों की घाटी क्यो न कहे भला उनका अधिपत्य जो हर तरफ था पूरी एकाग्रता इस बात पर थी कही किसी मानव कंकाल पर हमारा पैर न पड़ जाए भय इतना ज्यादा था कि आपस की बात चीत बंद हो चुकी थी लोग खामोशी से चल रहे थे मानो शोर हुआ तो मुर्दे जी न उठे । भय की अतिश्योक्ति कह सकते है कि हर व्यक्ति अवाक था । विस्मृत और भयभीत था आखिर ये भी तो उसी यात्रा के सहभागी थे जिस पर हम चल पड़े थे और इनका अंजाम इतना दर्दनाक । हजारों की संख्या मे नर कंकाल और हड्डियां मौजूद थी । अच्चानक ही पैर के पास एक लंबी सी वस्तु दिखाई पड़ी क्या था ये कोई सर्प या जीवधारी ,पैर रूक गए सॉस थम गई थी शरीर मुर्ति बन चुका था मानो ...................आखिर क्या था वो
क्रमशः

दोस्तो उम्मीद है कि रहस्मयी झील की यात्रा आपको पसंद आ रही होगी । पिछले भागो को अपने पसंद किया तो फिर से लिखना शुरू कर दिया है । आपकी प्रतिक्रिया ही हमे लिखने के लिए प्रेरित करती है । आपके लाइक कंमेंट ही हमे इस कथानक को आगे बढ़ाने का हौसला प्रदान करते है उम्मीद है आप सबका प्यार मिलता रहेगा।
आपका विकाश सुभाष हिंदुस्तानी
जल्द मिलेंगे अगले भाग मैं
शायद कल....💐💐💐

फ़ोटो रुद्रनाथ का है और सांकेतिक है

#रहस्यमय_झील_की_यात्रा

#भाग_संख्या_6

मनुष्य जीवन यु तो कई पड़ावों से होता हुआ गुजरता है जन्म पालन मरण की अदभुत यात्राओं से गुजरता हुआ ये शरीर गति को प्राप्त होता है । लेकिन अंतिम संस्कार को भिन्न धर्मो मैं भी विशेष स्थान प्राप्त है हर धर्म यही व्याख्या करता है कि मानव शरीर का अंतिम संस्कार प्रथाओं के साथ करना आवश्यक है अन्यथा वो अपनी गति अर्थात समूल को प्राप्त न होता है......
     पुरोहित जी के सफर को अच्चानक विराम लग गया था पैर के पास कुछ ऐसा था जिसे देख के वो दहल गए थे। उनके पैर के पास एक पूरी भुजा का मानव कंकाल था जो वीभत्स चल चित्रों की तरह उनके पैर के इतने नजदीक था मानो उनके पैर को पकड़ने का प्रयास कर रहा हो। पूर्व मैं देखी गयी डरावनी फिल्मों जैसा वो दृश्य मशहूर हड्डियों के dr को भी दहला गया था । पुरोहित जी सोच मैं पड़े हुए सोच रहे थे क्या ये नर कंकाल पैर छू कर मुक्ति की याचना कर रहा है या स्वयँ को यात्रा मैं ले चलने का अनुरोध । आखिर ये भी एक यात्री था जिसने इसी राह मैं अपनी अंतिम यात्रा को अपूर्ण छोड़ दिया था। रूपकुंड के चारो और हड्डियों के ढेर लगे थे । बहुत से वैज्ञानिकों ने इन नरकंकालों को जांच के लिए शोध के लिए विदेशों मैं भेज दिया है ताकि कार्बन तकनीक से इनका असल समय जाना जा सके। किन भाग्य हीनो के थे ये नर कंकाल  जिनमे पुरुष स्त्रियों और बच्चो की बड़ी संख्या थी । जिन्हें अंतिम संस्कार का अथो भाग्य भी प्राप्त न हो सका था क्या इनकी अतृप्त आत्मा को गति प्राप्त हो सकी होगी। बहुत से सवाल अनुत्तरित रहने वाले थे । इस स्थान पर आकर वैराग्य की भावना घर करती है और दुनिया की मोह माया बस तुच्छ सी जान पड़ती है ।
   किवदंती है कि रूपकुंड का निर्माण भोलेनाथ ने अपने त्रिशूल से किया था विवाह के उपरांत जब कैलासपति देवी पार्वती के साथ कैलाश जा रहे थे तो देवी प्यास से आकुल हो उठी तो भगवान शंकर ने त्रिशूल से प्रहार कर के इस कुंड का निर्माण किया जब जल पीते वक़्त देवी पार्वती ने अंजुली मैं जल भरा तो अपना प्रतिबिंब भी देखा था देवी अपने सुंदर रूप को देख के अति प्रशन्नता मैं भर उठी थी और ये कुंड बाद मैं रूप कुंड के नाम से मशहूर हो गया था । कंकालों से पटी 16500 फ़ीट की ऊँचाई पर 40 फुट लंबी और 30 फुट चौड़ी ये कुंड पर बहुत कुछ दुनिया भर मैं लिखा गया है और ये आज भी शोध का विषय है । लेखक ने इस कुंड की परिक्रमा करने का निश्चय किया और परिक्रमा करने लगे । अच्चानक ही एक धड धारी कंकाल ने उन्हें आकर्षित किया लेखक उस कंकाल के नजदीक गए और उस कंकाल के हथेली पर अपनी हथेली को स्पर्श कर दिया । मन मे अनेक विचारों का तूफान से वो भय मैं भर उठे । उस कंकाल को आलिंगन करने के ख्याल से वो आगे बढे। फिर आसपास के लोगो को देख कर ये खयाल छोड़ दिया । उन्होंने सोचा कही लोग इसे पहाड़ परी( पहाड़ो पे पाए जानी वाली प्रेतात्मा) का प्रभाव न सामझ बैठे। और कुछ ऐसा न कर बैठे की स्वयं को हानि पहुचे । फिर उस कंकाल के साथ कई फ़ोटो उन्होंने खिंचवाए । उस कंकाल के स्पर्श से उनके दिल मे उसके प्रति आत्मीयता और प्रेम का संचार हुआ था । अति निकट संबंधी की तरह उस कंकाल को विदा किया और आगे बढ़ चले ये घटना ने उनके जीवन पर काफी प्रभाव डाला था वो स्पर्श उन्हें उम्र भर याद रहा। फिसलन भरी बर्फ के कारण परिक्रमा पूरी न हो सकी । भारी मन और भावुक दिल से  लेखक आगे बढ़ चले थे । यात्रा अब और कठिन दौर मे बढ़ चली थी ........
क्रमशः......
उम्मीद है कथानक पसंद आ रहा होगा आप सब को यही कामना है । कल इसका द्वितीय अंतिम भाग और परसो अंतिम भाग पोस्ट करूँगा। तब तक के लिए आप सब को राम राम

#रहस्यमय_झील_की_यात्रा

#भाग_संख्या_7

सबसे पहले पाठकों से माफी चाहता हूं। मेरी व्यस्तता के कारण मैं विधिवत तरीके से समस्त पॉर्ट लगातार न लिख पाया ।।
मेरी कोशिश थी पर मैं सारे पॉर्ट को लेकर एक समिल्लित रूप से लेकर एक पोस्ट जरूर करूँगा।
         मा नन्दा राजजात यात्रा का अगला चरण रूप कुंड से मात्र 2 किलोमीटर था इस पड़ाव का नाम था ज्युरांगली घाटी । ये घाटी की ऊँचाई 17500 फ़ीट थी जिसे मौत की गली भी कहा जाता है । दरअसल इस घाटी मैं हवा का दबाब इतना कम था कि जो लोग अब तक हवा के दबाब से अप्रभावित थे वो भी लंबी सांस भर रहे थे । कुछ कदम के बाद ही सबको विश्राम की जरूरत थी । लग रहा था मानो दम घुट जाएगा । सब लोग धीरे धीरे धार की तरफ बढ़ रहे थे एक छोटा सा दर्रा चोटी पर दिखाई दे रहा था । बेहद कठिन चढ़ाई के बीच हर व्यक्ति इस स्थान को जल्द से जल्द छोड़ देना चाहता था खौफ के साये मैं लोग कुछ उतावले हो चले और धार पर अगल बगल से निकलने की जल्द बाजी करने लगे थे । इतनी कठिन धार पर इस प्रकार की जल्दबाजी जानलेवा साबित हो सकती थी । 18000 की ऊँचाई लगभग आ चुकी थी इस धार के दोनों तरफ ढलान थी । मात्र एक पैर रखने का स्थान मौजूद था । इसे मृत्यु द्वार भी कहना उचित था । थोड़ी परेशानी के बाद इस मौत की गली को पार कर लेने पर पुरोहित जी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया।
    इस दर्रे को पर करने के बाद परिदृश्य बदल गया था । सामने वनस्पति शून्य इलाका था हर तरफ बर्फ का आलम था खुले इलाके के कारण अब सांस लेना आसान था । ये शिला समुंदर ग्लेशियर का प्रारंभ था । आज रात्रि विश्राम इस जगह होना था । शिलासमुद्र ग्लेशियर कई किलोमीटर मैं फैला हुआ है ढलान हल्की थी जल्द ही तम्बू लगा दिए गए। अच्चानक ही भयंकर आवाजे होने लगी जैसे बेहद तेज टक्कर हो रही हो आवाजे और कंपन बहुत तेज था मानो भूकंप आया हो। दूर कही ग्लेशियर टूट रहा था जिसके आवाजो ने मानो सब को पत्थर का कर दिया था । कुछ देर मैं कंपन कम हो गया सब लोग समूह बना कर बैठे हुए थे। जल्द ही सब सोने की तैयारी करने लगे और थके होने के कारण जल्द ही सब सो गए थे । अगली सुबह 7 किलोमीटर की उतराई के बाद 13200 फुट की ऊँचाई पर होमकुण्ड पहुचना था । अब रास्ता उतना कठिन न था डोली वालो की तेज चाल और मंजिल नजदीक होने के जोश ने कुछ घंटों मैं ही होमकुंड पर डोली को पहुचा दिया था ।
    होमकुंड एक ऐसी जगह है जहाँ एक यज्ञ कुंड है जहाँ नन्दा देवी पूजन के बाद चौसिंगा मेढे को छोड़ दिया जाता है इसके आगे की यात्रा मेड़ा स्वयं तय करता है कैलाश की इस अनोखी यात्रा का ये अंतिम पहलू है आगे चुकी मेड़ा कैलाश यात्रा स्वयं करता है तो आगे का रास्ता वर्जित है राज जात यात्री कभी इस कुंड की सीमा से आगे न जाते है ।
    होमकुंड पर पूजा आराधना शुरू हो चुकी थी । डोलियों मैं आये समस्त 200 देवी देवताओं की पूजा पाठ शुरू हो चुकी थी । लोग कैमरों को ऊंचे टीले पर स्थापित कर रहे थे और इस कुंड की सीमा की वर्जनाओं का उल्लघन कर रहे थे । ऊंचे स्थानों पर कैमरे इस प्रकार लगाए जा रहे थे कि मेढे के अंतिम अद्रश्य होने के दृश्य को फिल्माया जा सके। पूजा विधान काफी भव्य था मंत्रोच्चार और हवन चल रहा था । असामान्य रूप से वर्षा न हो रही थी जो इतने उच्च हिमालय मैं आम बात थी । तेज गर्मी का अहसास हो रहा था और सूर्य सर के ऊपर चमक रहा था । ये मा नंदा का ही चमत्कार था कि हवन के दरम्यान कुछ न हुआ एक तेज हवा तृक न चली जो लोगो की आस्था की पुष्टि करती है । अब विदाई का वक़्त नजदीक था ।सब लोग उत्सुकता से मेढे की तरफ देख रहे थे । जो खुद भी बेहद उदास दिखता था । मा नन्दा के शृंगार और पूजा सामग्री को मेढे की पीठ पर बने थैले मैं रख दिया गया था । इस मेढे के पालक का बहुत बुरा हाल था वो बस रोये जा रहा था । उसकी स्थिति इस प्रकार थी मानो किसी स्व जंन को अंतिम विदाई दी जा रही हो । बेहद भावुक पल थे । अब सब लोग उस चार सींग वाले मेढे से दूर खड़े हो गए थे । अब सबसे आगे वही मेड़ा खड़ा हुआ अपने पथ को देख रहा था। अच्चानक एक अप्रत्याशित घटना हुई मेड़ा अच्चानक पीछे मुड़ा और स्थिर नजरो से सारे समूह को देखा और कुछ पल तृक वो उस समूह को निहारता रहा जो उसे विदा करने इतनी कठिन यात्रा पर आए थे । सब रो रहे थे भावुक थे । आंखे सजल थी । अचानक ही मेढे ने मुँह मोड़ लिया और चल पड़ा अपनी नितांत अकेले कैलाश यात्रा पर । बिना पीछे मुड़े वो चले जा रहा था मानो अब इस सांसारिक दुनिया से उसका कोई नाता ही न हो तेज कदमो से वो बस उस नितांत निष्ठर राह पर चल रहा था। बीसों कैमरे पर उसे फिल्माया जा रहा था । अचानक ही सूर्य देवता किसी ओट मैं चले गए । तेज कोहरे से घाटी भरने लगी थी । कुछ पलों मैं ही वो तेज कोहरा इतना घना हो गया कि देखना तो दूर था बल्कि अपने हाथों की उंगलियां और अपने पैर देखना मुश्किल हो गया था। सभी कैमरों ने काम करना बंद कर दिया था । कुछ भी न सूझ रहा था । बेहद डरावना अहसास था । पल भर मैं ऐसी माया ।एक दम साफ धूप के मौसम के कुछ सेकंड मैं धने कोहरे से घाटी को लबालब कर दिया था । अंधकार रूपी सफेद चादर ने सब को किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था जो जहाँ था वही खड़ा रह गया था । 30 मिनट लगे इस  कोहरे को कम होने मैं । उसके बाद कोहरा  हट गया। अब मेड़ा कही दिखाई न देता था लोग ऊची जगहों पर जा के देखने का प्रयास कर रहे थे पर कुछ नजर न आता था दूर दूर तक । सब ईश्वर की माया थी नंदा देवी का वाहक अपनी यात्रा पर निकल चुका था । बेहद भारी मन से सब वापसी की तैयारी करने लगे थे ।
      एक इंद्र जालिक जाल के समान हुई इस घटना ने सिद्ध किया था कि हम मानव कुछ भी कर ले पर ईश्वरीय शक्तियों के सामने हमारा अस्तित्व बौना है ।
     वापसी की यात्री शुरू हो चुकी थी अब अगले पड़ाव का नाम था चंदनिया घाट । काफिला बढ़ चला था । बेहद खतरनाक उतराई थी एक तरफ बेहद सकरा रास्ता था जिस पर एक बार मैं एक व्यक्ति ही चल सकता था । एक तरफ पहाड़ था । लोग सामान्य रफ्तार से सावधानी बरतते हुए चल रहे थे अच्चानक ही एक बेहद तेज आवाज हुई शिखर से कुछ लुढकता हुआ नीचे आ रहा था सब लोग पहाड़ से चिपक गए थे । कुछ मिट्टी और पानी पहले आया फिर पत्थरो का ढेर । शिखर पर भुस्खलन हुआ था । लेखक से 10 फुट की दूरी पर एक कुली जिसकी पीठ पर स्लीपिंग बैग बंधा हुआ था उसकी पीठ पर एक बड़ा पत्थर आ गिरा और वो कुली कुछ और लोगो के साथ खाई मैं जा गिरा। हाहाकार मच चुका था । इस बेहद सकरी जगह पे भगदड़ मच गई थी । पहाड़ अब भी दरक रहा था भागना का मतलब मौत को दावत देना था । सब लोग पहाड़ से चिपक गए थे । कुछ वक्त मैं जब मलबा गिरना बंद हुआ  लोग अपनो को आवाजो से पुकारने लगे । जब मलबा शांत हुआ कुछ कुली रसियो से नीचे उतरे कुल 3 लोग नीचे गिरे थे । 2 को बहुत चोट आई थी पर प्राण बच गए थे पर एक अभागे कुली की मौत हो गई थी । उसका सिर टुकड़ो मैं बिखर गया था । निष्ठर पहाड़ो ने उसकी बलि ले ली थी । उस अभागे के शरीर का क्या हुआ क्या उसे वापस लाया जा सका ये सवाल अनुत्तरित रह गए थे । बहुत से काठीन पड़ावों से होकर ये यात्रा अपने आरंभिक स्थल पर आकर समाप्त हो गई थी ।
     ये यात्रा बेहद ऐतिहासिक होने के साथ साथ बेहद खतरनाक भी भी है । जिसके पौराणिक महत्व तो है ही ये स्थानीय लोगो की यात्रा का आस्था का बेहद उच्चतम स्मारक भी है । अगली यात्रा 2026 मैं प्रस्तावित है। उम्मीद है पाठकों को ये यात्रा वृतांत मेरे शब्दों मैं पसंद आया होगा ।
    मा नन्दा आप सब पर कृपा बनाये राखेगी। आप सब से निवेदन है पहाड़ो पर जाए तो गंदगी न फैलाये प्रदूषण न करे । उनकी मौलिकता से छेड़छाड़ न करे। ये जीवन दाई पहाड़ सृजन और विनाश दोनो के कारक हो सकते है । आप सब से प्रार्थना है । प्रभु की बनाई इस रचना की सुंदरता से छेड़छाड़ न करे । धर्मिक यात्राओं पर भक्त बन कर जाए न कि पर्यटक बन कर । जय बाबा केदारनाथ
समाप्त.....💐💐💐💐💐

नोट- इस सीरीज के लिए मैं विशेष धन्यवाद करना चाहता हूं Pramod Babele साहब को जिनकी वजह से मुझे ये अमूल्य पुस्तक की पढ़ने का मौका मिला था । ये किताब pramod babele साहब के पास उपलब्ध है जिस किसी पाठक को ये किताब पढ़नी हो वो इसकी प्रति प्रमोद जी से संपर्क कर के मंगवा सकता है उनका संपर्क नंबर नीचे लिखा है
मोबाइल न-6393600654, 7024300542 नमस्कार

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