इम्फाल से गुजरते हुए कुछ ठहरे-ठहरे लम्हों को अपनी यादों में कैद कर लेने के बाद हमने करीब 110 किलोमीटर दूर भारत-म्यांमार सीमा पर बसे शहर मोरेह की खाक छानने का मन बनाया। एनएच 39 पर पालेन तक करीब पहले एक घंटे का सफर इम्फाल घाटी की सीधी-सपाट सड़क पर से होकर गुजरता है, नज़ारों को आंखों में बंद कर लेने की कवायद फिजूल है क्योंकि अभी अगले करीब तीन घंटे तक एक से बढ़कर एक दृश्यों की कतार इंतज़ार में है। इम्फाल से निकले हुए करीब एक घंटा हुआ था और बायीं तरफ खोंगजुम युद्ध स्मारक की मीनार ने हरियाली की रवानी को थोड़ा तोड़ा। बड़ी-बड़ी चिमनियों से निकलता धुंआ पहाड़ी पर जमा धुंध से एकाकार हो रहा था। इस नज़ारे को रुककर देखना ही होगा। हम गाड़ी से बाहर निकल आए हैं, हवा में हरियाली की मिठास घुली है और दूर-दूर तक कैनवस देखकर किसी विदेशी भूमि पर होने का भ्रम होना स्वाभाविक है। घाटी के दोनों तरफ अभी धान की हरियाली टिकी है, आसमान में बादल हैं कि तरह-तरह की बतरस में उलझना-उलझाना चाहते हैं और एक यह पागल मन है जो आकाश में उड़ते-तिरते कपासी गुच्छों को देखकर बदहवास हुआ जाता है
भारत से बर्मा और उससे आगे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की सरहदों को सड़क मार्ग से पार करने का ख्वाब इस बेकाबू मन ने पिरो लिया है। आज उसी की पहली कड़ी पर दौड़ पड़ा है।
घाटी पीछे छूट गई थी और पहाड़ी घुमावदार रास्तों की अठखेलियां बढ़ने लगी थीं। हवा कुछ ठंडी हो आयी थी और रही-सही कसर बारिश ने पूरी कर दी थी। एक स्वेटर-शॉल होता तो मज़ा आ जाता, लेकिन हम तो इम्फाल का तापमान 20 डिग्री देखकर सूती कपड़ों में चले आए थे। यह भी नहीं सोचा कि पहाड़ी रास्ते के सफर में मौसम कभी भी शरारत पर उतर सकता है। इस बीच, हमारी गाड़ी का इंजन भी घर्राने लगा है और यह इस बात का इशारा है कि ऊंचाई लगातार ऊंची उठ रही है। कुहासे की एक जो पतली झालर अभी तक दूर पहाड़ी पर टंगी थी अब घनी हो चली है और सड़क पर हमें घेरने की तैयारी में है। लग रहा है बादलों को चीरते ही जाना होगा। बारिश, धुंध और बादलों का यह षडयंत्र जैसे काफी नहीं था, बारिश भी बढ़ती जा रही है। इम्फाल से लगभग 38 किलोमीटर दूर ऊंचाई पर बसे तिंगनोपाल गांव की सरहद में ऐसा स्वागत होगा सोचा नहीं था, ठंड से किटकिटी बंधी देखकर ड्राइवर ने दिलासा दिया कि बस कुछ ही देर में हम ठंड के इस इलाके से निकल जाएंगे, आगे मोरेह में मौसम गरम मिलेगा।
सुनसान, बियाबान इन सरहदी सड़कों पर अब चौकसी भी बढ़ गई है, असम राइफल्स के जवान अपने तिरपालनुमा रेनकोट में सड़कों पर जगह-जगह तैनात हैं, वाहनों को रोक-रोककर पूछताछ का सिलसिला बारिश के बावजूद थमा नहीं है। सूरज न निकले न सही, डेढ़ फुटी टॉर्च की रोशनी में वाहनों की जांच चल रही है। पूरे साल भर तिंगनोपाल में यही हाल रहता है। आगे उतरान है और लोकचाओ ब्रिज पर से गुजरते हुए याद आया कि पत्थरों पर से अठखेलियां करता हुआ लोकचाओ का पानी बर्मा चला जाता है। कुछ दूरी पर खुदिंगथाबी चेकपोस्ट है और उसे पार करने के बाद म्यांमार की काबा घाटी का खूबसूरत नज़ारा मन मोह लेता है।
यही काबा घाटी है जो कभी मणिपुर के कब्जे में थी और आज भी कई राष्ट्रवादी मणिपुरी इसे मणिपुर का हिस्सा ही मानते हैं। यहां उतरकर कुछ यादगार पलों को स्मृतियों और डिवाइसों में कैद कर लेने का ख्याल बुरा नहीं है। कुछ दूरी पर मोरेह का टिनटोंग बाज़ार है और सड़क पर रौनक बयान है कि यह इलाका मणिपुर का कितना प्रमुख कमर्शियल हब है।
मोरेह मैतेई, नेपाली, सिख, बंगाली, मारवाड़ी, तमिल, बिहारी से लेकर कुकी, नागा सरीखी नस्लीय आबादी का गढ़ है और शायद ही किसी धर्म का धार्मिक स्थल होगा जो यहां नहीं है! मोरेह की हद पार कर हम बर्मा की गलियों में घुस गए हैं, फ्रैंडशिप ब्रिज के उस पार बसे बर्मा की फितरत बदली-बदली सी है, हवाओं में नमी है, बारिश बस अभी होकर गुजरी है यहां से। अमूमन अक्टूबर तक बारिश लौट जाती है अपने देश लेकिन इस बार महीने के अंत तक अटककर रह गई थी। सोया-खोया सा, कुछ गीला-गीला-सा यह बर्मी कस्बा दिन के दो बजे भी ऊंघ रहा था।
कुछ आगे बढ़ने पर तामू की दुकानों से घिर गए हैं हम। शॉपिंग का इरादा तो नहीं था लेकिन बांस की बनी टोकरियों, टोपियों और पता नहीं किस-किसने मन पर जैसे डोरे डाल दिए हैं। माण्डले में बनी छोटी-बड़ी यही कोई चार-पांच टोकरियां और थाइलैंड से आयी एक हिप्पीनुमा हैट अब मेरी हो चुकी है। नुक्कड़ वाली पान की दुकान पर खूबसूरत मुस्कुराहटों की ओट में एक बर्मी युवती पान बनाने में मशगूल है, यों उसके कत्थई रंग में रंगे दांतों को देखकर लगता नहीं कि वो कुछ बेच भी पाती होगी ! यहां भी बाजार पर औरतों का कब्जा है, ज्यादातर वे ही दुकानदार हैं और खरीदार भी। एक तरफ खिलखिलाहटों की चौसर बिछी दिखी तो मेरे कदम उधर ही उठ गए। यहां लूडो की बिसात सजी है, सोलह साल की युवती से लेकर सत्तर बरस की अम्मा तक गोटियां सरकाने में मशगूल है, पान की लाली ने हरेक के होंठ सजा रखे हैं। बाजार मंदा है और समय को आगे ठेलने के लिए लूडो से बेहतर क्या हो सकता है!
अपनी ही धुन में खोया-खोया सा दिखा तामू। दो रोज़ पहले एक बम विस्फोट से सहमने के बाद अब ढर्रे पर लौटने की जुगत में है यह कस्बा। हालांकि बाजार नरम था, खरीदारों की चहल-पहल शुरू नहीं हुई थी, सो हमने एक-एक दुकान पर खरीदारी कम और गपशप ज्यादा की और वो भी एक ऐसी जुबान में जो शब्दविहीन थी। इशारा भी कुछ “इवॉल्व्ड” भाषा लगी क्योंकि हमारा सारा कारोबार सिर्फ मुस्कुराहटों के सहारे बढ़ा था।
नज़दीक ही पैगोडा है, वहां भी मुस्कुराहटों का खेल जारी था। बर्मी युवतियां अपनी बिंदास मुस्कुराहटों को छिपाने की कोशिश भी नहीं कर रहीं।
इस बीच, घड़ी ने तकाज़ा सुना दिया। हम रुकने के इरादे से नहीं आए थे तामू, वापस इम्फाल लौटना है आज ही, यानी करीब तीन-साढ़े तीन घंटे का वापसी सफर करना है। पूर्वोत्तर में दोपहरी में दो-ढाई बजते ही सूरज बाबा लौटने की तैयारी करने लगते हैं, चार बजते-बजते तो शाम एकदम गहरा जाती है और पांच बजे तक अंधेरा पूरी कनात टांग देता है।
अंधेरा, पहाड़ी सड़क और उन पर दौड़ते वाहनों का गणित कभी-कभी दिनभर की घुमक्कड़ी को बड़े ही खुरदुरे धरातल पर ला पटकता है, कहीं आज ऐसा ही तो नहीं होने जा रहा ?
नीली पहाड़ियों के कंधों पर अंधेरे की सवारी लग चुकी है, चांदेल की पहाड़ी सड़कें बहुत ऊंचाई पर तो नहीं हैं, अलबत्ता घुमावदार काफी हैं और ऐसे-ऐसे गड्ढों से पटी पड़ी हैं कि चांद भी लजा जाए। बहरहाल, हमने फर्राटा दौड़ में समय को हरा दिया उस दिन …..