रोपड़ जिला पंजाब का ईतिहासिक और खूबसूरत जिला है| इस जिले में शिवालिक पहाड़ी के क्षेत्र मिलेगे जिससे यहाँ कुदरती नजारे भी दिखाई देते हैं| सतलुज नदी हिमाचल प्रदेश के बाद रोपड़ जिला के नंगल के पास ही पंजाब में प्रवेश करती है| सिख धर्म का महत्वपूर्ण गुरुद्वारा तख्त श्री केश गढ़ साहिब भी इसी जिले में आता है| इसके अलावा भी बहुत सारे ईतिहासिक गुरुद्वारा साहिब रोपड़ जिला में आते हैं| आज इस पोस्ट में रोपड़ जिला के ईतिहासिक स्थानों के बारे में जानेगे|
1. गुरुद्वारा बिभौर साहिब
नंगल जिला रोपड़
आज हम दर्शन करेंगे पंजाब के जिला रोपड़ में हिमाचल प्रदेश के साथ लगते और सतलुज नदी के किनारे पर ,पहाड़ों के पैरों में बसे खूबसूरत शहर नंगल के ईतिहासिक गुरुद्वारा बिभौर साहिब के। यह ईतिहासिक गुरुघर कलगीधर पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ संबंधित हैं।
#गुरुद्वारा_बिभौर_साहिब_का_ईतिहास
दोस्तों गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में बिभौर एक पहाड़ी रियासत हुआ करता था और राजा रतन राय यहां राज करता था। इस बिभौर रियासत में उस समय 52 गांव थे। उस समय बिभौर, जैजों और संतोखगढ़ बड़ी मंडियां हुआ करती थी जहां से पहाड़ों को वस्तुओं की सपलाई हुआ करती थी। यह राजा गुरु गोबिंद सिंह जी का श्रद्धालु था,लेकिन कभी गुरु जी से मिलने नहीं गया था, लेकिन रोज गुरु जी की याद में सिमरन करता था और राजा रतन राय चाहता था कि गुरु जी खुद आकर उसे दर्शन दें। एक दिन ऐसे ही राजा रतन राय पास के जंगल में भक्ति कर रहा था और मन में साहिबे कमाल गुरु जी को याद कर रहा था। अंतरजामी गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने राजा की पुकार सुनी और आनंदपुर साहिब से चलकर अपने सिखों के साथ उसी जंगल में पहुंच कर राजा के पास पहुंच पर उसे दर्शन दिए और उसे आखें खोलने के लिए बोला, जब राजा रतन राय ने आखें खोली तो सामने गुर जी को देखकर निहाल हो गया। गुरु गोबिंद सिंह का तो नाम ही तारनहार हैं, राजा की आखों से खुशी के आसूं निकल आए। राजा ने गुरु जी को अपने किले में चलने के लिए आमंत्रित किया। कृपालु गुरु जी राजा रतन राय के पास काफी महीने रहे। जहां राजा का किला था , वहीं आज गुरुद्वारा बिभौर साहिब बना हुआ हैं। राजा रतन राय की पत्नी भी गुरु जी श्रद्धालु थी कयोंकि वह सिरमौर के राजा की पुत्री थी उसने गुरु जी के दर्शन सिरमौर में नाहन में किए थे। सिरमौर रियासत गुरु जी का बहुत सतिकार करती थी कयोंकि गुरु गोबिंद सिंह जी के दादा जी छठें पातशाह गुरु हरिगोबिन्द जी ने बंदीछोड़ बनकर गवालियर के किले से 52 राजपूत राजाओं को आजाद करवाया था, उसमें एक राजा सिरमौर का राजा भी था। गुरु जी ने बिभौर साहिब में रहते हुए ही "चौपई साहिब " की रचना की। चौपई साहिब को सिख सुबह नितनेम और शाम को रहिरास साहिब में पढ़ते हैं। श्रद्धालु बिभौर साहिब में आकर चौपई साहिब का पाठ करते हैं, जिसमें गुरु जी परमात्मा के गुनगान करते हैं। गुरूद्वारा एक ऊंची जगह पर बना हुआ है, साथ ही सतलुज नदी हैं जो बहुत खूबसूरत दृश्य पेश करती हैं, दूर नैना देवी की पहाड़ी दिखाई देती हैं। बिभौर साहिब में रहने और खाने के लिए लंगर की उचित सुविधा हैं। कभी आनंदपुर साहिब
आए तो नैना देवी, भाखड़ा डैम होते हुए नंगल से होते हुए यहां दर्शन जरूर कीजिए।
कैसे पहुंचे- बिभौर साहिब पहुंचने के लिए आप को पहले नंगल आना होगा, जो रोपड़- ऊना हाईवे पर एक शहर हैं जो चंडीगढ़ से 110 किमी, आनंदपुर साहिब से 24 किमी, रोपड़ से 60 किमी दूर हैं। नंगल शहर सतलुज नदी पर बने हुए नंगल डैम और नंगल वैटलैंड के लिए मशहूर हैं।
2.तख्त श्री केशगढ़ साहिब
आनंदपुर_साहिब
आज हम दर्शन करेंगे, सिख धर्म के पांच पवित्र तख्तों में से एक तख्त श्री केशगढ़ साहिब की जो पंजाब के जिला रोपड़ में चंडीगढ़ से 90 किमी और रोपड़ से 45 किमी दूर हैं। सिख ईतिहास में आनंदपुर साहिब का बहुत महत्व है, यहां दर्शन करने के लिए बहुत ईतिहासिक गुरुद्वारे और किले हैं। आनंदपुर साहिब को नौवें पातशाह गुरु तेग बहादुर जी ने कहलूर रियासत ( बिलासपुर) के राजा से जमीन खरीद कर बसाया था। इसी पवित्र धरती पर मुगलों के आतंक से परेशान हो कर कशमीरी पंडित गुरु तेग बहादुर जी के पास फरियाद लेकर आए थे, यहां पर ही गुरु गोबिंद सिंह जी के तीन साहिबजादों का जन्म हुआ। इसी पवित्र धरती पर गुरु जी ने पांच किले बनवाए। इसी धरती पर गुरु गोबिंद सिंह जी को गुरगद्दी मिली, इसी धरती पर गुरु तेगबहादुर जी के सीस का अंतिम संस्कार हुआ। कभी आनंदपुर साहिब के गुरुद्वारा साहिब की यात्रा और ईतिहास के बारे में विस्तार में लिखूंगा। आनंदपुर साहिब के ईतिहासिक गुरुद्वारों की लिस्ट बहुत लंबी हैं। आज हम बात करेंगे आनंदपुर साहिब के सबसे महत्वपूर्ण सथल तख्त श्री केशगढ़ साहिब की।
तख्त श्री केशगढ़ साहिब ः
केशगढ़ साहिब एक ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। इसी जगह पर साहिबे कमाल कलगीधर पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ईसवीं की बैशाखी पर खालसा पंथ की सथापना की। आज केशगढ़ साहिब सिख धर्म के पांच सबसे महत्वपूर्ण गुरुद्वारों में से एक हैं। 1699 ईसवीं की बैशाखी को एक भारी इकट्ठ को संबोधित करते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक शीश की मांग की जो जुल्म के खिलाफ लड़ सके, एक एक करके पांच शिष्य आगे आकर अपने शीश गुरु जी को देने के लिए आगे बढ़े। बाद में यहीं पांच शिष्य गुरु जी के पांच पयारे बने। जिनके नाम निम्नलिखित हैं...
भाई धरम सिंह
भाई दया सिंह
भाई मोहकम सिंह
भाई हिम्मत सिंह
भाई साहिब सिंह
गुरु जी ने इन पांच शिष्यों को अमृत छकाया और खालसा पंथ की सथापना की। आज भी देश विदेश से श्रद्धालु केशगढ़ साहिब में माथा टेकने आते हैं। केशगढ़ साहिब की ईमारत बहुत शानदार और विशाल हैं। केशगढ़ साहिब गुरु जी का एक किला भी था, दूर से देखने पर आपको सफेद रंग के किले के रूप में दिखाई देगी केशगढ़ साहिब की ईमारत। केशगढ़ साहिब के अंदर गुरु ग्रंथ साहिब जी एक सुंदर पालकी में बिराजमान हैं। वहीं अंदर दरबार में गुरु जी के बहुत सारे ईतिहासिक शस्त्र भी संगत के दर्शनों के लिए रखे हुए हैं, जैसे खंडा, कटार, सैफ, बंदूक,नागिनी बरछा आदि। इसके साथ गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के पवित्र केश और एक कंघा भी रखा हुआ है। यहां पर रहने की और लंगर की उचित वयवस्था हैं। जब भी आप पंजाब घूमने आए तो इस ईतिहासिक धरती को नमन करने आनंदपुर साहिब जरूर जाना।
3. गुरुद्वारा शीश महल साहिब
कीरतपुर साहिब
आज हम बात करेंगे सिख धर्म के महत्वपूर्ण तीर्थ कीरतपुर साहिब के गुरुद्वारा शीश महल साहिब की जहां सिख धर्म के सातवें गुरु श्री हरिराय जी और उनके पुत्र बाला प्रीतम आठवें गुरुहरिकशन जी का जन्म हुआ। सतलुज नदी के किनारे और शिवालिक की पहाड़ियों के पैरों में बसे कीरतपुर साहिब को दस सिख गुरुओं में से 6 गुरुओं की चरनछोह प्राप्त हैं। यहां पहले गुरु नानक देव जी, छठें गुरु हरिगोबिन्द जी, सातवें गुरु हरिराय जी, आठवें गुरु हरिकिशन जी, नौवें गुरु तेगबहादुर जी और दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी पधारे हैं। कीरतपुर साहिब में दर्शन करने के लिए कुल 11 ईतिहासिक गुरुद्वारे हैं। कीरतपुर साहिब को छठें गुरु हरिगोबिन्द जी ने बसाया, उन्होंने अपने आखिरी दस साल इस शहर में ही बिताए यहां ही वह जयोति जोत समाए। यहां ही उन्होंने अपने पौत्र गुरु हरिराय जी को गुरुगद्दी दी। यहां पर ही गुरुद्वारा पतालपुरी साहिब हैं जहां छठे गुरु हरिगोबिन्द जी का अंतिम संस्कार हुआ और पास में बहती हुई सतलुज नदी में उनकी असथियों को विसर्जन किया गया। आज भी सिख संगत यहां अपने बिछड़े हुए रिशतेदारों की असथियों को जल प्रवाह करने के लिए पतालपुरी साहिब लेकर आते हैं। आज की पोस्ट में हम गुरुद्वारा शीश महल कीरतपुर साहिब की बात करेंगे। यह ईतिहासिक गुरुद्वारा शहर के बीचोंबीच मौजूद हैं। इस जगह को कीरतपुर बसाते समय सबसे पहले तैयार किया गया।यहां पर ही छठें गुरु हरिगोबिन्द जी ने निवास किया। यह उनका घर था। कीरतपुर साहिब के अपने निवास स्थान को गुरु हरिगोबिन्द जी ने शीश महल का रुप दिया, इसीलिए इस जगह को गुरुद्वारा शीश महल का नाम मिला। इसी जगह पर 1630 ईसवीं में सातवें सिख गुरु हरिराय जी का जन्म हुआ। यहां पर ही 1656 ईसवीं में आठवें गुरु हरिकिशन जी का जन्म हुआ। दोस्तों दस सिख गुरुओं के जन्म सथान में से सात गुरु साहिब के जन्म भारतीय पंजाब में हुए। दो गुरु साहिब के जन्म पाकिस्तानी पंजाब में हुए और दसवें गुरु का जन्म बिहार की राजधानी पटना में हुआ।
दस गुरु साहिबान के जन्म सथान
1. गुरु नानक देव जी - ननकाना साहिब पाकिस्तान
2. गुरु अंगद देव जी - गांव सरायनागा जिला मुक्तसर पंजाब
3. गुरु अमरदास जी - गांव बासरके जिला अमृतसर पंजाब
4. गुरु राम दास जी - चूना मंडी लाहौर पाकिस्तान
5. गुरु अर्जुन देव जी - गोइंदवाल साहिब जिला तरनतारन पंजाब
6. गुरु हरिगोबिन्द जी - गुरु की वडाली जिला अमृतसर पंजाब
7. गुरु हरिराय जी - कीरतपुर साहिब जिला रोपड़ पंजाब
8. गुरु हरिकिशन जी - कीरतपुर साहिब जिला रोपड़ पंजाब
9. गुरु तेगबहादुर जी- गुरूद्वारा गुरु के महल अमृतसर शहर पंजाब
10. गुरु गोबिंद सिंह जी- पटना साहिब बिहार
इनमें से दूसरे गुरु जी के जन्म सथान सरायनागा की पोस्ट मैं पहले ही कर चुका हूं। आज की पोस्ट मिलाकर दूसरे, सांतवे और आठवें गुरु जी के जन्म सथान की पोस्ट हो जायेगी। गुरुद्वारा शीश महल में जब आप पुरातन डियूढ़ी से प्रवेश करोगे तो सामने आपको गुरुद्वारा साहिब की भव्य ईमारत दिखाई देगी, जिसके सामने लगे हुए अशोक के वृक्ष गुरुघर की शोभा को चार चांद लगा देते हैं। अंदर जाकर सामने गुरु ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश हैं और दरबार बिल्कुल शीश महल जैसा लगता हैं, जहां सुनिहरी कलाकारी की हुई हैं। मन ऐसी पवित्र जगहों पर जाकर आनंदित हो जाता हैं और गुरू जी को याद करके नमन करने लग जाता हैं। गुरुद्वारा साहिब के आंगन में एक ऊंचा थड़ा बना हुआ हैं जहां बैठकर सातवें पातशाह हरिराय जी दीवान सजाया करते थे और संगत को उपदेश दिया करते थे, इस जगह को दमदमा साहिब कहते है।
कीरतपुर साहिब कैसे पहुंचे- कीरतपुर साहिब चंडीगढ़ मनाली हाईवे पर चंडीगढ़ से 80 किमी और जिला मुख्यालय रोपड़ से 31 किमी और ईतिहासिक शहर आनंदपुर साहिब से 10 किमी दूर हैं। कीरतपुर साहिब में रेलवे स्टेशन भी हैं जो ऊना- नंगल- रोपड़- सरहिंद रेलवे लाईन पर बसा हुआ हैं।
आप भी आईए पंजाब की पवित्र धरती पर गुरु साहिब के ईतिहासिक गुरुद्वारों के दर्शन के लिए।
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#जिला_रोपड़
नमस्कार दोस्तों 🙏🙏
आज हम दसवें पातशाह सरबंसदानी गुरु गोबिन्द सिंह से संबंधित एक ईतिहासिक गुरुद्वारे परिवार विछौड़ा साहिब के दर्शन और ईतिहास की बात करेंगे। बात दिसंबर 1704 ईसवीं की होगी , गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज मुगलों और औरंगजेब की नजरों को अच्छे नहीं लगते थे कयोंकि गुरु जी जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए एक शक्तिशाली सैना का निर्माण कर लिया था, सिख धर्म की सथापना करके कयोंकि सिखों ने औरंगजेब के चैलंज का दलेरी से सामना करना शुरू कर दिया था, जिसकी अगवाई खुद गुरु जी कर रहे थे। आनंदपुर साहिब की धरती दिल्ली के तख्त के फरमान नहीं मानती थी, कयोंकि गुरु जी जुलम करने और जुल्म सहने दोनों के खिलाफ थे। मई 1704 ईसवीं में लाहौर, सरहिंद, दिल्ली से मिलकर मुगल सैना और कुछ पहाड़ी राजा की सैना ने इकट्ठा होकर आनंदपुर साहिब घेर लिया, यह घेरा छह महीने मई 1704 ईसवीं से दिसंबर 1704 ईसवीं तक रहा, तब तक मुगल सैना भी थक चुकी थी और आनंदपुर साहिब में भी किले में खाने पीने का सामान कम हो रहा था। मुगलों ने कुरान की कसम खाकर गुरु जी को परिवार और सिखों को आनंदपुर साहिब छोड़कर जाने की फरियाद की और कहा आपको कुछ भी कहा नहीं जाऐगा। सिखों ने भी गुरु जी को चले जाने के कहा, गुरु जी को मुगलों की बात पर यकीन नहीं था, फिर भी सिखों के कहने पर परिवार और सिखों के साथ आनंदपुर साहिब दिसंबर 1704 ईसवीं को छोड़ दिया, अभी छह सात किलोमीटर तक ही गए होगे मुगल सैना ने पीछे से हमला कर दिया। गुरु जी परिवार और सिखों के साथ रोपड़ की ओर बढ़ रहे थे, सिख सैनिक मुगल सेना के साथ लड़ते हुए ही आगे चल रहे थे। जहां आजकल गुरुद्वारा परिवार विछौड़ा बना हुआ है वहां पास ही सिरसा नदी बहती हैं जिसमें उस समय बाढ़ आई हुई थी, इस जगह पर गुरु जी ने कुछ समय आराम किया। जब गुरु जी अपने परिवार और सिखों के साथ बाढ़ से उफनती हुई सिरसा नदी पार करने लगे तब गुरु जी का परिवार तीन हिस्सों में बंट गया, गुरु जी अपने दो बड़े बेटों अजीत सिंह, जुझार सिंह और कुछ सिखों के साथ रोपड़ होते हुए चमकौर साहिब पहुंचे जहां उन्होंने सवा लाख से एक लड़ाऊ वाली बात को कर दिखाया जब 40 सिखों ने दस लाख मुगल सेना से लोहा लिया, चमकौर साहिब में ही गुरु जी के बड़े साहिबजादे शहीद हुए।
दूसरे हिस्से में गुरु जी पत्नी और कुछ माताएं भाई मनी सिंह के साथ दिल्ली पहुंच गई।
तीसरे हिस्से में गुरु जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे को गुरु घर का रसोइया गंगू अपने घर गांव खेड़ी ले गया, जिसने धोखा देते हुए ईनाम के लालच में आकर माता जी और छोटे साहिबजादे को मोरिंडा थाने में खबर देकर गिरफ्तार करवा दिया, जो बाद में सरहिंद में नीवों में चिन कर शहीद हुए। गुरु जी का सारा परिवार धर्म और देश के लिए शहीद हो गया इसीलिए उन्हें सरबंसदानी कहा जाता है, जिस जगह गुरु जी का परिवार बिछड़ा था वहां आजकल गुरुद्वारा बना हुआ है। शत शत नमन हैं ऐसे संत सिपाही गुरु जी को , आज भी जब कभी इस जगह दर्शन करने जाता हूँ तो आखें नम हो जाती हैं जहां गुरू जी का परिवार बिछ़डा था। यह जगह आनंदपुर साहिब से 26 किमी और रोपड़ से 15 किमी दूर है|
पुरातत्व संग्रहालय रोपड़
बात करेंगे सतलुज नदी के किनारे बसे पंजाब के बहुत पुराने शहर रोपड़ में बने हुए हडप्पा काल से लेकर बहुत सारी संसकृति से जुड़े हुए पुरातत्व संग्रहालय रोपड़ की। रोपड़ शहर चंडीगढ़ से 40 किमी दूर हैं, यहां पर तीन टीले हैं जहां पर उत्खनन कार्य हुआ हैं।
1. रोपड़ टीला
2. बाड़ा टीला
3. कोटला निहंग खान टीला
1. रोपड़ का टीला पुरातत्व संग्रहालय के पास ही सथित हैं, इस सथल की खोज प्रो० बृजवासी लाल द्वारा 1950 में की गई, इसके बाद यज्ञदत्त शर्मा के निरदेशन में 1952-55 के बीच में उत्खनन कार्य हुआ। रोपड़ आजादी के बाद उत्खनित पहला हडप्पा सथल हैं।
2. बाड़ा एक गांव हैं, जो रोपड़ से 6 किलोमीटर दूर है, बाड़ा टीला 500 मीटर लंबा और 300 मीटर चौड़ा हैं। यहां पर उत्खनन के बाद बहुत कुछ मिला है जैसे ईटों से बनी हुई संरचनाए, मिट्टी, घास फूस की बनी हुई झोपड़ी, घड़े, जार, तशतरी, हाणिडयां, कटोरे आदि, इस संस्कृति को बाड़ा संस्कृति का नाम दिया गया हैं।
3. कोटला निहंग खान टीला
यह रोपड़ से दो किलोमीटर दूर सथित हैं, इसकी खोज तथा उत्खनन श्री माधव सवरूप वत्स ने 1929 ईसवी में किया। इसकी खोज से हडप्पा संस्कृति के विस्तार को सतलुज-यमुना दोआब तक माना जाने लगा। यहां हडप्पा संस्कृति के मृदभाण्ड मिले हैं, साथ में पकी मिट्टी की चूडिय़ां, मनके, खिलौने गाड़ी, हडडी के नुकीले औजार मिले है।
रोपड़, बाड़ा और कोटला निहंग खान से प्राप्त मृदभाण्डों , मिट्टी की चूडिय़ां, मनके, मटके, तशतरी, सिक्के, सेलखड़ी की मुद्रा, कांस्य उपकरण, कांस्य पात्र , मूर्ति आदि जो भी सामान इन तीनों जगह में मिला हैं उसे रोपड़ के पुरातत्व संग्रहालय में संभाल कर रखा हैं। अगर आपको ईतिहास से प्रेम हैं, हडप्पा संस्कृति को समझना चाहते हो तो आपको रोपड़ के पुरातत्व संग्रहालय को जरूर देखना चाहिए। यह संग्रहालय रोपड़ शहर के बीचोबीच हैं, सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता हैं, शुक्रवार को संग्रहालय बंद रहता हैं, टिकट सिर्फ पांच रुपये हैं। रोपड़ भारत की पांच सबसे बड़ी हडप्पा सभ्यता केंद्रों में से एक है, बाकी जगह लोथल, धोलावीरा, कालीबंगा और राखीगढ़ी हैं।
चमकौर साहिब दर्शन
दोस्तों पिछले तीन साल से मैं गुजरात के राजकोट में होमियोपैथिक कालेज में पढ़ा रहा हूँ | मेरे स्टूडेंट्स भी अक्सर फेसबुक पर मेरी यात्राओं की तस्वीर देखते रहते हैं और कभी कभी लैकचर के आखिरी क्षणों में मैं भी अपनी घुमक्कड़ी के किस्से सुना देता हूँ| मेरे स्टूडेंट्स भी पिछले काफी समय से कह रहे थे सर हमें भी आपकी तरह बनना है डाक्टर भी घुमक्कड़ भी | मैंने कहा आ जाना किसी दिन साथ में घुमक्कड़ी करेंगे| पहले कुछ स्टूडेंट्स के साथ गुजरात में घूमें | फिर स्टूडेंट्स ने मुझे फोन किया और कहा सर हम आपके पास पंजाब घूमने के लिए आ सकते हो| मैंने कहा जब मर्जी आ जाना| फिर मेरे चार स्टूडेंट्स
रणजीत पालनपुर से, गोटी पार्थ सूरत से, राहुल खिमानी भावनगर से और रिकिन पोरबंदर के पास से 28 अकतूबर 2022 को अहमदाबाद से रेलगाड़ी पकड़कर कोटकपूरा पहुँच गए| कोटकपूरा रेलवे स्टेशन मेरे घर से मात्र 27 किमी दूर है| वहाँ से बस पकड़ कर बाघा पुराना मेरे घर आ गए| स्टूडेंट्स नहा धोकर तैयार हो गए | तब तक श्रीमती ने आलू के परांठे तैयार कर दिए | अपने स्टूडेंट्स के साथ मैंने गरमागरम आलू के परांठे दही और मख्खन के साथ ब्रेकफास्ट किया| तकरीबन दोपहर के 12 बजे के आसपास हम गाड़ी में सामान रखकर तैयार थे| अब अपने स्टूडेंट्स को मुझे पंजाब दिखाना था वह तो पंजाब में बस अमृतसर को ही जानते थे| आज हमारा लक्ष्य आनंदपुर साहिब पहुंचना था और वह भी शाम के साढ़े चार से पहले कयोंकि वहाँ हमने विरासत एक खालसा मयुजियिम देखना था जिसकी एंट्री शाम को 4.30 बजे बंद हो जाती है| मेरे घर से आनंदपुर साहिब की दूरी 200 किमी है| हम घर से मोगा होते हुए जगराओं, लुधियाना को पार करते हुए दोराहा में सरहिंद नहर के साथ साथ रोपड़ की ओर बढ़ रहे थे| अभी समय तीन बज रहे थे और विरासत एक खालसा 60 किमी दूर था जहाँ हमने एक घंटे तक पहुँच जाना था| तभी मेरे मन में विचार आया स्टूडेंट्स को चमकौर साहिब के दर्शन करवा देता हूँ जिसका ईतिहास मैंने गाड़ी चलाते समय ही बता दिया था| कुछ ही देर बाद हम चमकौर साहिब की पार्किंग में गाड़ी लगाकर जूते उतार कर गुरु घर में प्रवेश कर गए| मैंने 20 रुपये की कड़ाह (देसी घी का प्रसाद) की पर्ची ली और प्रसाद लेकर स्टूडेंट्स को साथ लेकर गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब चमकौर साहिब के दर्शन के लिए ले गया| हमने गुरु गोबिंद सिंह जी के बड़े साहिबजादों और दूसरे शहीदों को नमन किया| कुछ देर हम गुरु घर के अंदर बैठे रहे| चमकौर युद्ध के बारे में स्टूडेंट्स को एक बार बताया | प्रसाद मैंने स्टूडेंट्स में बांटा और फिर गाड़ी में बैठ कर अगले सफर के लिए आगे बढ़ गए|
#चमकौर_साहिब_की_जंग
सरबंसदानी गुरू गोबिंद सिंह जी ने 20 दिसंबर 1704 ईसवी से लेकर 27 दिसंबर ईसवी तक एक हफ्ते में ही अपने चारों साहिबजादों के साथ अपनी माता जी को धर्म के लिए कुरबान कर दिया।
20 दिसंबर 1704 ईसवी में गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने अपने परिवार और कुल 400 या 500 सिखों के साथ आनंदपुर साहिब को छोड़ दिया, जिस किले को मुगलों और पहाड़ी राजाओं की सैना ने मई 1704 ईसवी से घेरा डाला हुआ था। मुगलों ने कुरान की कसम खाई थी कि आप किले को छोड़ जाईये, आपको कुछ नहीं कहा जायेगा, लेकिन जब 20 दिसंबर 1704 ईसवी को गुरू जी ने किला छोड़ दिया तो मुगलों और पहाड़ी राजाओं ने गुरू जी के ऊपर हमला कर दिया।
आनंदपुर साहिब और रोपड़ के बीच सरसा नंगल नामक एक नदी बहती हैं, उस नदी में उस समय बहुत भयंकर बाढ़ आई हुई थी, गुरु जी का परिवार यहां तीन हिस्सों में बंटकर बिछड़ गया, इस जगह पर अब गुरुद्वारा परिवार विछोड़ा साहिब बना हुआ हैं, यह बात है 21 दिसंबर 1704 ईसवी की, उस दिन गुरू जी अपने दो बड़े साहिबजादों , पांच पयारे और कुल चाली सिखों के साथ चमकौर की कच्ची गढ़ी में पहुंचे। मुगल सेना पीछा कर रहे थे, चारों तरफ मुगल सेना थी, गुरु जी ने गढ़ी में मोर्चा लगा लिया।
#चमकौर_साहिब
चमकौर साहिब के युद्ध का नाम दुनिया के सबसे बहादुरी वाले युद्धों में आता हैं, जहां एक तरफ 10 लाख की विशाल मुगल सेना थी तो दूसरी तरफ गुरू गोबिंद सिंह जी, उनके दो बेटे, पांच पयारे और 40 सिख मिलाकर कुल 48 सिख। यह युद्ध था 48 vs 10,00000 जो अपने आप में बहादुरी की मिसाल हैं। यह युद्ध शुरू हुआ था 22 दिसंबर 1704 ईसवी में, गुरू जी ने पांच पांच सिखों के जत्थे बना कर युद्ध में बना कर भेजे, और जब पांच सिख 10 लाख मुगल सेना के साथ युद्ध करता था तो हर एक सिख सवा लाख से लड़ता था, गुरू गोबिंद सिंह जी ने सवा लाख से एक लडायू, तबै गोबिंद सिंह नाम कहायू की बात को पूरा कर दिया। मुगलों सेना को लगा था गुरू जी के साथ दस बीस सिख होगें हम एक दो घंटे में युद्ध खत्म कर देगे, लेकिन उनका अंदाजा गलत साबित हुआ, सिख 48 थे लेकिन लड़ ऐसे रहे थे जैसे 500 सिख हो, गुरु गोबिंद सिंह जी का तेज ही इतना था, कोई मुगल गढ़ी के पास आने से डरता था, अगर किसी ने कोशिश की भी तो गुरु गोबिंद सिंह के तीर के निशाने ने उसे मौत की नींद सुला दी, गुरु जी का निशाना बहुत पकका था, मालेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खान के भाई नाहर खान ने सीढ़ी लगाकर चमकौर गढ़ी पर चढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन जैसे उसने सिर ऊपर उठाया तो बुरज पर खड़े गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने तीर से नाहर खान को नरक भेज दिया, फिर उसके भाई ने कोशिश की उसका भी यहीं हाल हुआ, तीसरा भाई छिपकर भाग गया।
#साहिबजादा_अजीत_सिंह_की_शहीदी
साहिबजादा अजीत सिंह जी गुरू गोबिंद सिंह जी के बड़े बेटे थे, उमर केवल 18 साल की, अपने पिता जी आज्ञा मांगी युद्ध में जाने के लिए, गुरु जी बहुत खुश हुए, उन्होंने अपने बेटे को सीने से लगाकर तीर देकर चमकौर के युद्ध में भेजा और कहा कोई भी वार पीठ पीछे नहीं होना चाहिए, सारे वार तीर तलवार तेरी छाती में लगने चाहिए, बाबा अजीत सिंह ने युद्ध में आकर ही तीरों की बौछार चला दी, बहुत सारे मुगलों को मौत के घाट उतार कर दिया, जिसमें मुगलों के जरनैल अनवर खान का नाम भी आता हैं,ऊपर चमकौर की गढ़ी में कलगीधर पातशाह अपने बेटे के जौहर देखकर शाबाशी दे रहे थे, जब बाबा अजीत सिंह के तीर खत्म हो गए तो उन्होंने तलवार निकाल कर युद्ध लड़ना जारी रखा, ईतिहास कहता हैं कि युद्ध में बाबा अजीत सिंह को 350 के लगभग जख्म लगे, तीरों से, तलवारों से और एक भी जख्म पीठ पीछे नहीं लगा, इस तरह बाबा अजीत सिंह शहीद हुए। नमन हैं उनकी शहीदी को।
#साहिबजादा_जुझार_सिंह_की_शहीदी
साहिबजादा जुझार सिंह जी गुरू गोबिंद सिंह जी के दूसरे बेटे थे, जिनकी उमर उस समय 15 साल की थी, अपने बड़े भाई बाबा अजीत सिंह की शहीदी के बाद आपने भी अपने गुरूपिता से युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी, गुरू जी ने बाबा जुझार सिंह को भी खुशी खुशी युद्ध में भेजा, ऐसे ही जौहर दिखाते हुए बाबा जुझार सिंह भी शहीद हुए। अपने दोनों बेटों को शहीद होते हुए देखकर गुरु जी ने चमकौर की गढ़ी से जैकारों से शाबाशी दी। यह था गुरू गोबिंद सिंह जी का प्रताप जो अपने बेटों को युद्ध में खुद लड़ने के लिए भेजते है और उनकी शहीदी पर प्रभु का शुकराना करते हैं। इन शहीदों की गाथा पढ़कर , सुनकर और आज लिखकर भी आखें नम हो गई। कोटि कोटि प्रणाम हैं बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह की शहीदी को।