पुणे महाराष्ट्र का एक ऐसा शहर है जहाँ दो तीन महिनाे में एक बार जाना होता रहा है। जब पहली बार यहाँ की हरी भरी ज़मीं पर क़दम रखा था तो यहाँ से लोनावला और खंडाला जाने का अवसर मिला था। वैसे भी खंडाला उन दिनों आमिर खान की फिल्म गुलाम के बहुचर्चित गीत आती क्या खंडाला से.... और मशहूर हो चुका था। पश्चिमी घाटों की वो मेरी पहली यात्रा थी जो आज तक मेरे मन में अंकित है।
डेढ़ साल पहले जब महाबलेश्वर और पंचगनी जाने का कार्यक्रम बना तो कुछ दिन पुणे में एक बार फिर ठहरने का मौका मिला। शहर की कुछ मशहूर इमारतों और मंदिरों को देखने के बाद पश्चिमी घाट के आस पास विचरने की इच्छा ने पर पसारने शुरु कर दिए। मुंबई के मित्रों से झील और हरे भरे पहाड़ों के किनारे बसाए गए इस शहर की खूबसूरती का कई बार जिक्र सुना था।
फिर ये भी सुना कि किस तरह ये शहर पूरी तरह विकसित होने के पहले ही ढेर सारे विवादों में घिरता चला गया पर इस शहर को एक बार देखने की इच्छा हमेशा मन में रही।
अक्टूबर के तीसरे हफ्ते के एक सुनहरे चमकते हुए दिन हमारा काफिला दो कारों में सवार होकर खड़की से लवासा की ओर चल पड़ा। पुणे में ज्यादा ठंड तो पड़ती नहीं। महीना अक्टूबर का था तो मौसम में हल्की गर्मी थी। वैसे तो पुणे से लवासा की दूरी साठ किमी से थोड़ी कम है पर आधा पौन घंटे तो पुणे महानगर और उसके आसपास के उपनगरीय इलाकों से निकलने में ही लग जाते हैं। फिर तो आप पश्चिमी घाट की छोटी बड़ी पहाड़ियों की गोद में होते हैं।
टेमघर बांध खड़कवासला और वारसगाँव की तरह पुणे शहर की पानी की जरूरतों को पूरा करता है। ये सारे बाँध मुठा और उसकी सहायक नदियों पर बने हैं। टेमघर से लवासा के बाहरी द्वार तक पहुँचने में मुश्किल से बीस मिनट लगते हैं। ये पूरा रास्ता घुमावदार और चढ़ाई वाला है। कभी तो घास के चारागाहों से भरी पूरी पहाड़ियाँ बिल्कुल करीब आ जाती हैं तो कभी वारसगाँव का जलाशय दूर से ही अपनी झलक दिखा जाता है।
आज से करीब एक डेढ दशक पहले लवासा को आज़ादी के बाद बनाए जाने वाले पहले हिल स्टेशन के रूप में प्रचारित किया गया। पश्चिमी घाट की मुल्शी घाटी में बने इस हिल स्टेशन की रूप रेखा का प्रेरणास्रोत इटली का कस्बा पोर्टोफिनो था। सौ वर्ग किमी के क्षेत्र में फैले इस इलाके में पाँच अलग अलग कस्बे बनने थे पर काम पहले चरण तक ही ठीक ठाक चला। जब मैं लवासा पहुँचा तो दोपहर हो चुकी थी। लावसा के लिए हमें मुल्शी घाटी की तलहटी तक जाना था। पर शहर का पूरा दृश्य देखने के लिए हम सब पहले ही उतर लिए।
ऊपर से घने जंगलों के बीच भूरी छतों वाले घरों की समानांतर फैली कई कतारें नज़र आ रही थीं जो कि लवासा झील के पास खत्म हो जाती थीं। कुछ घर और ऊँचाई पर हरियाली के बीच एकांत खड़े दिख रहे थे। लवासा शहर के अंदर जाने के लिए पर्यटकों के लिए एक शुल्क और रास्ता निर्धारित है जिनसे होकर आप इस शहर के एक हिस्से का दीदार कर सकते हैं।
नीचे उतरते हुए में लवासा शहर के पहले कस्बे दासवे (Dasve) से गुजरा। भरी दोपहरी में ये कस्बा शांत शांत और उजाड़ सा लग रहा था। जो थोड़ी बहुत भीड़भाड़ थी वो हमारे जैसे लवासा घूमने आए लोगों की थी। झील के पास कुछ छोटे बड़े भोजनालय थे। इतनी तीखी धूप में झील तक जाने की तुरंत हिम्मत नहीं हो रही थी। थोड़ी देर विश्राम और फिर जलपान कर हम सभी नीचे उतरे।
नीले हरे पानी के साथ रंगीन इमारतों की चारों ओर बिखरी कड़ियाँ और उनके पीछे सीना ताने खड़ी हरी भरी पहाड़ियाँ आँखों के साथ मन को भी सुकून पहुँचाती हैं। रंग हमारी मानसिक अवस्था को कितना प्रफुल्लित कर सकते हैं ये हमें पता ही है पर अब तो क्या शहर और क्या झोपड़पट्टियाँ सबकी दीवारों में रंगों के अद्भुत प्रयोग संसार के कोने कोने में होने शुरु हो गए हैं। लवासा भले ही इटली के समुद्र के किनारे कस्बे से प्रेरित हो पर इसने एक प्रेरणा तो दे ही दी है रिहाइशी इलाकों को अलग अलग रंगों में सजाने की।