ओरछा के चतुर्भुज मंदिर और रामराजा सरकार को लेकर कई तरह की दंतकथाएँ प्रचलित हैं। लेकिन जो मैंने कहीं सुनी आज उसी को बांचूं।
जनश्रुतियों के अनुसार ओरछा के राजा मधुकर शाह श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे और उनकी धर्मपत्नी गणेश कुंवरी प्रभु श्रीराम की उपासक थीं। एक बार रानी ने प्रतिज्ञा ली कि ओरछा में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर स्थापित करके रहेंगी। रानी राजा को बिन बताए कुछ सैनिकों और परिजनों के साथ अयोध्या प्रस्थान कर गईं और महल के पास ही एक भव्य मंदिर बनाने का आदेश दिया। रानी ने अयोध्या पहुँचकर कई दिनों तक उपवास किया। कहते हैं कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर प्रभु ने स्वयं उन्हें दर्शन दिए और वर माँगने को कहा। रानी ने भगवान से अपने साथ ओरछा चलने का आग्रह किया। इस पर भगवान तैयार तो हो गए लेकिन इस शर्त पर कि वे बाल रूप में ही जाएँगे और ओरछा पहुँचने के बाद ना उनके सिवा ना कोई राजा ना कोई रानी होगी।
प्रभु रानी के साथ बालरूप में ओरछा पधारे। महारानी उन्हें अपने साथ अपने महल में ले गईं। अगले दिन जब मंदिर में भगवान के स्वरूप को स्थापित करने का वक़्त आया तो भगवान श्रीराम ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे रानी को माता मानकर यहाँ आएँ हैं और वे महल में ही माण के साथ रहेंगे। इसके बाद इस भव्य मंदिर में प्रभु प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का विचार त्याग दिया गया और रानी का महल ही रामराजा मंदिर के रूप में विख्यात हुआ।
मंदिर की स्थापत्य कला
ओरछा स्थित चतुर्भुज मंदिर ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्मारक है। इस भव्यातिभव्य मंदिर का निर्माण महाराजा मधुकर शाह (1554-1592 ई.) ने महारानी गणेश कुंवर के आराध्य देव राजाराम की स्थापना हेतु प्रारंभ करवाया था, किंतु बुंदेलखंड पर मुग़ल आक्रमण और राजकुमार होरलदेव की मृत्यु के कारण यह पूर्ण ना हो सका। इस कारण रानी ने प्रतिमा को महल में ही स्थापित करवा दिया। मंदिर का निर्माण राजा वीरसिंह (1605-1627 ई.) के शासनकाल में पूर्ण हुआ। यह अतिविशाल मंदिर एक ऊँची नींव पर बना है जो तल विन्यास में गर्भगृह अंतराल व अर्द्धमंडप युक्त है। गर्भगृह का शिखर नागर शैली तथा कोनों पर लघु शिखर हैं। मंडप गुम्बदाकार शिखर से ताज सदृश्य अलंकृत है।