शादी, एक ऐसा पड़ाव है जो हर लड़की की ज़िन्दगी में कई बड़े बदलाव लेकर आता है और मेरी ज़िन्दगी में भी कुछ हटकर नहीं हुआ था। 25 वर्ष की उम्र में पिताजी ने मेरी शादी एक बड़े बिजनेसमैन से करवा दी थी। उसके बाद क्या था, बढती ज़िम्मेदारियाँ, घर वालों का ख्याल, पत्नी, बहु और कुछ सालों बाद माँ को रोल अदा करते करते सब कुछ बदल गया, आधी ज़िन्दगी निकल गई। कॉलेज में कई सपने बुने थे मैंने और उनमे से एक था मेरे घुमने का शौक। हमेशा दोस्तों को कहा करती थी कि पूरा भारत अकेले घूम कर आउँगी पर सबके सपने सच थोड़ी ना होते हैं।
शादी के 30 वर्ष पूरे हो चुके थे। पति अपना बिज़नस आगे ले जाने की वजह से आम तौर पर शहर के बाहर ही रहते थे। मेरे दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे। बेटा इंजिनियर था और बेटी पत्रकार। मैं घर पर अकेली रहती थी और इस अकेलेपन ने मुझे डिप्रेशन की ओर धकेलन शुरू कर दिया था। कई डॉक्टरों को दिखाया पर मुझे नींद आना और भूख लगना बंद हो चूका था। समझ नहीं पाती थी परेशानी क्या है। मेरी बेटी रूही मुझे रोज़ दिल्ली आने को कहती थी। वो मुझे किसी मनोचिकित्सक से मिलवाना चाहती थी।
मैं रोज़ सोचती थी कि क्या मैं दिमागी तौर पर इतनी बीमार हो चुई हूँ की मुझे मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ेगी। काफी दिनों के सोच विचार के बाद मैंने खुद को यह समझाया कि मुझे इस अकेलेपन को मात देनी होगी। मुझे इस डिप्रेशन से बहार निकलना होगा और इसलिए मैंने ठाना कि मैं बाहर घूमने जाउँगी। मैं पहली रूही के पास दिल्ली गई। वहाँ कुछ समय अपनी बेटी के साथ वक़्त बिताकर मुझे अच्छा तो लग रहा था पर वो सुकून नहीं मिल रहा था। मैंने उससे कहा की मैं कहीं बहार घुमने जाना चाहती हूँ। उसने मुझे आगरा, जयपुर, मेरठ जैसी कई जगहों का सुझाव दिया पर मैंने फैसला लिया कि मैं भोपाल जाउँगी।
भोपाल जाने का एक कारण था। मेरे बचपन की दोस्त सुषमा भोपाल में रहती थी और उसकी शादी के बाद मैं उससे कभी नहीं मिली थी। मेरी बेटी को मैंने सभी बातें बताई तो उसने दिल्ली से भोपाल की टिकट फटाफट बुक कर दी। टिकट बुक करते ही मेरी दिल की धड़कने बढ़ना शुरू हो गी। अजीब अजीब से ख्याल आने लगे की मैं अकेले सफ़र कैसे करुँगी, कैसे घूम पाऊँगी शहर और सुषमा के घर तक कैसे जाउँगी। मेरी बेटी के पास सुषमा वाली परेशानी का समाधान था। उसने फेसबुक पर सुषमा को ढूंढा और करीब आधे घंटे की मेहनत के बाद मैंने उसकी फोटो फेसबुक पर देखी। मेरी बेटी ने तुरंत उसको मेसेज भेजा। रूही का कहना था की अगर पता मिल जएयगा तो वो मुझे बता देगी पर फिलहाल मुझे भोपाल घूमने की तरफ ध्यान देना चाहिए। बेटी ने ओयो के ज़रिये मेरे लिए एक होटल में कमरा भी बुक कर दिया था। अगले दिन के सफ़र के बारे में सोचते सोचते मेरी रात कट गयी।
मैं सुबह घबराई हुई थी पर रूही ने मेरा हौसला बढ़ाया, बेटे ने भी फ़ोन कर के समझाया कि अगर मैंने ये यात्रा अकेले कर ली तो मैं कुछ भी कर सकती हूँ। मेरे पति ने मुझे हमेशा फ़ोन से जुड़े रहने का सुझाव दिया ताकि कोई भी दिक्कत हो तो वो मेरी मदद कर सकें। मैं कैब के ज़रिये नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँची। थोड़ी परेशानी के बाद मैंने ट्रेन का पता किया और प्लेटफार्म पर पहुँच गई। शताब्दी अपने समय से आ गयी थी। मैं अपनी सीट देखकर बैठ गयी। मुझे सुबह से शाम तक का सफ़र ट्रेन में काटना था। मैं उत्साहित भी थी और नर्वस भी। ट्रेन का सफ़र तो आसानी से कट गया। मैं शाम को भोपाल पहुँच चुकी थी। मेरी बेटी ने मेरे फ़ोन में जुगनू ऐप डाउनलोड किया था। इस ऐप की मदद से मैंने ऑटो बुक किया और अपने होटल तक पहुँच गई। होटल के कमरें में पहुँच कर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं अकेले यात्रा करने आई हूँ। मैंने बेटी के कहे अनुसार होटल से कुछ घूमने की जगह की जानकारी ली। अगली सुबह मैं घुमने के लिए तैयार थी।
मैं सबसे पहले भोजताल गई जिसे बड़ा तालाब भी कहा जाता है। भोपाल के निवासियों ने मुझे बताया की भोजतल मानव द्वारा बनाई की सबसे बड़ी झील है। मैंने वहाँ बोटिंग करने का फैसला किया। भोजताल का नज़ारा बहुत ही खूबसूरत था और मुझे बहुत ज़्यादा ख़ुशी हो रही थी कि मैं बाहर घुमने निकली हूँ। भोजताल का वातावरण बहुत ही शांत था और वहाँ का साफ़ पानी मुझे बहुत सुकून दे रहा था। खुली सवच्छ हवा, ठंडा वातारण और मैं बोटिंग कर रही थी। सब कुछ सपने जैसा लग रहा था। कुछ देर भोजताल पर शांति के पल गुज़ारने के बाद मैं गौहर महल के लिए निकली।
गौहर महल वहाँ से करीब 20 मिनट की दूरी पर था। भोपाल के बारे में यह कहा जाता कि इस शहर पर नवाबों की महारानियों का राज था । गौहर बेगम का राजमहल था यह गौहर महल। महल को देख कर मुझे ये एहसास हो गया था कि अपने समय में महल बहुत ही आलीशान होगा पर अब महल जर्जर हो चूका था जिसे सरकार की ओर से मरम्मत की ज़रूरत थी। गौहर महल की हिंदू और मुग़ल कारीगरी किसी को भी अचंभित कर सकती है। मुझे वहाँ के इतिहास के बारे में जान कर अच्छा लग रहा था। महल को थोड़ी देर देखने के बाद अब मुझे भूख लग रही थी इसलिए मैंने आस पास के एक ढाबे में जाकर खाना खाया। खाना बहुत ही स्वादिष्ट था, कम मसाले के साथ बिलकुल सिंपल। मैं सोच ही रही थी कि मेरा अगला पड़ाव क्या होना चाहिए तभी ढाबे वाले ने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ कहाँ घूम चुकी हूँ। सब जानने के बाद उन्होंने मुझे सुझाव दिया की मैं लक्ष्मी नारायण मंदिर चली जाऊँ।
मैंने मंदिर तक का ऑटो बुक किया और निकल पड़ी। अब मुझे अकेले घुमने में बहुत मज़ा आ रहा था। मैं अपने अन्दर एक अलग आत्मविश्वास महसूस कर रही थी। लक्ष्मी नारायण मंदिर शाम 4 से 8 बजे तक खुला होता है। बिरला मंदिर के नाम से प्रसिद्ध ये विष्णु और लक्ष्मी का मंदिर भोपाल के निवासियों के लिए एक अलग ही महत्व रखता है। मैं मंदिर के अन्दर गई और पूरे मंदिर का चक्कर लगाया। खुबसूरत पेड़ पौधे, फाउंटेन सब कुछ मन को खुश करने वाले थे। भगवान के दर्शन करने के बाद मैं वहाँ बैठ कर लोगों को निहारती रही। मुझे बहुत शांति मिल रही थी। शाम ढलने तक मैं वहाँ बैठी, फिर अपने होटल की ओर लौट गई। रात का खाना मैंने होटल में ही खाया। कई सालों बाद मैं अपनी वजह से थक गयी थी। परिवार से फ़ोन पर बात करके मैंने उन्हें सब कुछ बताया और फिर कब सो गई मुझे पता भी नहीं चला। सुबह जब कमरे की सफाई के लिए किसी ने दरवाज़ा खटखटाया तब मेरी नींद खुली। सुबह के 8:30 बज चुके थे। रूही का कई बार फोन आ चूका था। मैं उठ कर तैयार हुई और फिर रूही से बात की। उसने मुझे कहा की मैं ताज-ऊल-मस्जिद और वन विहार नैशनल पार्क ज़रूर जाऊँ। होटल के बाहर जाकर मैंने पोहा और जलेबी खाया जो आज तक का सबसे स्वादिष्ट पोहा जलेबी था। मैंने रूही से सुषमा के बारे में भी पूछा था तो उसने मुझे उसका पता और मोबाइल नंबर भेज दिया था।
अब मैं ताज-ऊल मस्जिद की ओर निकल चुकी थी। जब वहाँ पहुँची तो लगा ताज महल जैसी एक और खूबसूरती हमारे देश में मौजूद है। इस विशाल मस्जीद में 3 गुम्बद और 2 मीनार थे, उँचाई इतनी की जैसे आसमन छू रहा हो। 1877 में शाह जहाँ बेगम के आदेश पर इस मस्जिद को बनाने की शुरुवात हुई थी और ताज-ऊल-मस्जिद का अर्थ है मस्जिदों का सरताज। मस्जिद की कारीगरी, उसकी खूबसूरती, दुआ अदा करते लोग, वहाँ का माहौल ऐसा था जैसे अल्लाह हमारे सामने आ गये हों। बहुत सकरात्मकता थी उस जगह में, बहुत शांति। सुबह सुबह वहाँ जाकर मैंने अपने दिन की बेहतरीन शुरुवात की थी। कुछ देर वहाँ घुमने के बाद मैं बाहर आई और एक लस्सी पी। उम्र की वजह से मुझे थकान तो महसूस हो रही थी पर मेरे अन्दर जोश कम नहीं था। मैंने ऑटो बुक किया और वन विहार नेशनल पार्क की ओर निकल पड़ी।
वन विहार पहुँच कर मैं बहुत उत्साहित थी। मुझे प्रकृति से बहुत लगाव था इसलिए एक बार यहाँ आना चाहती थी। ₹15 की टिकेट लेने के बाद आप खुद इस नेशनल पार्क की सैर कर सकते हैं। नाना प्रकार के पेड़ों और जानवरों को देखकर मुझे बहुत मज़ा आ रहा था। मोर मेरे सामने बैठे थे, कछुवा और शेर मैंने पहली बार देखा था। मन में थोड़ा डर भी था कि यहाँ अकेली आई हूँ। पर फिर पूरा पार्क घूमने के बाद लगा बहुत अच्छा किया जो यहाँ आ गयी। एक घंटा घूमने के बाद मैं वहाँ से बहार आई और सुषमा के घर की ओर निकल गयी। सालों बाद उससे मिल कर मुझे बहुत ख़ुशी हो रही थी और मुझे पता लग गया था की मैं अपने अकेलपन से लड़ने को बिलकुल तैयार हूँ। अगले दिन मैं सुबह घर के लिए निकल गई।
इस बात को एक साल हो चुका हैं और आज मेरी सेहत भी बेहतर है और मैं कई नई जगह घूम चुकी हूँ। अपनी दुनिया देखने के ख्वाइश को पूरा करते हुए मुझे खुशी, आत्म-विश्वास और खुद पर गर्व इन सभी की अनुभूति हो रही थी। सफर में की गई गलतियों से मैंने ज़िंदगी के नए सबक भी सीखे और कई नए अनुभव भी जोड़े। शायद सच ही कहते हैं, उम्र तो बस एक नंबर है!
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