लुधियाना पंजाब का सबसे बड़ा शहर है| लुधियाना जिला आबादी और क्षेत्रफल में सबसे बड़ा है| लुधियाना को पंजाब का मानचैसटर भी कहा जाता है| लुधियाना शहर में 200 से ज्यादा कपड़े की फैक्ट्री है| लुधियाना पंजाब का औधोगिक महानगर है| लुधियाना जिले में बहुत सारी ईतिहासिक जगहें है | आज इस पोस्ट में हम इन जगहों के बारे में बात करेंगे|
1. महाराजा रणजीत सिंह वार मयूजियम लुधियाना
आज हम बात करेंगे पंजाब के सबसे बड़े और इंडस्ट्रीयल शहर लुधियाना में बने हुए महाराजा रणजीत सिंह वार मयूजियम की जालंधर जीटी रोड़ पर लुधियाना रेलवे स्टेशन से 6 किलोमीटर और लुधियाना बस स्टैंड से 10 किलोमीटर दूर बना हुआ हैं। आप जब भी लुधियाना आए तो इस मयूजियम को जरूर देखना। इसके साथ ही टाईगर सफारी लुधियाना चिडियाघर बना हुआ हैं। इस मयूजियम की टिकट 40 रुपये हैं, सोमवार को बंद रहता हैं। यह मयूजियम चार ऐकड़ में बना हुआ है। इस मयूजियम को पंजाब सरकार ने 1999 ईसवीं में शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के नाम पर बनाया हैं। जब आप टिकट लेकर अंदर जाते हो तो आपको आंगन में सबसे पहले शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का कुर्सी पर बैठे हुए शानदार बुत दिखाई देता हैं जो बहुत ही जीवंत लगता हैं। फिर आप कुछ सीढियों को चढ़कर मयूजियम के बड़े हाल में प्रवेश करते है, जहां सामने महाराजा रणजीत सिंह के राज दरबार की बहुत खूबसूरत तसवीर लगी हुई हैं, जिसमें सबसे पहले कुंवर शेर सिंह बैठे हुए हैं, फिर महाराजा रणजीत सिंह, साथ में महान जरनैल हरी सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और भाई संत सिंह जी बैठे हुए हैं। शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की तसवीर देखकर मन गदगद हो जाता हैं। इस मयूजियम में कुल 12 गैलरी बनी हुई हैं जिसमि प्राचीन भारत के ईतिहास, युद्ध जिसमें महाभारत युद्ध, सिकंदर और पोरस की तसवीर, पानीपत की लड़ाई , बाबा बंदा सिंह बहादुर, नवाब कपूर सिंह, सरदार बघेल सिंह, ऐगलों सिख वार और अन्य सिख योद्धाओं के बारे में बताया गया हैं। यहां जंग में इसतेमाल होने वाले शस्त्रों को भी रखा गया हैं।
इसके ईलावा भारतीरय नेवी गैलरी, कारगिल युद्ध गैलरी, पंजाब के महान फौजियों की तसवीरें, भारतीरय आरमी में मिले सैन्य पुरस्कारों दिखाया गया हैं। भारतीरय फौज की badges, dresses को भी प्रदर्शित किया हुआ है। मयूजियम के आंगन को भारतीरय सैना की तोपों, जहाज और टैकों से सजाया गया हैं। कुल मिलाकर आपको पंजाब के शानदार ईतिहास जानने, देखने और पढ़ने का मौका मिलेगा। अगर आपको ईतिहास पसंद हैं, युद्ध कला देखना अच्छा लगता हैं तो आप महाराजा रणजीत सिंह वार मयूजियम में दो घंटे आराम से देख सकते हो। महाराजा रणजीत सिंह पंजाब के सबसे हरमन प्यारे राजा थे, जिन्होंने मुगलों की सदियों तक रही राजधानी लाहौर को जीत कर सिख राज की सथापना की थी। जिस अफगानिस्तान को अमरीका आजतक नहीं जीत पाया वह भी महाराजा के राज्य का हिस्सा था। महाराजा रणजीत सिंह का राज अफगानिस्तान से लेकर पेशावर, लाहौर, मुलतान, पंजाब हरियाणा, लद्दाख और तिब्बत के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ था। सवर्ण मंंदिर अमृतसर में सोना चढ़ाने की सेवा भी महाराजा रणजीत सिंह ने ही की हैं। ऐसे महान महाराजा को नमन हैं, जब तक महाराजा रणजीत सिंह जीवत रहे तब तक अंग्रेजी हकूमत पंजाब पर कब्जा नहीं कर सके, उनकी मृत्यु 1839 ईसवीं में हुई|
गुरूद्वारा_टाहली_साहिब
गांव_रतन जिला लुधियाना
जिला लुधियाना में लुधियाना-मालेरकोटला हाईवे से थोड़ा हटकर एक मशहूर गांव हैं किला रायेपुर जो मिनी उलंपिक खेल के लिए मशहूर हैं, दूसरा मेरा ससुराल हैं समझ गए न ????
मेरी श्रीमती जी का गांव हैं, जो बड़े सरदारों का गांव हैं किला रायेपुर यह सरदारी भी इनको साहिब ए कमाल कलगीधर पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी ने बखशी है जिसका ईतिहास हम आज पढ़ेंगे।
गुरूद्वारा टाहली साहिब
दोस्तों दसवें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज दिसंबर 1704 ईसवी में आनंदपुर साहिब का किला छोड़कर चमकौर साहिब की जंग के बाद माछीवाड़ा, आलमगीर होते हुए किला रायेपुर गांव के बाहर दुलेअ गांव पहुंचे जहां गुरूद्वारा फलाही साहिब बना हुआ हैं, यहां गुरु जी ने अपने एक सिख मान सिंह को किला रायेपुर के सरदार भाई जटटू और भाई सवाई को अपने पास बुलाया, लेकिन यह दोनों सरदार गुरु जी के पास न गए न ही गुरू जी की बात सुनी। गुरु जी दोपहर को घोड़े पर सवार होकर वहां से कुछ ही दूर एक गांव रतन पहुंचे जहां यह टाहली साहिब बना हुआ हैं। जब यह बात किला रायेपुर की औरतों को पता चली कि उनके सरदारों ने गुरु जी की बात नहीं सुनी तो उन्हें बहुत बुरा लगा। अगले दिन माई सुलखनी की अगवाई में किला रायेपुर की औरतें प्रशादा लंगर तैयार करके गुरु जी के पास माफी के लिए गांव रतन पहुंची। कृपालु गुरु महाराज ने उनको माफ किया और बड़े प्रेम से उनका लाया हुआ लंगर छका और कहा आपने उन सरदारों की सरदारी रख ली , किला रायेपुर गांव में हमेशा सरदारी रहेगी, यह गांव हमेशा बड़े सरदारों का गांव रहेगा और यह सरदारी किला रायेपुर की औरतों के पास रहेगी। यह वर गुरू गोबिंद सिंह महाराज ने दिया था, जिसकी एक उदाहरण मेरी श्रीमती जी भी हैं, जो पूरी सरदारी से रहती हैं यह शायद गुरु जी का ही प्रताप ही हैं|
अपनी मरजी, खुले दिल से जिंदगी जीना। यहां के लोगों ने गुरू जी को कोई निशानी देने के लिए कहा तो गुरू जी ने टाहली की दातन करके उसको लगा दिया जो अब पवित्र टाहली साहिब बन गया है। पंजाब में गांव में बहुत सारे ईतिहासिक गुरुद्वारे हैं कभी समय निकाल कर आईए दर्शन करने के लिए।
शहीद सुखदेव थापर का घर
शहीदेआजम सरदार भगत सिंह और राजगुरु के साथ 23 मार्च 1931 ईसवीं को देश के लिए हंसते हंसते फासी चढ़ने वाले लुधियाना के रहने वाले वीर सुखदेव थापर जी की। सुखदेव थापर जी का घर लुधियाना शहर में लुधियाना रेलवे स्टेशन से मात्र 1 किमी दूर हैं। बहुत अफसोस की बात है इतने महान शहीद के घर को सरकार ने बिल्कुल नजरअंदाज कर रखा है , बहुत लोगों को यह भी नहीं पता होगा शहीद सुखदेव थापर जी लुधियाना के रहने वाले थे। इस बार जब मैं गुजरात यात्रा के लिए गया तो मेरी ट्रेन लुधियाना जंक्शन से बड़ोदा गुजरात तक थी और मैं सटेशन पर दो घंटे पहले पहुंच गया। मुझे यह तो पता था शहीद सुखदेव थापर जी का घर लुधियाना जंक्शन से थोड़ी दूर ही हैं , लेकिन कभी गया नहीं था । इस बार मेरे पास समय था मैं पैदल ही सटेशन से चल पड़ा शहीद सुखदेव जी के घर की ओर , लुधियाना घंटा घर से चौड़ा बाजार को पार करके , एक दो तंग गलियों में से गुजरता हुआ और आसपास के लोगों से पूछता हुआ मैं शहीद सुखदेव थापर जी के घर पर पहुंच गया। उनका घर तो बंद था , कहते है कुछ करमचारी हैं जिनकी डियूटी लगी हैं लेकिन वह 10 बजे के बाद आते हैं , कयोंकि मेरी ट्रेन थी इसलिए मैंने घर के बाहर लगे शहीद सुखदेव थापर के बुत को नमन किया। शहीद सुखदेव जी की कुरबानी बहुत बढ़ी हैं , लेकिन जैसा नाम शहीद भगत सिंह को मिला है शहीद सुखदेव थापर जी को सरकारों ने नजरअंदाज किया है। मेरे लिए तो शहीद सुखदेव थापर जी के घर की यात्रा किसी तीर्थ यात्रा से कम नहीं है । शहीद सुखदेव थापर जी का जन्म लुधियाना शहर में इसी घर में 15 मई 1907 ईसवी को हुआ था। मात्र 23 साल की उम्र में 1931 ईसवीं में आपको भगत सिंह और राजगुरु के साथ फांसी दे दी गई थी। आपके पिता जी का नाम रामलाल थापर और माता रली देवी थी। आपका पालणपोषन आपके चाचा जी ने किया था आपके पिता जी के देहांत के बाद। शहीद सुखदेव जी ने बहुत सारी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया था अंग्रेजों के विरुद्ध भारत को आजाद करवाने के लिए ।आपने लाहौर सैंट्रल जेल में भूख हड़ताल की लाला लाजपत राय की शहीदी के बाद भगत सिंह और राजगुरु के साथ मिलकर अंग्रेजी अफसर सांडर्स को मार गिराया ।फिर आपके ऊपर केस चला, जिसमें आपको फांसी की सजा सुनाई गई । सरकार को चाहिए आपके घर को राष्ट्रीय धरोहर में शामिल किया जाए , आपके घर की संभाल करके एक मयूजियिम बनाया जाए आपकी जिंदगी के बारे में बताया जाए ताकि हमारी अगली पीढियां इस महान शहीद को याद रख सके।
पंजाब का एक खूबसूरत गांव
गांव चकर
जिला लुधियाना
इस पोस्ट में पंजाब के लुधियाना जिले के एक खूबसूरत गांव चकर की बात करेंगे, जिसको चकर गांव के प्रवासी भारतीयों ने अपनी मेहनत और पैसे से चार चांद लगाए और उनका गांव पंजाब के सबसे खूबसूरत गांवों में शुमार हो गया।
चकर गांव की कहानी
पंजाब के दूसरे गावों की तरह जिला लुधियाना के चकर गांव के भी काफी लोग विदेशों में रोजी रोटी कमाने के लिए गए हुए हैं। प्रवासी भारतीय चाहे बाहरले मुलकों में चले जाते है लेकिन उनका दिल तो अपने गांव के लिए ही धड़कता है, ऐसे ही इंसान है सरदार अजमेर सिंह जो चकर गांव से कैनेडा पहुंच गए हैं और अपने गांव के लिए कुछ न कुछ करना चाहते थे। यही बात उन्होंने अपने दोस्तों को बताई, बस फिर कया था, सभी गांव की बेहतरी के लिए कुछ न कुछ करने के लिए सोचने लगे। अजमेर सिंह के कैनेडा के दोस्त अंग्रेज ईरवन मोरगन को जब यह बात पता लगी कि यह अपने गांव के लिए कुछ करना चाहता हैं तो ईरवन मोरगन ने अपने दोस्त को एक करोड़ की मदद की, बस इसी से आगे काफिला आगे बढ़ता गया। धीरे धीरे चकर गांव के दूसरे देशों में रहते हुए प्रवासी भारतीयों ने भी अपना सहयोग देना शुरू किया। सारा पैसा इकट्ठा करके गांव की बेहतरी के लिए लगाया गया, और एक बात और चकर गांव में रहने वाले निवासियों से कोई पैसा नहीं लिया गया । सारा खर्च प्रवासी भारतीयों ने किया।सबसे पहले चकर गांव की रूपरेखा बदलने के लिए मासटर पलान तैयार किया गया। पूरे चकर गांव में सीवरेज सिस्टम बनाया गया, वह बात अलग हैं कि मेरे शहर बाघापुराना में आजतक सीवरेज सिस्टम नहीं बना। चकर गांव में सीवरेज डालने के लिए पहले एक बड़ा गढ्ढे को खोदा गया जहां सीवरेज का निकास हो सके। चकर गांव के सुंदरीकरण के लिए 200 मजदूरों ने दो साल मेहनत की और चकर गांव की खूबसूरती को चार चांद लगा दिए। चकर गांव में विश्राम घर, लोगों के बैठने के लिए बैठक, सांझ घर, पढ़ने के लिए मिनी लाईब्रेरी, गांव की दीवारों पर सुंदर विचार और चित्रकारी की। गांव की पककी गलियों और सड़क वाली फिरनी बनाई गई।
मोरगन झील चकर
दोस्तों हम अक्सर पहाड़ों पर या चंडीगढ़ की सुखना झील पर बोटिंग करने के लिए जाते है लेकिन चकर गांव ने अपने तालाब को ही झील का रुप दे दिया। सीवरेज के लिए बनाए गढ्ढे से निकली मिट्टी से इस झील में एक छोटा सा टापू बनाया गया ताकि झील में तैरती बतखें और पंछी रात को टापू पर विश्राम कर सके नहीं तो बतखें सड़क किनारे आकर कुत्ते बिल्ली या हादसे का शिकार हो सकती थी। झील के बींच बने टापू पर पंछी और बतखें खेलते रहते हैं। इस झील का नाम ईरवन मोरगन के नाम पर रखा जिसने चकर गांव के लिए एक करोड़ की मदद की थी। ईरवन मोरगन बाद में चकर गांव में भी आया था जहां उसे सममानित किया गया। झील के किनारे बोट खड़ी हुई हैं आप मात्र 30 रूपये प्रति व्यक्ति के चार्ज से झील में बोटिंग कर सकते हो। एक बोट में चार वयक्ति बैठ सकते हो। आप पंजाब के इस खूबसूरत गांव की मोरगन झील में बोटिंग का नजारा भी ले सकते हो। झील के किनारे पर खानपान के लिए एक दुकान है जहां आप खाने पीने का आनंद ले सकते हो। दोस्तों चकर गांव मेरे घर से 40 किमी दूर, लुधियाना से 50 किमी दूर, मेरे सुसराल जाने वाले रास्ते में आता है। यह सारी जानकारी मैंने गांव वासियों से इकट्ठा की थी जब मैं चकर गांव गया था। वहां ही मैंने झील के किनारे बनी दुकान में कोलड काफी का आनंद लिया था, कुछ समय झील किनारे लगे वृक्षों के नीचे बैंच कर बैठकर झील की सुंदरता को निहारते मैंने इस गाँव को अलविदा कहा|
गुरूद्वारा मंजी साहिब
गांव आलमगीर
जिला लुधियाना
आज हम दर्शन करेंगे गुरुद्वारा आलमगीर साहिब के जो दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ संबधित हैं। यह गुरुद्वारा लुधियाना शहर से दस किलोमीटर दूर लुधियाना- मालेरकोटला हाईवे से थोड़ा सा हट कर हैं। वैसे मैं अकसर पंजाब के और दूसरे राज्यों के गुरुद्वारों के दर्शन करता रहता हूँ पर यह गुरुघर मेरे जीवन में बहुत खास हैं कयोंकि 2014 में जब मेरी शादी हुई थी तो अपनी श्रीमती और उसके परिवार से बातचीत करने के लिए मैं अपने परिवार के साथ गुरुद्वारा आलमगीर साहिब में ही गए थे कयोंकि यह गुरुघर मेरे सुसराल वालों से बहुत पास हैं। इसी गुरुघर में हम दोनों के रिश्ते पर मोहर लगी। मैंने भी गुरु जी का नाम लेकर सब कुछ गुरु पर ही छोड़ दिया। गुरु कृपा से आजतक सब कुछ सही चल रहा है।
#गुरूद्वारा_मंजी_साहिब
यह गुरुद्वारा दसवें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी से संबंधित हैं। गुरु जी 1704 ईसवीं में चमकौर साहिब की जंग से होते हुए पैदल माछीवाड़ा गांव पहुंचे थे जिसके बारे में अलग पोस्ट में लिखूंगा। माछीवाड़ा से गुरु जी उच्च के पीर के रूप में आलमगीर साहिब पहुंचे थे। भाई नबी खां और भाई गनी खां , भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह और भाई मान सिंह की सहायता से गुरु जी नीले बसतर धारण करके उच्च का पीर बनकर माछीवाड़ा से आलमगीर साहिब आए थे। रास्ते में मुगल सैना आपके पीछे लगी हुई थी। यहां पहुंच कर गुरु जी ने नीले बसतर उतार पर तीन दिन तक विश्राम किया। यहां से ही गुरु जी ने नबी खां और गनी खां को प्रेम सहित अपने घर वापिस भेजा जो मुसलमान होने के बावजूद भी गुरु घर के अनिन सेवक थे। यहां पर ही गुरु जी के श्रद्धालु ने गुरु जी को घोड़ा भेंट किया, जिस घोड़े पर सवार होकर गुरु जी रायकोट की ओर बढ़ गए। गुरु घर की ईमारत बहुत शानदार है। यहां पर खानपान और रहने की उचित सुविधा हैं। जब भी आप लुधियाना आए तो दस किलोमीटर दूर इस ईतिहासिक गुरुद्वारा के दर्शन जरूर करना।