26 जुलाई 2016: मिशन लद्दाख का पांचवा दिन। भरतपुर में किसी तरह टूटी-फूटी नींद के साथ रात गुजारकर आँख खुली तो सुबह के छह बज रहे थे। धूप भी खिल चुकी थी, फिर भी आधे घंटे तक बिस्तर पर पड़ा रहा। सभी ग्रुप वाले भी ऊँघ ही रहे थे। बाहर निकला, सिर का भारीपन अब दूर हो चुका था, शायद ऊंचाई पर रहने के अनुकूल हो चुका था। रास्ते पर फिर से बाइकर दिखने लगे। हमें भी जल्द ही निकलना था। मेरे साथ कमल भी नल के पास ब्रश करने आ गया। लेकिन ब्रश करने के वक़्त अचानक ये क्या? पता नहीं, कुछ अजीब सा महसूस हुआ, और दोनों को ही उल्टियां शुरू हो गयीं। नाक से भी शायद कल का जमा खून निकल गया। जो कल होना था, आज सुबह हो गया। खैर जो भी हो, उल्टी के बाद और अधिक हल्कापन लगने लगा और खाने की इच्छा भी फिर से जाग उठी। गरमा-गरम चाय-बिस्कुट लेने के बाद फिर से लेह की ओर बढ़ चले।
मोर के मैदान
लेह अब भी हमसे 270 किमी दूर था, और आगे हड्डियाँ तोड़ देने वाले रास्तों का सामना करना बाकि था।
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कुछ दूर पथरीले रास्ते मिले, फिर भारतीय सेना की छावनियों वाले इलाके शुरू हो गए, अब रास्ते बेहतर थे, जिस कारण गति बढ़ गयी। भरतपुर से बीस-पच्चीस किमी की दूरी पर सरचू है, जहाँ आम ग्रामीण तो नहीं, पर सेना के जवान खूब दिखने लगे। यहाँ फिर से एक चेक पोस्ट था, जहाँ हमें अपनी आने-जाने की सूचना लिखनी पड़ी। सबसे अच्छी बात यह लगी की सेना के जवान यहाँ राहगीरों को सिर्फ खाता भरने के लिए ही रोक नहीं रहे थे, बल्कि उन्हें मुफ्त के नाश्ते का भी दावत दे रहे थे। भूख तो लगी ही थी, जी भरकर चाय-हलवा-पकोड़े उड़ाना, वो भी सेना के जवानों के साथ, जीवन का एक अनूठा ही अनुभव रहा। मैंने फोटो खींचना चाहा, पर सुरक्षा कारणों से यहाँ वर्जित था।
सरचू हिमाचल प्रदेश की आखिरी सीमा पर है, और अब हमें जम्मू-कश्मीर प्रवेश करना था। सरचू के चेक पोस्ट पार करते ही मैंने देखा की आगे एक भूस्खलन हुआ है, सड़क पर बजरी गिरी है, रास्ता जाम है, लेकिन एक जेसीबी मलबे को हटा भी रहा है। मलबे के उस पार गाड़ियां फसी हुई थीं, इधर हम भी इंतज़ार करते रहे। लेकिन दोपहिये वाहन होने का फायदा उठाते हुए जरा सी सड़क साफ होते ही मैंने बाइक झट से आगे निकाल दी। मुसीबत अभी ख़त्म नही हुई, आगे गाड़ियों की इससे भी लम्बी कतार थी। एक जर्जर पुलिया के मरम्मत का काम चल रहा था। इधर सड़क पर चालीस-पचास फीट लम्बा नाला भी था जिसपर हम खड़े थे। छह इंच गहरे पानी के तल पर गोल-गोल पत्थरों के बिछे होने के कारण बाइक संभालना काफी दुष्कर होता गया, जूतों के अन्दर भी पानी समाने लगा। करीब एक घंटे बाद पुलिया पर फिर से आवागमन शुरू हुआ, गाड़ियां एक-एक कर रेंगते हुए आगे बढ़ चली।
अब हम जम्मू-कश्मीर में थे यानी लद्दाख में प्रवेश, लेकिन लद्दाख जैसे भौगोलिक नज़ारे तो हिमाचल में ही शुरू हो चुके थे। गाटा लूप की शुरुआत हुई, बिलकुल वैसे ही नज़ारे जैसे इन्टरनेट पर आप लद्दाख के घुमावदार फोटो में देखते हैं, ऐसा लगता मानो हम पृथ्वी पर न होकर मंगल ग्रह पर ही हों! अपने से नीचे के वाहन चीटियों से रेंगते जान पड़ते, जबकि ऊपर के वाहनों को देखकर डर लगता न जाने कब हमारे ऊपर ही लुढ़क जाय! गाटा लूप की दिलचस्प बात यह है की पुराने ज़माने में जब सड़क नहीं थी, तब पगडंडियों की सहायता से व्यापार होता था और ऐसे पगडंडियों के अवशेष आज भी स्पष्ट दिखाई देते हैं।
लूप ख़त्म होने के बाद 15000 फीट की ऊंचाई पर फिर से एक दर्रा आया नकीला, पर इस बार तेज धूप होने के कारण ठण्ड कम लगी। कुछ विदेशी महिला पर्यटकों से बात हुई, वे पोलैंड से आये थे। मैंने उनसे सिर्फ इतना ही पूछा की "How are you feeling in India?" उनका जवाब था "Great! Absolutely great! वैसे लद्दाख में सबसे ज्यादा पर्यटक रूस और इजरायल से आते हैं।
नकीला के आगे का रास्ता अब बेहद खराब था। इसी बीच मेरे कैमरे की बैटरी भी जवाब दे गयी, अब साथियों के कैमरे का ही भरोसा रह गया। आगे एक जगह था- विस्कीनाला, यह नाम मुझे सुनने में जरा हास्यप्रद लगा। इसके आगे एक और दर्रा है- लाचुंग ला जो करीब 16000 फीट से अधिक ऊंचाई पर है। यहाँ से बीस-पच्चीस किमी आगे पांग नाम का एक गाँव है, जहाँ कुछ ढाबे और दुकानें हैं, और हमें अगला ठहराव भी वहीँ लेना था। लेकिन पांग से पहले जिस प्रकार के दृश्य दिखे वे मुझे लेह-मनाली हाईवे के सबसे अधिक बीहड़ और खतरनाक लगे। कहीं कहीं रास्तों की मरम्मत के दौरान सड़क काफी संकरे पड़ गए थे और अगर सामने से कोई ट्रक आया, तो बाइक का भी निकालना काफी मुश्किल काम था, खाई में गिरने की प्रबल सम्भावना थी।
लेकिन दूसरी ओर इधर प्राकृतिक नज़ारे भी बड़े अद्भुत थे। बंजर पहाड़ों पर अजीबोगरीब किस्म की संरचानाये बनी हुई थी, ऐसा लगता मानो किसी मूर्तिकार ने इन्हें ऐसा रूप दिया हो! इनमें से कुछ आकृतियाँ किसी जीव या इंसानी शक्ल जैसी भी लग रही थी।
रास्ते खराब रहने के कारण हमारे साथी जो पीछे कार से आ रहे थे, कुछ ज्यादा ही पिछड़ चुके थे। इसी बीच एक सुन्दर सा छोटा सा झील मिला जिसके चारो तरफ पहाड़ एकदम दीवारों की भांति खड़े थे! अनेक लोग यहाँ रुक-रुक कर तस्वीरें लेने में जुट गए। इसी हड़बड़ी में एक विदेशी जबरदस्ती एक ट्रक के बगल से गुजरकर आगे निकलने की कोशिश करने लगा। फिर अपनी आँखों से उसे खाई में गिरते हुए देखा, सभी सकते में आ गए, हालाँकि यहाँ खाई अधिक गहरी तो नहीं थी, वह तो कूदकर बच गया किसी तरह, पर उसकी बाइक अब चलाने लायक न रही। रोड बनाने वाले मजदूरों की सहायता से किसी तरह उसकी बाइक ऊपर घसीट कर लायी गयी, पर हैंडल और टंकी नष्ट हो चुके थे।
पांग अब भी हमसे कम से कम बीस किमी तो था ही और एक घंटे से भी अधिक समय का लगना निश्चित था, हम धीरे-धीरे बढ़ते ही रहे। हिचकोले खाते, डगमगाते, धूल खाते हुए- यह अब तक का सबसे कठिन डगर रहा। पूरा शरीर धूल-मिट्टी से सन चुका था। राहत तो तब ही महसूस हुई, जब एक गाँव में एक ढाबा दिखाई पड़ा और यही पांग था।
पांग के इस ढाबे में खाने-पीने के साथ-साथ बिस्तर भी लगे थे। कुछ ही दूरी पर सेना का एक कैंप भी था जहाँ सैटेलाइट फोन की सुविधा थी। शायद पांग में रात गुजारने वाले यही आकर रुकते हों, लेकिन यह जगह भी काफी ऊंचाई पर है, 15000 फीट से ऊपर, जहाँ रुकना कष्टदायक हो सकता है। बिस्तर पर बैठते ही जोर की झपकी आने लगी और आँखे बंद हो गयी। कुछ देर बाद हमारे साथी कार वाले भी आ गए। उनकी हालत हम बाइकरों से ज्यादा खराब थी, और आगे बढ़ने की उनकी हिम्मत जवाब देने लगी, इसी कारण एक ने आज पांग में ही रात बिताने का सुझाव दे दिया। लेकिन आज ही लेह पहुँचने की जल्दी सबको थी, सबकी छुट्टियाँ भी सीमित थी। कल रात भरतपुर में राजमा-चावल दिया गया था, अभी रोटी-सब्जी मिली। रोटियां तो काफी सख्त थीं, किन्तु भूख में सब चलता है।
दोपहर के तीन बज चुके थे, और लेह अब भी 170 किमी दूर था ही। लेकिन यह बात भी हमें मालूम था की आगे मोर का मैदान आने वाला है जिसकी लंबाई साठ-सत्तर किमी है, मात्र एक-डेढ़ घंटे में ही इतनी दूरी तो आराम से तय हो ही जायगी। ढाबे वाली महिला ने भी कहा की आगे रास्ता अच्छा ही मिलेगा। बस यही सोच लेह की तरफ फिर से बढ़ चले।
मोर के मैदान शुरू होते ही एक लम्बी-चौड़ी घाटी दिख पड़ी, पहाड़ काफी दूर जा चुके थे, और एकदम समतल रास्ता शुरू हो चुका था। दो दिन से उबड़-खाबड़ रास्तों का सामना करने के बाद ये समतल भूमि काफी आनंददायक लग रही थी। समय की क्षतिपूर्ति करने के लिए मौके का फायदा देख हमनें भी अपनी गति तेज कर दी, और लेह-मनाली राजमार्ग में पहली बार हम सत्तर किमी प्रतिघंटे से अधिक की गति से दौड़ रहे थे, हालाँकि हवा में ऑक्सीजन की कमी होने के कारण गाड़ियों को पूरी शक्ति नहीं मिल पा रही थी।
साठ सत्तर किमी तक के समतल रास्तों को खत्म करने में सिर्फ डेढ़ घंटे ही लगे, जबकि इतनी दूरी पहाड़ो पर तय करने में तीन-चार घंटे लगते थे। बुरी सड़कों का दौर अब लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुका था, और डेबरिंग के आगे एक अंतिम दर्रा था तंग्लन्गला। 17000 फीट से अधिक ऊँचा यह दर्रा भी खारदुन्गला के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा रोड माना जाता है। हर दर्रे की भाँती यहाँ भी ठण्ड का महसूस होना लाजिमी था।
अभी शाम के पांच ही बजे थे, और लेह मात्र सौ किमी ही बचा रह गया था। अच्छी सड़कों के कारण बिना रुके बड़े आराम से हम बढे जा रहे थे। अचानक सड़क पर पहली बार मुझे कोई जीव चूहे की भांति दौड़ता दिखाई पड़ा, न जाने इन बीहड़ों में वे क्या खाते होंगे? बाद में जाना की इन्हें फ्यांग कहा जाता है। एक ठन्डे मरुस्थल होने के कारण मुझे अब तक कोई प्राणी नजर नहीं आया था- न कोई मच्छर, न कोई कीड़ा, पेड़-पौधे भी नगण्य।
आगे सड़क के दायीं तरफ एक चौड़ी और तेज धार वाली नदी दिखी, सड़क बनाने वाले कुछ मजदूरों से मैंने पूछा "भाई, ये कौन सी नदी है? बोले "नहीं पता!" मैंने सोचा आश्चर्य है! फिर पूछा "कहाँ से आये हो"? कहा "झारखण्ड से", तभी जाकर समझा की इन्हें नदी का नाम क्यों नही पता, कोई स्थानीय लद्दाखी होता तो आराम से बता देता। वैसे अपने झारखण्ड के लोगों को यहाँ देख मैं भी बहुत चकित रहा, पेट की आग इंसान को कहाँ-कहाँ ले जाती है! मैंने अपनी बाइक का नम्बर प्लेट की ओर इशारा करते हुए कहा, "देखो! हम भी तो झारखण्ड से ही हैं!" वे मुस्कुराने लगे।
लेह से ठीक पचास किमी पहले उप्सी में फिर से एक चेक-पोस्ट आया, साथ ही हमलोगों ने अगला पड़ाव भी यहीं ले लिया। चेक-पोस्ट पर उपस्थित गार्ड से फिर से नदी का नाम पूछा तो उसने कहा की यही इंडस नदी है, यानी सिन्धु। जीवन में पहली बार इस नदी को देख रह था, जो भारत के विभाजन के बाद भारत में सिर्फ लद्दाख में ही बहती है और पाकिस्तान चली जाती है।
उप्सी के बाद शहरी इलाका शुरू हो चुका था, घनी बस्तियां दिखने लगी थी, आबादी भी नजर आने लगी। अब सब कुछ समतल लग रहा था। ठण्ड भी कुछ खास न थी। यह मालूम था की इसी रस्ते में प्रसिद्द थीकसे मोनास्ट्री भी है, पर अँधेरे में कुछ समझ न आया, बस मन में किसी तरह आज लेह पहुँच जाने की धुन थी। अँधेरी-उजाले गलियारों और सडकों से गुजरते हुए आखिरकार एक बड़े से गोलचक्कर पर हम सब रुके। रात के नौ बज रहे थे, और यही था सपनों का लेह!
लेकिन कमल हमसे कहीं पीछे छुट गया था, और अचानक एक स्थानीय व्यक्ति ने सुचना दी की वो दुर्घटनाग्रस्त होकर कही गिर पड़ा है। सब चिंतित हुए, और वापस उसे खोजने निकल पड़े। लेकिन सौभाग्यवश वो ठीक-ठाक था, मामूली चोटें ही आई थी, उसने कहा की अँधेरे में रास्ते का डिवाइडर नदी दिखने के कारण उसने बाइक चढ़ा दी थी। इसी बीच उस स्थानीय व्यक्ति को उसने कहा था की आगे जाकर कुछ झारखण्ड की गाड़ियां मिलेंगी, उन्हें कह देना की मैं यहाँ हूँ। दरअसल उसकी बाइक पहले से ही ओवरलोड में थी, पीछे उसका भाई भी बैठा हुआ था, इस कारण अँधेरे में संतुलन बिगड़ गया होगा।
इस घटना के कारण रात दस बज चुके, होटल भी नहीं ढूंढा था, बुकिंग भी न थी, लेकिन अचानक कोई होटल का एजेंट आया, अपना होटल ले जाकर दिखा भी दिया। होटल के कमरे पसंद भी आ ही गए, मोल-तोल कर पंद्रह सौ रूपये प्रति कमरे की दर से उसी के होटल में रुकना हम सबने मुनासिब समझ लिया।
इस सफर के दौरान की कुछ तस्वीरें --
भरतपुर से प्रस्थान करती हमारी टीम
सरचू के पास एक सड़क जाम
गाटा लूप
नकिला
अजीबोगरीब आकृतियों वाले रास्ते
पांग में एक पड़ाव
मोर के मैदानों में समतल रास्ते
तंगलंगला
लेह में हमारा होटल
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