अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भारत ही नहीं बल्कि पुरी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ समुद्र तटों के लिए विश्व-प्रसिद्द हैं। परंतु टापू होने के कारण यहाँ ट्रेन-बस से सस्ते में तो पहुँच सकते नहीं, जलमार्ग में समय काफी लगेगा और नियमित चलती भी नही, और हवाई जहाज के महंगे सफ़र के कारण हर किसी के लिए यहाँ पहुँच पाना आसान नहीं। यही कारण है की लम्बे समय से अंडमान यात्रा एक सपना ही बना हुआ था।
अंडमान के हवाई नज़ारे
***अंडमान के अन्य पोस्ट***
अंडमान-निकोबार देश की मुख्य भूमि या Mainland से करीब बारह सौ किमी की दूरी पर स्थित है, जहाँ तक जलमार्ग से जाने के लिए कोलकाता, चेन्नई या विशाखापत्तनम से पानी जहाज की सुविधा तो है, पर यात्रा लगभग साठ घन्टों की होगी, वहीँ दूसरी ओर हवाई जहाज सिर्फ दो घंटों का ही वक़्त लेता है। किसी ज़माने में जब सिर्फ जलमार्ग ही उपलब्ध रहा होगा, उस समय शायद अंडमान यात्रा दुर्गम मानी जाती रही होगी, पर आज के ज़माने में यह अब दुर्गम नहीं रहा। जलमार्ग तो आज भी अनुभव प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ है, लेकिन अगर आप हवाई टिकट भी आठ-दस महीने पहले कराये तो जलमार्ग और हवाई मार्ग के किराये आस-पास ही होंगे, क्योंकि कोलकाता या चेन्नई से पानी जहाज का किराया दो-ढाई हजार के आस-पास होगा, जबकि हवाई किराया इतने महीनों पहले साढ़े तीन हजार से चार हजार तक का ही होगा। इसलिए मार्च 2017 में की गयी इस यात्रा की हवाई टिकट मैंने भी सस्ते में ही यानि 3750 रूपये-एक तरफ की, आठ-दस महीने पहले ही करा ली थी। अब अंडमान जाने की समस्या तो हल हो गयी, लेकिन दूसरा प्रश्न यह उठता है की अंडमान आखिर कितने दिनों के लिए जाया जाय? आम तौर पर लोग चार-पांच दिन या एक हफ्ते के लिए जाते हैं। लेकिन सिर्फ एक हफ्ते में आप केवल दक्षिण अंडमान यानि पोर्ट-ब्लेयर-आस-पास, नील, हेवलॉक और मध्य अंडमान का ही दर्शन कर सकेंगे। अगर उत्तरी अंडमान में रंगत, दिगलीपुर आदि भी जाना हो तो कम से कम तीन दिन और चाहिए। कुछ लोग इससे भी अधिक का कार्यक्रम बनातें हैं जिन्हें और भी अधिक द्वीपों जैसे लिटिल अंडमान, लॉन्ग द्वीप आदि का भ्रमण करना होता है, लेकिन समय सबको इजाजत नहीं देता। इन सबका संतुलन बनाते हुए मैंने दस दिनों का कार्यक्रम बनाया- उत्तरी और दक्षिणी अंडमान का। अंडमान की टिकट मैंने लद्दाख जाने से भी पहले करा ली थी और आठ-दस महीनों से बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था, खूब जानकारियां भी जुटा रहा था। अंडमान के बारे यात्रा ब्लॉग भी बहुत कम ही लिखे गए हैं, फिर भी मुख्यतः तीन ब्लागों का सहारा मिला- हर्षिता जोशी जी का ourdreamtales.com, मनु प्रकाश त्यागीजी का travelufo.com और विद्युत् प्रकाश मौर्य जी का daanapaani.blogspot.in. इन सबमें मनु जी ने पुरे दस दिनों का कार्यक्रम लिख डाला है। अंडमान जाने वाले अधिकतर पर्यटक भारी-भरकम टूर पैकेजों का सहारा लेते है, जो काफी महंगे भी होते हैं। अंतर द्विपीय यात्रायें करने यानि पोर्ट ब्लेयर से नील या हेवलॉक जाने के लिए पीक समय यानि दिसंबर-जनवरी के वक़्त काफी भीड़-भाड़ के कारण पानी जहाज के टिकट न मिलने के डर से ट्रेवल एजेंटों का सहारा आम तौर पर लोग लेते ही हैं। लेकिन मैं मार्च में जा रहा था, यातायात की भी जानकारी ले ली थी, इसलिए सब कुछ खुद ही करने की ठान ली थी। 8 मार्च को सुबह साढ़े पांच बजे ही कोलकाता से पोर्ट ब्लेयर की उड़ान थी मेरी, और 7 को ही टाटानगर से कोलकाता पहुँच जाना था। लेकिन यात्रा से कुछ ही दिन पहले कुछ अपरिहार्य कारणों से पत्नी नहीं जा सकी और मुझे पूरी यात्रा अकेले ही करनी पड़ी। हवाई टिकट रद्द करने का जुर्माना भी काफी अधिक होता है, ट्रेन की टिकट तो हम इच्छानुसार कभी भी रद्द करा देते हैं। तो फिर इस यात्रा में अब थोड़ा मोड़ आ गया था, और मेरे पास अकेले यात्रा यानि solo travel को भी एक बार अनुभव करने का मौका था। वैसे छोटी-मोटी यात्रायें तो मैंने भी अकेले बहुत की है, पर यह अब तक का सबसे लंबा अवसर बन रहा था- पूरे बारह दिनों का ! मैंने बहुत सारे धुरंधर घुमक्कड़ों के अकेले यात्रा वृतांत को पढ़ा है, जिनमें कई तो सिर्फ अकेले ही घूमना पसंद करते हैं, किसी के साथ तो बिल्कुल भी नहीं ! आखिर अकेले घूमने के भी अपने अलग फायदे होते हैं, जो समूह में नहीं मिल सकते। 7 मार्च को दोपहर ढाई बजे टाटानगर से कोलकाता की ट्रेन पकड़ी। अकेले में जब कोई बात करने वाला न हो तो हेडफोन लगा गाना सुनना मेरा पसंदीदा शौक है और इसकी मदद से मैं ट्रेन में घंटों बिता सकता हूँ, और जब खिड़की वाली सीट मिले तो फिर कहना ही क्या! टाटा से कोलकाता सिर्फ चार घंटे का ही सफर होता है, और मार्च का मौसम यानि ठण्ड की समाप्ति, दिन की लंबाई में वृद्धि की शुरुआत, इसलिए कोलकाता पहुँचने तक ज्यादा अँधेरे की उम्मीद न थी, पर ट्रेनें तो लेट होती ही हैं, आधे घंटे की देरी में ही आखिर अँधेरे ने छू ही लिया और शाम के सात बज गए। कोलकाता में हमारे घुमक्कड़ी दिल से ग्रुप के एक सदस्य किशन बाहेती जी रहते है, और मुझे सीधे उनके पास ही जाना था। एक और सदस्य संदीप मन्ना जी भी कोलकाता में ही रहते हैं पर व्यस्तता के कारण उनसे मिलना न हो पाया। बड़े शहरों में बसों का एक बहुत बड़ा नेटवर्क होता है, कौन सी बस कहाँ जाती है, मुझे कुछ समझ न आता। परेशानी से बचने के लिए टैक्सी एक सुविधाजनक किन्तु महंगा साधन है। अकेले होने के कारण इस बार मैंने यहाँ की बसों को आजमाने का सोचा। हावड़ा रेलवे स्टेशन से बस स्टैंड जाने के लिए एक भूमिगत पथ बना हुआ है जिसकी जानकारी मुझे पहले न थी, पहले कई बार तेज दौड़ती गाड़ियों के बीच गुजर सड़क पार कर बस स्टैंड पहुंचा था। दिल्ली की तरह कोलकाता में भी एक चांदनी चौक है जहाँ किशन जी की दुकान है। दो-चार बसों को पूछने के बाद मुझे चांदनी चौक की बस आराम से मिल गयी, और आधे घंटे में ही किशन जी से मुलाकात हो गयी। किशन जी से यह तीसरी मुलाकात थी, लेकिन पहली मुलाकात में भी ऐसा बिल्कुल न लगा था की पहली बार मिल रहे हैं। हमारे घुमक्कड़ी समूह के हर सदस्य को एक दूसरे से मिलने पर ऐसा ही कुछ एहसास होता है। कोलकाता तो मिठाईयों के लिए प्रसिद्द है ही, तो किशन जी मुझे विवेकानंद रोड स्थित एक बड़े से दुकान (नाम याद नहीं) ले गए, और कुछ मिठाईयों को चखवाकर उनके नाम बताये, सिर्फ एक का ही नाम अभी याद है- जलभरा। इसी रोड पर उन्होंने स्वामी विवेकानंद की जन्म स्थली भी दिखाई। देर रात साढ़े दस बजे किशन जी मुझे अपने घर ले गए, कोलकाता एयरपोर्ट उनके घर से मात्र तीन किमी ही दूर है, इसलिए सुबह एयरपोर्ट पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी। एकदम सुबह-सुबह साढ़े पाँच बजे की उड़ान होने के कारण मुझे भी सुबह तीन बजे ही किशन जी से विदा लेना था, इसलिए उनके साथ सिर्फ चार-पाँच घंटे ही बिताने को बचे थे। रात्रि भोजन किशन जी के साथ एक ही थाली में किया, जो हमेशा यादगार रहेगा, हमारे यहाँ ऐसा रिवाज देखने को नही मिल पाता। भोजन के पश्चात घुमक्कड़ी से सम्बंधित बहुत सारी बातें होने लगीं, रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी, रात के डेढ़ बज गए। तीन बजे निकलना भी था, अब डेढ़ घंटे सो कर होगा भी क्या? फिर भी मोबाइल पर पांच-छह अलार्म लगा सोने की कोशिश की, कुछ देर झपकी ली, लेकिन फ्लाइट छूटने के डर ने मेरी पलकों को अधिक भारी न होने दिया और पौने तीन बजे ही उठ कर बैठ गया। जल्दी-जल्दी तैयार हुआ और तीन बजे किशन जी को न चाहते हुए भी जगाना ही पड़ा। मेन रोड से जरा अंदर होने के कारण यहाँ से टैक्सी से ही जाया जा सकता था, इसलिए उबर की टैक्सी बुक की, टैक्सी वाला पांच मिनट के अंदर लेने पहुँच गया। यह भी चौबीसों घंटे चलने वाली गजब की सेवा है, लेकिन छोटे शहरों में रात भर नही चलती। अब किशन जी से विदा ली- घुमक्कड़ी दिल से, मिलेंगे फिर से ! सड़क पर ट्रैफिक बहुत कम होने के कारण दस मिनट से भी कम समय में एयरपोर्ट हाजिर हो गया। मैं शायद कुछ अधिक पहले ही पहुँच गया था, साढ़े पांच बजे की फ्लाइट के लिए एयर इंडिया का काउंटर साढ़े तीन बजे ही खुलने वाला था। और मैं अंदर इधर-उधर टहलता रहा। काउंटर की और अचानक देखने पर लंबी लाइन बन पड़ी, और तुरंत लाइन में खड़ा हो गया। इससे पहले भी दो-तीन बार इस एयरपोर्ट पर आना-जाना हो चुका था। यह उड़ान अधिकतर समुद्र के ऊपर से ही होने वाली थी, पोर्ट-ब्लेयर उतरने के वक़्त टापुओं का दृश्य बहुत सुन्दर होता है, इसलिए खिड़की वाली सीट ही पहले से चुन रखी थी। पहले ऐसा विश्वास था की अंडमान तो हर रोज कोई थोड़े जाता होगा, पर देखा की रोजाना जाने वालों की कोई कमी नही है, एक भी सीट खाली नहीं है। लेकिन क्या सब घूमने ही जाते होंगे या फिर कुछ और काम से भी ? उड़ान अपने नियमित समय पर ही शुरू हुई, उगते सूरज की किरणें नीचे समुद्र के जल पर पड़ते ही लहरों को भी अपने रंग में चमकाने लगी और इसलिए इतने ऊपर से भी चमकते समुद्र को देखा जा सकता था, वरना आम तौर पर इतनी ऊंचाई से नीचे कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय बादलों के। दो घंटे भी नहीं हुए और अचानक ऊंचाई में कुछ कमी आई, पानी के बीच गहरे रंगों में जंगल नजर आने लगे, जो टापू ही थे। परंतु कुहासे के कारण फोटो ज्यादा अच्छे नहीं आ पाए। विमान की लैंडिंग भी जल्दी-जल्दी ही होने लगी, और सुबह पौने आठ बजे ही हम पोर्ट ब्लेयर में थे- एक नयी दुनिया में। लेकिन उतरने से पहले ही घोषणा हुई- पोर्ट ब्लेयर एयरपोर्ट पर फोटो खींचना सख्त मना है, फिर भी बाहर निकलने पर एक फोटो मैंने एअरपोर्ट गेट की जरुर ली। अब कुछ हवाई नजारों का आनंद लीजिये:
कोलकाता हवाई अड्डा
कुछ हवाई नज़ारे
सूर्योदय के वक़्त चमकता समुद्र
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