आज मैं आपसे बयाँ करने जा रहा हूँ एक ऐसी ज़मीनी हेराफेरी की, जिसने हमें पहली बार आसमान में उड़ने का मौका दिया। बात पाँच साल पहले की है जब मैंने घूमना शुरू किया था। मेरे एक दोस्त अरुण के साथ गोवा जाने का कार्यक्रम तय हुआ। जाना ट्रेन से ही था, मुम्बई होते हुए, फिर मुम्बई से गोवा जाने का कुछ तय नही था, बस या ट्रेन। हावड़ा मुम्बई मुख्य लाइन पर ही टाटानगर स्थित है इसीलिए टाटा से मुम्बई तक ट्रेनों की भरमार है। लेकिन साथ ही नक्सल प्रभाव के कारण एक से एक काण्ड भी हुए हैं। अक्सर इधर पटरियाँ उड़ा दी जाती हैं। 19 मई 2010 को टाटा हावड़ा मार्ग पर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हुई थी जिससे लगभग डेढ़ साल से अधिक समय तक रात्रि में ट्रेन चलना बंद था। हावड़ा से मुम्बई छूटने वाली सारी रात्रि ट्रेनों को सुबह चार बजे रवाना किया जाता था। इस तरह सारी ट्रेनें आठ दस घंटे लेट रहती थी।
हमें जाना था हावड़ा मुम्बई मेल से जो सामान्यतः अपने समय सारिणी अनुसार 12 बजे रात को टाटा पहुँचती थी। लेकिन उस दौर में उसे सुबह साढ़े आठ बजे पहुँचना था। 20 फ़रवरी 2011 का टिकट आरक्षित था, लेकिन देर से आने के कारण 21 फ़रवरी की सुबह साढ़े आठ बजे आने वाली थी। घुमक्कड़ी की पहली शुरुआत थी इसीलिए रात भर नींद ना आई। बचपन में काफी सपने देखा करता था की बड़ा होने पर यहाँ जाना है, वहाँ जाना है, सब हकीकत में बदलते नजर आने लगे। मैं 21 फ़रवरी 2011 की सुबह आधे घंटे पहले ही स्टेशन पहुँच गया, और अरुण का इंतज़ार करने लगा। उसके आने में देर हो रही थी। सवा आठ तक वो नहीं आया तो फोन घुमाया। कहा की आ रहा हूँ। हल्की बारिश भी थी। 8 बजकर 25 मिनट पर अरुण ने स्टेशन की दहलीज पर कदम रखा, साथ ही इधर घोषणा हुई की ट्रेंन 1 नबर प्लेटफार्म पर आ गई है। दौड़ कर दोनों ट्रेन में चढ़ गए...अरुण ने मुझे कहा "What a timing RD! " दोनों खुश थे बहुत।
बस फिर क्या था गोवा के हसीन सपनों में डूब गए। कभी समंदर भी ना देखा था। इस ट्रेन का समय सारिणी मैंने याद कर लिया था। अगला स्टेशन आने वाला था चक्रधरपुर।
ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। यह चाकुलिया था। मन में कुछ संदेह हुआ की ये स्टेशन तो सारिणी में नही है। हो सकता है अन्य कारण से कहीं रुकी हो। यह चाकुलिया, टाटा से लगभग 100 कि.मी. दूर था सोचा की अगला स्टेशन चक्रधरपुर हो सकता है, लेकिन हुआ सब उल्टा। कुछ देर बार एक और स्टेशन आया। ट्रेन की खिड़की से बाहर देखा तो पाया की हर जगह बंगला लिखा हुआ है। अपर बर्थ से हड़बड़ा कर नीचे उतर कर देखना चाहा बाहर। इसी क्रम में बगल में खड़े एक अंकल मेरे पैर से चोट लगते लगते बचे। बाहर निकल कर देखा तो यह खड़गपुर स्टेशन था, यानी पश्चिम बंगाल, जाना था पश्चिम दिशा में, लेकिन बंगाल तो पूर्व में है। यह सोचकर समझ गए की गलत ट्रेन में चढ़ गए हैं। पहली बार इधर आये थे, इसीलिए खड़गपुर भी पहली बार देख रहे थे। असल में टाटा नगर स्टेशन पर अप और डाउन दोनों ट्रेने एक ही वक़्त पहुँच गयी थी, इसीलिए हड़बड़ी में हमने अप वाली ना पकड़ कर डाउन वाली ट्रेन पकड़ ली थी, इसीलिए कोलकाता की ओर आ गए थे।
फटाफट मैंने अरुण से कहा "उतार जल्दी सब सामन! गलत ट्रेन है!" वो भी आश्चर्य से तुरंत उतरा और हम दोनों अब एक मुसीबत में फंस चूके थे। अब क्या किया जाय? पहले शांति से बैठ तो लें! एक और मुसीबत आ गयी। प्लेटफार्म से निकलते वक़्त ही TTE ने पकड़ लिया और टिकट माँगा। हमने अपनी कहानी सुनाई। लेकिन उसने नहीं माना। कहा की मुम्बई के टिकट से आपलोग कोलकाता की तरफ जा रहे हों। फाइन तो देना होगा, ₹700 दो लोगों का। बहुत बहसबाजी के बाद हमने उसे ₹300 दिए और पीछा छुड़ाया।
अब गोवा कैसे जाएँ इसपर चिंतन शुरू हुई। एक ट्रेन खड़गपुर से गोवा के लिए सीधी थी अमरावती एक्सप्रेस लेकिन उसमें टिकट मिलना अब मुश्किल था। तत्काल भी नहीं हो सकता था। एक बार सोचा जनरल टिकट में जाए लेकिन संदेह था की जा पाएँगे भी या नहीं। अरुण ने कहा चलो घर वापस चलते हैं। मैंने कहा छुट्टी ले ली है अब तो सब हमपर खूब हसेंगे। यह सुबह के 11 बजे का वक़्त था। ढेर सारे अन्य ट्रेनों का पता लगाया। पर कोई फायदा नहीं। घर वापस जाने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी। अब जो अंतिम उपाय मेरे मन में आ रहा था वो यह की फ्लाइट से ही चला जाय। अरुण ने कहा की क्या मज़ाक कर रहे हो! जितना बजट पुरे ट्रिप का रखा है उतना सिर्फ फ्लाइट का ही लग जाएगा! खैर मैंने मोबाइल में फ्लाइट का किराया देखना शुरू किया। देखा की पाँच हज़ार के आस पास कोलकाता से मुम्बई की फ्लाइट है। गोआ सीधे भी जा सकते थे पर आठ हजार किराया! भारी उधेड़बुन के बाद फ्लाइट से ही जाना तय हुआ और तीन घंटे तक खड़गपुर स्टेशन पर माथा खपाने के बाद फिर से कोलकाता की ओर एक अन्य ट्रेन ईस्ट कोस्ट एक्सप्रेस से दोपहर एक बजकर बीस मिनट पर चल पड़े। अगर पहले से ही फ्लाइट से जाना तय होता तो उसी ट्रेन में बैठे रह जाते लेकिन यहाँ तो मामला कुछ और ही था। जनरल टिकट थी। भीड़ बहुत, किसी तरह जा रहे थे, बेवकूफों की तरह।
दोनों में से कोई कभी कोलकाता नहीं गया था उस समय, एक छोटे शहर से बड़े महानगर की कोई जानकारी ना थी, एयरपोर्ट कैसा होता है, कैसे बुकिंग होता, दोनों अनजान, शाम के 4 बजे के आस पास हम हावड़ा पहुँच गए, थोड़ी देर विश्राम के बाद फिर बाहर की ओर निकले, तुरंत हावड़ा ब्रिज दिखाई दिया, अरे जिस कंपनी में काम करते हैं, उसी से स्टील से तो यह बना है! तुरंत यह बात याद आ गयी! कुछ देर विशाल हुगली नदी को निहारा। फिर एयरपोर्ट जाने का उपाय ढूँढना शुरू किया। टैक्सी वाले को पूछा तो उसने बताया एअरपोर्ट हावड़ा से 22 कि..मी दूर है, ₹300 लगेगा। सौदा पसंद न आया, बस ढूँढना शुरू किया, ये बड़े शहरों के बसों में नंबर सिस्टम का क्या लफड़ा है भला, किसी की बात समझ न आ रही थी, कौन सा बस पकड़ें?
अंत में एक बुजुर्ग सज्जन ने विस्तार से बस के बारे समझाया और हमने सही बस पकड़ी। रात के 8 बज रहे थे और हम कोलकाता के नेताजी सुभाष चन्द्र इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर थे। पहली बार कोई एयरपोर्ट देख रहे थे, कोई अग्रिम कार्यक्रम ना था, एक इमरजेंसी उड़ान थी, अद्भुत महसूस हो रहा था।
अब गोवा-मुंबई की फ्लाइट कब है, पता लगाना शुरू किया, सबसे पहले एयर इंडिया वालो के पास गए, कहा की मुंबई की फ्लाइट ₹5000 में उपलब्ध है, अगले दिन सुबह छह बजे, गोवा की ₹8000, अगर ट्रेन से जाते तो भी पहले मुंबई ही जाते, क्योंकि सुना था की मुंबई से गोवा रोड मार्ग से भी जाना चाहिए एक बार, इसीलिए सीधे गोवा की फ्लाइट ना लेकर मुंबई का ही लेना था।
कुछ अन्य एयरलाइन वालों के पास भी गए, लेकिन उनका किराया ज्यादा ही था, अंत में एयर इंडिया के पास ही जाना पड़ा, फिर भी उनके भाव भी मात्र आधे घंटे में ही ₹300 बढ़ कर ₹5300 हो गए थे।
तुरन्त अरुण ने एटीएम कार्ड से ही भुगतान कर दिया, अब अगली सुबह 6 बजे का इंतज़ार था, रात क़यामत की थी!
रात बिताने की समस्या आई, लेकिन एयरपोर्ट के आस पास के होटल देखने पर ही बजट के बाहर लगे, हम पूछने तक नहींं गए, बाद में पता चला की सुबह-सुबह की फ्लाइट हो तो एअरपोर्ट में ही रुका जा सकता है।
बस फिर क्या था,2011 का क्रिकेट वर्ल्ड कप चल रहा था और भारत -इंग्लैंड का मैच था, रात तो आराम से कट जाना था, कुर्सी पर बैठ कर ही।
अब मैंने अरुण से कहा की अब कोई हमारा मज़ाक नही उड़ाएगा, हम उस छूटी ट्रेन से पहले ही मुंबई पहुँच जायेंगे।
एक समय फ्लाइट चढ़ना ही सपना लगता था, वो आज पूरा हो रहा था, इसीलिए उत्साह से नींद नही आ रही थी, ऊपर से टिकट में लिखा था की टेक ऑफ़ से दो घंटे पहले ही शुरू हो जायगी लाइन,यानी सुबह के चार बजे से। हलकी फुलकी नींद लेकर वो समय आ ही गया। सुबह-सुबह सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद 05.30 बजे हम फ्लाइट गेट तक आ गए। फिर उड़ान शुरू हुई।
इस तरह हमने लगभग बर्बाद हो चुकी यात्रा को पुनर्जीवित कर दिया था।