झारखण्ड न सिर्फ खनिज-खदानों से भरा पड़ा है, बल्कि यहाँ भी एक से बढ़कर एक अछूते रमणीय स्थल मौजूद हैं, जो की पर्यटन के लिहाज से अब तक अधिक विकसित नहीं हो पाएं हैं। कल्पना कीजिये की अपने ही राज्य में अगर एक ऐसी जगह हो, जहाँ दिन की दुपहरिया में भी बादल पर्वतों को छूते नजर आएं और शाम ढलते ही बरसकर सारी फ़िज़ा को तरो -ताज़ा बना दे, तो फिर क्या दार्जिलिंग और क्या शिमला, सब इधर ही खींचे चले आएंगे।
जिसका आज जिक्र करूँगा वह भी एक हिल स्टेशन
तक देशवाशियों तो क्या, स्थानीय लोगों के लिए भी अछूता ही है, लेकिन हाँ, जैनियों का तीर्थ जरूर है जहाँ देश के कोने कोने से वे अपने तीर्थंकरों का दर्शन करने आते हैं, और वो है झारखण्ड की 4500 फ़ीट पर सबसे ऊँची चोटी- पारसनाथ की पहाड़ी। जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ, जिन्होंने कुछ हजार बर्षों पहले अपने बीस साथी संतों के साथ यहाँ समाधी ली और उन्ही के नाम पर इसका नाम पड़ा पारसनाथ। जैन धर्म के सबसे पहले तीर्थंकर थे ऋषभ मुनि और चौबीसवें एवं अंतिम थे महावीर। यही कारण है की पारसनाथ जैन धर्म के सबसे बड़े तीर्थ स्थलों में से एक है।
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झारखण्ड का एक अछूता सौंदर्य
अगस्त के झमाझम बारिश वाले मौसम में भला कोई हिल स्टेशन जाता होगा क्या! लेकिन अपनी घुमक्क्डी को विकसित करने के क्रम में मैंने सोचा की अपने ही राज्य के गिरिडीह जिले के पूर्वी छोटानागपुर पठार में पड़ने वाले इस अछूते सौंदर्य से क्यों न एक बार रु-ब-रु हो लिया जाय! तो बस फिर हम टाटानगर से 5-6 घंटे की ट्रेन यात्रा कर पारसनाथ स्टेशन पर पहुंचे। यह स्थान था इसरी बाजार जहाँ से 25 किमी दूर मधुबन नामक जगह पहुंचे जो उसी पहाड़ी की तराई पर है। स्टेशन से मधुबन तक जाने के लिए हमने ऑटो का सहारा लिया।
मधुबन की खासियत यह है की यह जगह तो देखने में झारखण्ड जैसा बिलकुल ही नही है, बल्कि एक छोटा सा हिमालयी तराई क्षेत्र जैसा प्रतीत होता है। चारो तरफ घने-घने वृक्ष हैं और चोटी तक जाने के लिए सिर्फ एक ही कंक्रीट का बना पैदल रास्ता है। रास्ते भर अनेक जैन मंदिरों की लम्बी फेहरिस्त लगी है, जिनमे से कुछ एक आपको दिखता हूँ।
और साथ ही मैंने देखा की जैन धर्मशालाओं जैसे की श्वेताम्बर सोसाइटी, दिगंबर सोसाइटी आदि की लाइन लगी हुई है। दिक्कत तो तब हुई जब गैर जैन होने के कारण हमें कमरा देने से इंकार कर दिया गया। यह एक गंभीर समस्या बन गयी, लेकिन काफी छान-बिन के पश्चात हमें एक प्राइवेट होटल सपना मिल ही गया। वैसे यहाँ "यात्री निवास' ' नामक सरकारी लॉज भी उपलब्ध है।
आसमान में बादल घुमड़ रहे थे, अँधेरे ने जल्दी-जल्दी शाम को निगल कर रात में तब्दील कर दिया। जैन बहुल इलाका होने के कारण सभी जैन होटलों में सूर्यास्त के बाद भोजन करना वर्जित यहाँ वर्जित होता है, हमने पाया की सिर्फ सपना होटल में ही 10 बजे रात तक रेस्त्रां खुला था।
अगली सुबह हमें पारसनाथ के शीर्ष चोटी तक जाना था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगी की जैन यहाँ समूचे पर्वत को लांघने में कुल 27 किमी की दुरी तय करते हैं! पहला नौ किमी शिखरजी तक की चढ़ाई का, दूसरा नौ किमी एक चोटी से दूसरी छोटी तक कुल 31 मंदिरों या टोंकों का दर्शन करने में, और तीसरा नौ किमी वापस जमीं पर उतरने में! वैसे चढ़ने के लिए विभिन्न दरों पर डोलीवाले भी उपलब्ध रहते हैं, लेकिन ज्यादातर बूढ़े-बुजुर्ग ही उनका इस्तेमाल करते हैं। प्रथम पांच किलोमीटर तक मोटरसाइकिल से भी जाया जा सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं क्योंकि सीढियां शुरू हो जाती है।
ऊपर के चित्र को गौर से देखिये जिसमे पहाड़ी पर बना रास्ता नजर आ रहा है । 27 किलोमीटर पैदल चलना एक दुष्कर कार्य होता है, इसीलिए हिसाब-किताब बैठा कर मैंने नौ किमी की कटौती कर दी। निश्चय किया की सिर्फ चोटी तक जाऊंगा, फिर तुरंत उतर जाऊंगा ! यानि सिर्फ 18 किमी! और सुबह सुबह पांच बजे ही पर्वत की और निकल पड़े! रास्ता पक्का था और जगह जगह बैठने के लिए विश्रामालय बनाये हुए थे। एक किलोमीटर बाद ये पहला मंदिर मिला हमें।
ताज्जुब इस बात की थी कुछ वृद्ध लोग भी फुर्तीले अंदाज़ में चढ़े जा रहे थे। लगभग दो किमी चढ़ने के बाद काफी घने वृक्ष आ गए। सुंदरता बेजोड़ थी। रास्ते पर लिखा हुआ था की खाली पैर चलें, अच्छा रहेगा, कुछ दूर हमने भी आजमाया। साथी यात्रिओं में विशेषकर जैन ही थे, वो भी सभी उम्र वर्गों के, बच्चे, बूढ़े, जवान सब।
धीरे धीरे सुरंगनुमा वनों में बढ़ते चले गए। 5 किमी पर गन्धर्व नाला आया, जहाँ थोड़ी देर टांगों को आराम दिया गया। अब सपाट रास्ता ख़त्म हो गया और सीढ़ीनुमा कठिन चढ़ान प्रारम्भ हुआ। 7 किमी पर शीतल नाला आया जिसके शीतल जल को स्पर्श कर गर्मी से कुछ राहत मिली।
रास्ते में कुछ बंदरों के समूह यत्र-तत्र दिखाई पड़ रहे थे।
यह एक एक दिवसीय पर्वतारोहण कार्यक्रम था। अंतिम 2 किमी सफर जब बाकी था तब हमें दूर से ही चोटी पर स्थित पार्श्वनाथजी का मंदिर दिखाई पड़ा, जिसे देखकर हौसला और बुलंद हुआ।
मैं और मेरे सहयात्रियों ने तो पूरा मार्ग पैदल ही तय कर लिया। लगभग पांच घंटे की मेहनत कर अब हम चोटी पर आ चुके थे। इस चोटी पर पर जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने किसी ज़माने में तपस्या की थी।
मंदिर के बरामदे से आसमानी दृश्य बिलकुल मनोहारी था और बादल हमें छू रहे थे।
सचमुच यह एक अछूता झारखंडी सौंदर्य था।
वापसी के क्रम में हमने चोटी से थोड़ी दूर स्थित डाकबंगला पर भोजन किया और धीरे-धीरे जमीं की ओर रवाना हुए। कुल मिलाकर दस घंटे बाद ही थकान वाली हालत में होटल के कमरे में दाखिल हुए। फिर घनघोर बारिश का सिलसिला प्रारम्भ हुआ और हमारा सफर समाप्ति की ओर था।
अब कुछ अन्य फोटो-
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