जबलपुर के बारे में ढूढ़ने पर भी कुछ ख़ास बातें नहीं मिलेंगी। ये भारत देश के उन शहरों में से है जहाँ अक्सर लोग या तो रहा करते थे या छोड़ के जाने की तैयारी में हैं। नई पीढ़ी पहले कुछ बड़े शहरों, जैसे नागपुर, दिल्ली, इंदौर, या भोपाल, की तरफ खुद पलायन करती है और बाद में अपने माँ-बाप को साथ ले चलती है। रह जाता है शहर, अकेला। ना नौकरियाँ ना नौकरियों की आशा। भूले-भटके सिनेमाघर में अगर कोई अंग्रेजी फिल्म चल भी जाए तो हिंदी डबिंग आर्टिस्ट मज़ा किरकिरा करने से बाज़ नहीं आते। ये ला ला लैंड कभी ला ला लैंड न बन सकी। यही है संक्षेप में जबलपुर की कहानी।
पिछले कुछ सालों में जबलपुर में कुछ बढ़चढ़ के हुआ है तो वो है पलायन। जबलपुर से तालुक रखने वाले मेरे एक चाचाजी ने मुझसे एक रोज़ बोला था की जबलपुर एक छोटा शहर नहीं बल्कि एक बड़ा गाँव है जो की भूतकाल में कहीं अटक के रह गया है और मैं इस बात से सौ फ़ीसदी सहमत हूँ।
सकारात्मकता से सोचा जाए तो हाँ जबलपुर एक बड़ा गाँव ही तो है और ये बात साबित करते हैं इस छोटे शहर के बड़े दिल वाले लोग। बारिश में भीगने पर आज भी आपको दूकान में बिठा कर कोई चाचाजी चाय पीला ही देंगे, मजाल है की कोई चाय के पैसे माँगे।
पर्यटकों के लिए ख़ास आकर्षण जबलपुर कभी भी नहीं रहा। इस शहर में वो ही लोग आते जाते हैं जो या तो पीढ़ियों से यहाँ बसे हैं या काम काज के सिलसिले में आना जाना हो। हाँ, बांधवगढ़ जाने वाले पर्यटक अक्सर यहाँ से गुज़रते हैं। बांधवगढ़ नेशनल पार्क यहाँ से 169 कि.मी. दूर है और वहाँ जाने के लिए सबसे नज़दीकी हवाईअड्डा जबलपुर में ही है।
तो अगर ये शहर किसी भी तरह के आकर्षण से कोसों दूर है तो सवाल यह उठता है की मैं ये क्यों लिख रही हूँ और आप क्यों पढ़े जा रहे हैं?
कुछ ढूढ़ने से एक जवाब मिला है और वो है खोया जलेबी! इस भ्रमांड में ढूढ़ने से भी कहीं और ऐसी खोया जलेबी मिल जाए तो कहना. ताज़ा मीठा खोया, ढेर सारी चीनी, उससे भी ज्यादा घी और तिखुर से बनने वाली ये मिठाई मूल रूप से जबलपुर से ही आती है। मन मोह लेने वाली जबलपुर की इस जलेबी का इजाद किया हरप्रसाेद बड़कुल ने। 1880 में वो पहली बार पास के एक गाँव से जबलपुर आए थे। दो बोरी तम्बाकू बेच के जो पैसे मिले उससे उन्होंने एक मिठाई की दूकान की शुरुवात की। बड़कुल दंपत्ति ने इस पाक शैली के दम पर जबलपुर में राज किया। उनका परिवार आज भी ये व्यवसाय चलाता है पर खोया जलेबी की विधि आज भी गोपनीय है। पर छोड़िये इन बातों को, गरमागरम, करारी, मीठी जलेबियों का लुत्फ़ उठाएँ, आम खाएँ गुठलियाँ ना गिनें।
जबलपुर की अगली खासियत है यहाँ बहती पवित्र नर्मदा नदी और उसके असंख्य घाट। ये कहना गलत नहीं होगा की नर्मदा इस शहर की नसों में खून की तरह दौड़ती है। अनगिनत तटो को छु जाने वाली इस नदी का सबसे खूबसूरत तट है भेड़ाघाट, जिसके नाम पर इस गांव का भी नाम पड़ा है। भेड़ाघाट का मुख्य आकर्षण है यहाँ स्तिथ धुआँधार जल-प्रपात। यहाँ पानी की तीव्र गति के कारण नदी से धुआँ उठता हुआ लगता है, इसी कारण इस झरने का नाम धुआँधार रखा गया है। नदी के किनारे सभी तटों में संगमरमर की चट्टानें हैं जो इस दृश्य को अप्रतिम बना देती है।
धुआँधार फॉल्स से कुछ दूरी पर ही नर्मदा का एक किनारा है जहाँ आप नौका विहार के लिए जा सकते हैं। दिन की धूप में अगर यहाँ पहुचें तो आपका नाव वाला ही आपका टूर गाइड भी बन सकता है। ये स्थानीय गाइड अक्सर आपको ऐसी बातें बताएँगे जो अकेले जाने पर आप सोच भी नहीं पाएँगे। आपको मोटर कार के आकार की चट्टान दिखाई जाएगी। आस पास के मधुर दृश्य में लीन होकर अगर आपने नदी के पानी में हाथ दाल दिया तो नाव वाला निश्चित रूप से आपको टोकेगा। इस नदी में वो मगरमच्छ हैं जिन्होंने "खून भरी मांग" में रेखा को चबा डाला था। "मोहनजोदारो" में ह्रितिक रोशन इसी नदी के मगरमच्छों के साथ लड़े थे। "अशोका" में करीना कपूर भी इसी नदी के किनारों पर नाची थी। कहते हैं कि पूर्णिमा की रात अगर आप इस नदी में नौका विहार करने निकलें तो क्या पता आपको भी ये नदी चांदनी रात से बात करती हुई मिल जाए। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि चांदनी रात में नदी के किनारे संगमरमर की चट्टानों की काया ही अलग होती है। ये चमकदार पत्थर मानो जीवंत हो उठते हैं। देखना नहीं चाहेंगे ये अजूबा?
प्राकृतिवाद की ऊँचाइयों से नीचे उतरते हैं जबलपुर की गलियों में जहाँ मिलता है सिम्पलेक्स मसाला सोडा।शायद आपने नाम नहीं सुना होगा, यह बस जबलपुर की खासियत है। एक अलग सा ज़ीरे का ज़ायका इसको किसी भी मसाला सोडा से अलग करता है। थोड़ा मीठा और पाचनक्रिया के लिए एक दम ज़बरदस्त, ये मसाला सोडा एक स्थानीय कंपनी द्वारा बनाया जाता है और आसानी से जबलपुर के किसी भी किराने की दूकान में उपलब्ध है। जान लीजिए की ढूढ़ने से भी आपको ये और कहीं नहीं मिलेगा। इसके स्वाद के लिए जबलपुर आना ही पड़ेगा।
जबलपुर के लोगों से पुछा जाए की उनके शहर के घूमने की क्या जगहें हैं तो कोई आपको बैलेंसिंग रॉक के बारे में बता ही देगा। 1997 में जबलपुर में एक तीव्रगति का भूकंप आया, ये शहर कई चट्टानों से घिरा है इसलिए तब सभी चट्टानें इधर की उधर हो गई पर एक पत्थर जस का तस था। ये है जबलपुर का प्रसिद्ध बैलेंसिंग रॉक जो की सालों से एक और चट्टान पर संतुलन बनाए खड़ा है।
अगर चट्टानों में आपकी रूचि ना हो तो एक और जगह है जहाँ आप अपना कीमती समय बिता सकते हैं, ये है बरगी डैम जलाशय। हाल ही में यहाँ पर फेरी की सुविधा भी मुहैय्या करवाई गयी है। इस जलाशय का नीला पानी एक दम समंदर सरीखा लगता है। अगर आप चाहें तो यहाँ से मंडल के लिए फेरी ले सकते हैं, जहाँ उतर कर आप कान्हा किसली नेशनल पार्क भी जा सकते हैं। हिन्दुस्तान के दिल में आए हैं तो इसके घने जंगलों में खोना तो ज़रूरी है।
जबलपुर शहर के अजूबे यहीं ख़तम नहीं होते। आप में से जो लोग वास्तुकला में ख़ास रूचि रखते हैं और खजुराहो सरीखे मंदिरो में जाना पसंद करते हैं उनके लिए जबलपुर में एक और आकर्षण है। यह है चौसठ योगिनी मंदिर। 10 AD में कुल्चुरी साम्राज्य के राजा द्वारा बनाया गया ये मंदिर वास्तुकला में भारत की अनमोल विरासत का एक नमूना है।
तो ये थी जबलपुर की विशेषता और इस लम्बी लिस्ट के बावजूद आप में से बहुत सारे लोग हैं जो जबलपुर आए बिना ही अपना जीवन बिता देंगे। इस भूल के लिए ना ही कोई आपको दोष देगा, नाा ही प्रश्न पूछेगा। लेकिन अगर भूले भटके आप कभी जबलपुर पहुँच जाएँ तो आपको वो साफ़ दिल के छोटे शहर के लोग मिलेंगे जो अपने दिल के और घर के दरवाज़े आपके लिए खोल देंगे। जो आपका मुँह ताके आपसे घंटो बात करेंगे बस आपकी खूबसूरत अंग्रेजी सुनने के लिए। जो आज भी शॉन पॉल के टेम्परेचर पर दिल खोल के नाचते हैं। चलती गाड़ी से जबलपुर देख लोग अक्सर ज्यादा लोकप्रिय गंतव्य की तरफ बढ़ जाते हैं पर कभी रुकें तो ज़रूर घूमें।
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