इंडस नदी के किनारे पर बसा ‘लद्दाख’ , जम्मू और कश्मीर राज्य का एक प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल है। मुख्य शहर ‘लेह’ के अलावा, इस क्षेत्र के समीप कुछ प्रमुख पर्यटन-स्थल जैसे, अलची, नुब्रा घाटी, हेमिस लमयोरू, जांस्कर घाटी, कारगिल, अहम पैंगांग त्सो, और त्सो कार और त्सो मोरीरी आदि स्थित हैं । सुन्दर झीलें और मठ, मन को सम्मोहित कर देने वाले परिदृश्य और पहाड़ की चोटियाँ यहाँ की आकर्षक विशेषताएँ हैं। राज्य में बोले जाने वाली आम भाषाओं में लद्दाखी, पुरिग, तिब्बतन, हिन्दी एवं अंग्रेजी शामिल हैं। लद्दाख, विश्व के दो प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं, काराकोरम और हिमालय के बीच, समुद्र की सतह से 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसके अतिरिक्त, जांस्कर और लद्दाख की समानांतर पर्वतमालाएँ, लद्दाख की घाटी को चारों ओर से घेरती हैं।
बर्फीली घाटियों से ढंके पहाड़, हरियाली चुनर जैसे सिर से खींच ली हो, ऐसे भूरे, बंजर, पत्थरों से पटी विशाल पर्वत श्रृंखलाएं, हजारों फीट की ऊंचाई वाले पर्वतों के बीच बेहद खूबसूरत घाटियां, कल-कल बहते ठंडे पहाड़ी झरने, कांच की तरह साफ व मटमैली भी, दोनों तरह की नदियां, किसी रेगिस्तान की तरह बिछी रेत, पठार और उस पठार में खूबसूरत झील। कुदरत की खूबसूरत कारीगरी... ये सारी चकित कर देने वाली सुंदरता एक जगह थी। जी हां...! अद्भुत... अविस्मरणीय... अप्रतिम... सौंदर्य से भरपूर... इतनी सारी विविधता अपने विशाल आंचल में समेटे ये क्षेत्र था लेह।
जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जिले में आने वाली जगह लेह...! 3 किलोमीटर प्रति व्यक्ति के हिसाब से जनसंख्या घनत्व वाला लेह...! 25,321 स्क्वेयर किमी क्षेत्रफल वाला लेह...! समुद्री सतह से 11,300 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
वैसे तो लेह-लद्दाख देशी कम, विदेशी सैलानियों की सूची की पसंदीदा जगहों में सबसे ऊपर है, लेकिन भला हो बॉलीवुड का, जिसने कुछ फिल्मों की शूटिंग यहां करके इसे और लोकप्रिय बना दिया।
जब लेह-लद्दाख का हमारा प्रोग्राम बना तो हमारे ध्यान में रोड ट्रिप करने का विचार आया क्योकि यह दुनिया की प्रमुख रोड ट्रिप में जानी जाती है । जानकारों के अनुसार यहां पर जुलाई में आना चाहिए, क्योंकि तब तक काफी बर्फ पिघल जाती है और बर्फ के अलावा वो सारा सौंदर्य आप देख सकते हैं, जो मैंने ऊपर वर्णित किया है।
लेख-लद्दाख अभी तक तस्वीरों या फिल्मों में यानी सिर्फ कैमरे की आंख से ही देखा था, लेकिन जब कार से सफर करते हुए यहाँ की वादियों को देखा तो अद्भुत नजारा था। अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था कि इतनी खूबसूरती इसी धरती पर है। ये चित्रकार, कलाकार सिर्फ कुदरत ही हो सकती है। अपने विभिन्न रूपों से रूबरू कराते हुए लदाख ने अपना सौन्दर्य रूप दिखाया। चारों ओर रेतीला भूरा पठार व वैसे ही भूरे पहाड़ नजर आए, लेकिन हवा में अच्छी-खासी ठंडक घुली हुई थी। आसमान साफ, नीला था व सूर्यदेव अपनी तीखी रश्मियों के साथ हमारा स्वागत कर रहे थे। मनाली से होते हुए लदाख जाने का रास्ता पसंद किया क्योकि यही रास्ता रोड ट्रिप के लिए बेहतर मना जाता हे। इस रोड की सुंदरता का बखान में लिखकर नहीं कर सकता।
यूँ तो लद्दाख जाने के लिए कुछ हाई माउंटेन पासेस पार करने होते हे जिनमे हमको पार करना पड़ा रोहतांग पास जो की मनाली के पास है इसको पार करने क लिए ऑनलाइन एक पास लेना पड़ता है जिसमें गाड़ी के साथ सभी यात्रियों की जानकारी होती हे, यह पास आप मनाली से भी बनवा सकते है।
वहां से चलने के बाद हमको बारालाचला पास पार करना पड़ा जहा पर बहुत साडी बर्फ थी बर्फ की उन वादियों में ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे प्रकृति ने साडी सौंदर्यता यहाँ उड़ेल दी हो, इन वादियों में खो जाने के पश्चात हम 7 लोगो में से 3 लोग ऑक्सीजन की कमी होने से बीमार पड़ गए और सरचू पहुंचते पहुंचते बेहोश हो गए। हमने सरचू में रात रुकने का विचार किया यूँ तो यहाँ पर रखने का एक अलग ही अनुभव था यहाँ पर ना तो लाइट थी ना ही सुविधाओ से परिपूर्ण होटल, यहां रात गुजारने के बाद सुबह लेह के लिए प्रस्थान किया।
खूबसूरत नजारो को अपनी आँखों में सजाते हुए हम शाम तक लेह पहुंच गए। वहां पहुंचने के बाद सुरक्षा नियमों के तहत होटल पहुंचते ही सब अपने कमरों में आराम करने चले गए। निर्देश है कि वहां ऑक्सीजन लेवल काफी कम रहता है, सो हमारे शरीर को वहां के वातावरण में एड्जस्ट करने हेतु 12 से 24 घंटे देना होते हैं अन्यथा आप सिरदर्द, चक्कर, उल्टी व सांस की तकलीफ से आपका पूरा सफर चौपट हो सकता है।
लेह से 'नुब्रावेली' जाने के लिए हमें 'खुरदंग ला टॉप' होते हुए जाना था, जो 18,300 फुट की ऊंचाई पर है। ऑक्सीजन की बेहद कमी हमें बेहद घुमावदार पहाड़ों पर चढ़ते हुए गाड़ी में ही महसूस होने लगी थी। ऐसे में हमने लेह बाजार से ऑक्सीजन टैंक खरीद लिया था और बीच बीच में सभी ने थोड़ी थोड़ी ऑक्सीजन लेते गए वैसे यहाँ पर कपूर सूंघना बड़ा ही लाभदायक रहता है, जैसा कि हमें यहीं से जानकारों ने बताया था अत: कपूर भी हमारे साथ था और डैमोक्स की गोलिया भी ली थी जो की खून को पतला करती है और शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को बरक़रार रखती है, इसलिए ऑक्सीजन लेवल या श्वास सामान्य बनी रही। हमें होटल से निर्देश थे कि 'खरदुंग ला' पर आप जाते समय ज्यादा न रुके, क्योंकि नुब्रावेली में चिकित्सा सुविधाएं कोई खास नहीं।
नुब्रावेली शुरू हो चुकी थी, साथ ही प्रकृति ने अपने दूसरे रूप भी दिखाने शुरू कर दिए थे। बर्फीले पहाड़ों से पिघलता पानी झरनों के रूप में सड़क पर गिर रहा था, जो आगे जाकर बेनाग नदी का रूप ले रहा था। अपनी राह खुद बनाती, निर्बाध चट्टानों पर उछलती... चलते रहने का संदेश देती। भूरे पहाड़ों से गोल-गोल छोटे-बड़े पत्थर, मानो कुदरत की छेनी से तराशे गए थे, वे घाटी में आ गिरे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वो पहाड़ी नदी गंगा का रूप ले सैकड़ों साक्षात शिवलिंगों का अभिषेक कर रही थी।
जैसे-जैसे हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे, हरियाली घाटी मन मोह रही थी।
ड्राइवर ने हमें बताया कि वहां 'पिनामिक' गांव से आगे का रास्ता सियाचिन को जाता है, जहां हमारा जाना प्रतिबंधित था। वहां से थोड़ी दूरी पर आते ही हम फिर आश्चर्यचकित हो गए। ऐसा लगा मानो राजस्थान के रेगिस्तान में आ गए हों। दूर तक नजर आती रेत में हम दोहरी कूबड़ वाले ऊंटों पर सवारी करने वाले थे। ढोंढू, थूरू, नकतूरू नाम के ऊंटों पर रेत में सवारी करते हुए चारों ओर ऊंचे पहाड़ों ने हमें जेम्स बांड की फिल्मों की याद दिला दी। लेह का ये भी एक अलग ही रंग था।
हमने अपना सारा सामान अपने अस्थायी निवास यानी होटल में छोड़ हमने सिर्फ एक जोड़ी कपड़े व कुछ जरूरी सामान अपने साथ लिया था। एक रात नुब्रावेली की हट्स में बिता दूसरे दिन हमें पेंगोंग लेक जाना था। नुब्रावेली की रत बहुतही खूबसूरत रही रात को हमने सितारों को बहुत करीब से निहारा। सुबह हम पेंगोंग लेक के लिए निकल गए, रस्ते में बर्फ से ढंके पहाड़ों पर जैसे ही खेलना शुरू किया कि समझ में आ गया कि हमारी किस्मत बुलंद है। टिप-टिप करते हुए कुछ छींटों के साथ बारीक साबूदाने बर्फ व सड़क पर नजर आए। आसमान से गिरती उस बारीक बर्फ ने हमें प्रकृति के एक और रूप से रूबरू कराया। थोड़ा आगे भारतीय जवानों का सभी मेडिकल सुविधाओं से भरपूर कैम्प है। किसी को भी जरूरत हो, वहां 24 घंटे नि:शुल्क ऑक्सीजन उपलब्ध है। एक बार फिर अपनी सेना के लिए मन में सम्मान हिलोरे लेने लगा।
इतनी सारी चकित कर देने वाली सुंदरता की तमाम छवियां मन और कैमरे में लिए हम लेक पहुंच रहे थे। कारू तक आते-आते कुछ मटमैली सिंधु नदी साथ चल रही थी, साथ-साथ नहर भी। करीब पौन घंटे बाद ऊंचे-भूरे, पथरीले पहाड़ों के साथ नीचे हरियाली से भरपूर घाटी थी और कुछ समय बाद हरियाली कम होते-होते बर्फ पिघलने से बनी कुछ उथली झरनेनुमा नदी साथ-साथ बहती रही। कुछ देर बाद वह भी मालूम नहीं, कहां गायब होकर पूरी पथरीली घाटी आ गई। लेकिन बस कुछ समय बाद ही दूर नीले-फिरोजी से रंग का पानी नजर आया। यही वो खूबसूरत पेंगाग झील थी।
कुल 134 किमी लंबी व कहीं-कहीं 5 किमी तक चौड़ी भी, ये एक खारे पानी की झील है, जो आधी से कम भारत में व उससे अधिक चीन के हिस्से में है। कितना अजीब है ना कि सरहदों का बंटवारा तो हम कर देते हैं, मगर झील का पानी किसी भी बंटवारे से इतर निर्बाध बहता है। अपनी ही भावनाओं की तरह पाक, साफ व पारदर्शी...!
रात भर आराम करने के बाद दूसरे दिन सुबह 7 बजे अपनी नींद खुल गई। खिड़की से पर्दा हटाया, तो आंखें चौंधिया गईं। सूर्य की पहली किरण भूरे पहाड़ों के शिखर पर जमी बर्फ पर पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुनहरी काया पर मलमल का आंचल भर डाल दिया हो। खिड़की से बाहर बाग में कई प्रजातियों की चिड़ियाएं विभिन्न स्वरों में गा रही थीं।
नास्ता करके हम 'नुब्रा वेली' के लिए रवाना हुए, जो लेह से करीब 150 किमी दूर है। जाने के 5 से 6 घंटे लगते हैं। बस यहीं से 'लेह' ने हमें बताना शुरू कर दिया कि मैं ऐसा नीरस नहीं में वैसा ही हूँ जैसा अपने सुना और देखा होगा।
तमाम निर्देशों का पालन अच्छे बच्चों की तरह करते हुए हम ज्यादा देर नहीं रुके और गाड़ी से पूरी घाटी की सुंदरता आंखों के साथ-साथ कैमरे में कैद करते रहे। बर्फ से भरी पहाड़िया और कभी भूरी-सूखी बंजर पहाड़ी श्रृंखलाएं थीं, जहां ऑक्सीजन की कमी से हरियाली नहीं थी, लेकिन फिर भी विपरीत परिस्थितियों में जिजीविषा का बेहतरीन उदाहरण वहां कई जगह झाड़ियों में भरपूर मात्रा में खिले वे गुलाबी फूल थे, जो हमें काफी कुछ सिखा जाते हैं।
कुछ आगे उन्हीं ऊंचे पहाड़ों के नीचे तलहटी में भूरी, मटमैली 'शयोक' नदी बह रही थी, जो कहीं तो शांत थी, लेकिन कहीं ऐसी उफनती कि उत्तराखंड की तबाही की याद आ गई थी। उस पूरे पहाड़ी रास्ते में करीब 15-20 किलोमीटर ऐसा ट्रेक है, जहां पक्की सड़क नहीं, कच्चा रास्ता है। हमारे ड्राइवर ने बताया कि वहां पहले कई मर्तबा सड़क बन चुकी है, लेकिन सर्दियों में जब वहां पूरी तरह बर्फ जमी होती है, तब बुलडोजर से बर्फ हटाने में पूरी सड़क पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती है, सो वहां कच्ची सड़क ही रहती है। पूरे रास्ते मिलिट्री को सैल्यूट करने का मन करता है। सड़क बनाने से लेकर मेडिकल सुविधाएं सहित कई सारे कार्य उनके हाथों संपन्न होते हैं जिससे कि आम लोगों को सुविधा हो।
पेंगाग झील के इतनी दूर से दर्शन होने के बाद भी हमें पेंगाग झील के किनारे-किनारे करीब 8-10 किमी का रास्ता तय करना था। इसी रास्ते पर पेंगाग झील ने कई बार अपना रंग बदलकर हमें चमत्कृत कर किया। कभी गहरा नीला, कभी फिरोजी, कभी हरा तो कभी आसमानी। गाड़ी से उतर कर हम सब झील में अपने पैर डालने को आतुर भागे। पास पहुंचते ही पेंगाग झील ने फिर से हमें विस्मित कर दिया। दरअसल, उसका पानी एकदम पारदर्शी है, कांच की मानिंद। किनारे पर करीब 5 फुट भीतर तक के गोल बारीक पत्थर साफ नजर आ रहे थे। तब समझे कि चन्द्रकलाओं की तरह पेंगाग झील भी आसमानी रंगों के अनुसार अपने रंग बदलती है। उसे निहारते समय कब निकल गया पता ही नहीं चला। कुछ समय बिताने के बाद हम पुन: लेह के लिए रवाना हो गए।
पेंगाग से लेह तक का रास्ता करीब 150 किमी है, जो 5 घंटे में तय होता है, पेंगोंग से लेह होते हुए पहला पड़ाव 'चांग ला टॉप' था, जो समुद्र सतह से 17,688 फुट की ऊंचाई पर था, यहाँ पर भी ऑक्सीजन की काफी कमी थी। रास्ते इतने आसान नहीं थे चांगला की सुंदरता निहारते हुए हम लेह पहुंच गए। शाम को लेह बाजार के साथ कुछ मोनिस्ट्री घूमने के बाद होटल में आराम किया
सुबह उठकर हमने इन्दोरी पोहे अपने हाथो से बना कर खाये और लेह पैलेस घूमने निकल गए थोड़ा घुमकर लेह की खूबसूरती निहार कर हम श्रीनगर के लिए रवाना हो गए और वहां एक रात गुजार कर हम इंदौर के लिए निकल गए।
पिछले 8 दिन चलचित्र की भांति निगाहों में थे। नीले, भूरे, काले रंगों के साथ बेरंग सुंदरता भी थी। साथ ही यादें थीं जिनमें था लद्दाखी लोगों का भोलापन, निष्कपटता, ईमानदारी व सहयोगी रवैया। फौजियों का जज्बा, उनकी देशभक्ति... इन सब बातों के लिए स्थानीय भाषा का एक ही शब्द अपनी ओर से सही लगा। लेह जैसी भूमि हेतु ईश्वर को... व उसे बरकरार रखने के लिए वहां के निवासियों को 'जुले'..(Julley) यानी धन्यवाद!
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