दुनियाँ में दो तरह के ही लोग पाए जाते हैं। एक वो जिनकों पहाड़ अपनी ओर खींचता है तो दूसरे वो जिनको समन्दर अपने रंग में रंगना चाहता है। और जिन लोगों के साथ इन दोनों में से कुछ भी नही होता वो न जाने क्यों मुझे जिंदा लोग नही लगते। मैं पहला वाला हूँ। पता नही ऐसा क्या हर बार इन पहाड़ों में मेरा छूट जाया करता है कि जैसे ही मौका मिलता है मैं उसे ढूंढने वापस चला आया करता हूँ। अगर ज्यादे दिन इनसे दूर रहूं तो शहर में किसी शाम लोगों की भीड़ में फसे होने के बावजूद भी अचानक मुझे इनकी याद आ जाया करती है। ये पहाड़ मुझे उस प्रेमिका की तरह लगते हैं जिन्हें लोग भूलने की कोशिश में उम्र गुजार दिया करते हैं।
पहाड़ के घुमावदार सर्पीले रास्तों पर झूलते-लटकते हुए आगे बढ़ना मुझे किसी भी उस सुंदरी की सुराई वाली कमर पर उँगलियाँ फेरने से भी ज्यादे अच्छा लगता है जो आपकी या मेरी यादों की परी है। अमूमन तो मुझे पहाड़ को अकेले छुपकर किसी कोने में बैठ कर चोरी से देखना अच्छा लगता है पर ऐसे ही किसी रास्ते पर अगर साथ देने को आपके दोस्तों की मंडली और रहमान साहब का संगीत के साथ जावेद अली, कैलाश खेर की आवाज के में एक गीत स्पीकर में बज रहा हो तो बात ही कुछ अलग होती है।
वो कहते हैं कि सच्चे प्यार में अपनी प्रेमिका के सामने अचानक से ही ठंडी हवाएं चलने लगती हैं जिसे इश्क़ के किताब में सबसे हसीन लम्हा बताया गया है, पर मुझे उन ठंडी हवाओं से कहीं ज्यादे सुकून अकेले शांत खड़े इन देवदार के पेड़ों से आती हुईं ये ठंडी हवाएं देती हैं। इश्क़ है मुझे इन पहाड़ों से। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं इन पहाड़ों के लिए ही बना हुआ हूँ। लोगों से दूर , कभी न बोलने वाले चुप-चाप शांत खड़े इन पेड़ों से बातें करना कितना रहस्यमयी हो सकता है ये मैं अच्छे से जानता हूँ। कितना कुछ कहते हैं ये पहाड़! बस कान बन्द कर सुनने की जरूरत होती है।
शहर से दूर जंगलों के बीच बनी पगडंडियों पर इन भागती हुई सड़कों को निहारते हुए मैं आगे ही बढ़ रहा था कि सामने से वो ''मुसाफिर कैफे'' वाला मन्दिर गुजरा जहाँ कभी उस कहानी का नायक चाय पीता था। पूरी कहानी जहन से कुछ ही पलों में गुजर गई। अभी कहानी चल ही रही थी कि वो होटल सामने से गुजरा वो जिद्दी लड़की कभी ठहरी थी। और फिर न जाने कितने सवाल अस्पश्नकी हवा में तैरने लगें जिनका कोई ठीक ठाक ज़बाब शायद ही बना हो। मैं सोचने लगा कि आखिर क्यों जिंदगी के 10 साल के लंबे अंतराल को अकेले गुजार देने के बाद वो लड़की पहाड़ पर बेबस ही चली आयी थी रुकने। वो चाहती तो मैदान के किसी होटल में भी रुक जाती और वहाँ से जा के अपनी पुरानी जिंदगी को शुरू कर लेती। पर नही! कुछ तो है इन पहाड़ों में जो खींच लाता है सबको, बाकी दुनियां से दूर करने के लिए और खुद से मिलाने के लिए। एक अलग ही जादू है इन पहाड़ों में जो इंसान को जमूरा बनने पर मजबूर कर दिया करता है। हर बार। यहाँ आकर इंसान खुद से मिल पाता है। शायद ।
ऐसे ही एक पहाड़ की चोटी पर चाय की गर्म कप लिए हुए बैठकर मैं बहुत कुछ देख पा रहा हूँ , सोच रहा हूँ। सूरज ने भी आज दिन का अपना आधा से ज्यादा काम निपटा लिया है। एक खूबसूरत थकावट दिख रही है उसके चेहरे पर जो अब उसके चमकते रंग को लाल में तब्दील कर रही है। इस पहाड़ के ठीक बगल में दूसरा पहाड़ खड़ा है, बिल्कुल हमशक्ल सा। इस पहाड़ की चोटी और दूसरे पहाड़ की चोटी के बीच मे कुछ ज्यादा फर्क नही है। कुछ समय पहले कुछ लोग आए थे यहाँ जिन्होंने शायद इन दोनों चोटियों को मिलाकर एक करने की कोशिश भी की थी। हाँ कम से कम मुझे तो यही लगता है क्योंकि उनके निशाँ आज भी मुझे इन दोनों चोटियों के बीच बंधे इस रस्सी के रूप में दिख रहे हैं जिस पर लगे रंग बिरंगे झंडों पर कुछ लिखा हुआ है। मैं पढ़ने की कोशिश तो कर रहा हूँ पर कुछ समझ नही आ रहा है। शायद पहाड़ों ने इनके शब्द बदल दिए है। पता नही क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि एक पहाड़ ने दूसरे पहाड़ को इन रंगबिरंगे झंडों पर प्रेमपत्र लिखना शुरू कर दिया है। तेज़ हवा के झोंखे मानों उन झंडों पर लिखे हुए शब्दों को पढ़कर सुना रहे हों जिन्हें मैं पढ़ नही सकता। मुझे पूरा यकीन है कि अभी-अभी दोनों चोटियों ने एक दूसरे को देखकर मुस्कुराया है, शायद प्रेम पत्र स्वीकार लिया गया है दूसरी तरफ। ये दोनों चोटियाँ एक दूसरे से जितनी दूर हैं यकीनन उतनी ही खूबसूरत भी हैं। काश की ऐसा इंसानों के साथ भी होता। मुझे नही पता नही की मेरी इनसब बातों का कोई मतलब है भी या नही, इन सब बातों की शुरुआत कहाँ से हुई और खत्म कहाँ पर होंगी पर बहुत सारी बातें अब मुझसे बात करने लगीं हैं।
मेरी चाय अब खत्म होने को आई है, और ये तेज़ चल रही हवा मानों मेरे कप को उड़ा कर मुझसे कहीं दूर ले जाना चाहती हैं और बहुत सी बातें करना चाहती हों मुझसे। और धीरे-धीरे तेज होती हवा से लग रहा है कि अभी बहुत सारी बातें करने को रह गईं है, शायद। जब भी मैं यूँ अकेले बैठ कभी किसी पहाड़ को निहार रहा होता हूँ तो अक्सर यही होता है मेरे साथ। तेज़ चलने वाली हवाएं मुझसे मेरा हाल-चाल पूछने की बजाय मेरे बदन को छू कर एक अजीब सी राहत दे जाती हैं क्योंकि इन्हें भी पता होता है मैं घुट रहा हूँ शीशे से बंद कंक्रीट के जंगलों में। मैं कुछ बोलता की इससे पहले मेरे आँख से निकला हुआ आँशु इनसे बात करने की शुरुआत करता है पर ये कमबख्त हवाएं उसे भी कहीं दूर उड़ा ले जातीं हैं और आंखों को जल्दी से सूखा करने की कोशिश में लग जाती हैं। इन्हें ये पसंद नही आता शायद। ये मुझे मेरा सच्चा हमदर्द लगती हैं।
लंबी चल रही हमारी बातचीत मानों पलक झपकते ही खत्म हो जाती है। अब मेरे वापस जाने का वक़्त हो गया है और शायद ये बात अब इन हवाओं को भी पता चल गई है। ये बार-बार मुझसे दुबारा आने का वक़्त पूछ रही हैं पर मेरे पास कोई ज़बाब नही है। मुझे जाना ही होगा। बिना कुछ कहे, बिना कोई वादा किए, हर बार की तरह इस बार फिर से। जैसे ही मैं जाने को खड़ा हुआ तो पानी की कुछ बूंदें मुझे मेरे चेहरे पर महसूस हुई। इस बार आँख ने अपनी जगह बदल ली है । इस बार पानी मेरी आँखों से न गिरकर पहाड़ की आंखों से गिर रहीं हैं जिसे हवाएँ अपने साथ लेकर आ रही हैं। कितना अजीब है न! इनका रोना भी हमें शुकूँ देता है। या फिर मुझे लगता है कि इन्हें पता है कि मेरी आँखों को गीला होने से ज्यादा शुकूँ मुझे इनकी आंखों से गिरते हुए आँशु से नहा लेने में आएगा। मैं स्वार्थी हो सकता हूँ पर ये नही। इन्होंने मुझे भिगो दिया खुद को रुलाकर भी और एक ऐसा शुकूँ दे गए जिसका इंतेज़ार मुझे अगली बार आने तक रहेगा। हाँ इंसान ठीक इतना ही स्वार्थी होता है।
मैं उन्ही रास्तों पर वापस आ गया हूँ जहाँ पर अभी कुछ देर पहले ही इस सफर और इन्तेजार का अंत हुआ था जिसका मकसद इन पहाड़ों से मिलना था। अब एक बार फिर एक नया सफर शुरू होगा जो वर्षों से पुराना ही है! फिर से उसी जिंदगी में वापस लौटने को। फिर वहीं टेढे मेढ़े रास्ते हैं और भागती सड़क। अब सफेद चमकने वाले सूरज की आँखें ऐसे लाल हो गईं है जैसे ये उन पहाड़ों का कोई साथी हो और उससे अपने यार का रोना देखा न गया हो और उसने खुद भी अपनी आँखें लाल कर ली हों। लुपलुपाता सूरज अब आँख मिचौली कर रहा है। बीच-बीच में वो पहाड़ों के ओट में एकदम से छुप जाता है। शायद हमारी बढ़ती दूरियों का आंखों देखा हाल सुनाने जाता होगा पहाड़ों को! और मैं अपने अंदर अभी भी इंसान का भ्रम पाले हुए आगे बढ़ता जा रहा हूँ उन्ही कंक्रीट के जंगलों की तरफ। एक ऐसा इंसान जो भीड़ मात्र का हिस्सा भर है। जो शायद अब इंसान नही रह गया है। वो दूसरों को देखकर सीखने और कुछ करने की मशीन भर बन के रह गया है। पर अभी भी कहीं न कहीं उसके अंदर कुछ ऐसा जिसे वो आजतक समझ नही पाया है। वो फिर से आएगा खुद के उस हिस्से को समझने। उम्मीद है कि वो कभी इतना मजबूत भी बन जाएगा जब उसे इन पहाड़ों से फिर कभी वापस लौटकर आने का वादा नही करना पड़ेगा । किसी रोज सूरज को बिना लुकाछिपी के गायब हुए उसे अपना लाल बस्ता पीठ पर लादे दफ्तर से अपने घर जाते हुए देखेगा। तब तक वो मशीनी इंसान वापस चलता है क्योंकि उसके दफ्तर का वक़्त होने को आया है।
अम्बुज श्रीवास्तव