पढ़िए हिमालय के महाकुम्भ के बारे में पुस्तक ''रहस्यमय झील की यात्रा'' में

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Photo of पढ़िए हिमालय के महाकुम्भ के बारे में पुस्तक ''रहस्यमय झील की यात्रा'' में by Rishabh Bharawa

कुम्भ मेले के बारे में तो सबको पता होगा ही। हर 12 सालों में एक बार यह नासिक,हरिद्वार,प्रयागराज या उज्जैन में से किसी एक जगह आयोजित होता हैं। करोड़ों श्रद्धालुओं की भीड़ इसमें आती हैं और पवित्र नदियों में एक साथ स्नान करती हैं।क्या आपको पता हैं एक महाकुम्भ हिमालय के पहाड़ों में भी आयोजित होता हैं ?

लगभग 12 सालों में एक बार आयोजित होने वाली दुर्गम ''श्री नंदा देवी राजजात यात्रा'' को ही हिमालय का कुम्भ कहा जाता हैं।यह उत्तराखंड की सबसे पवित्र धार्मिक यात्रा हैं। यह पुस्तक अगस्त 2000 में आयोजित हुई इसी दुर्गम पैदल यात्रा पर लिखी गयी हैं। पुस्तक के लेखक डॉ. बद्रीप्रसाद जी पुरोहित ने यात्रा के हर पहलू को एक डायरीनुमा शैली में लिखा हैं।यह यात्रा असल में एक पैदल दुर्गम यात्रा हैं जो उत्तराखंड में स्थित चमौली के 'नौटी' से प्रारम्भ होकर रूपकुंड झील (18000 फ़ीट ) और ज्यूरांगली पर्वत के खतरनाक क्षेत्र से गुजरकर 13000 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित 'होमकुंड' में जाकर खत्म होती हैं।यात्रा में स्थानीय लोग माँ नन्दा देवी की डोली लेकर चलते हैं जिसका पथ प्रदर्शन एक 'चौसिंगा मेढ़ा' (एक चार सींग वाली भेड़ ) करता हैं।यह यात्रा माँ नंदा देवी के ससुराल जाने तक की यात्रा हैं। इसीलिए माता के ससुराल माने जाने वाले क्षेत्र में इस चौसिंगा मेढ़े को विधिवत श्रृंगार सामान के साथ अकेले विदाई दे दी जाती हैं। माना जाता हैं कुछ आगे जा कर वह अन्तर्ध्यान हो जाता हैं।पूरी यात्रा में अनेकों प्राकृतिक खतरे अनेकों जगह मिलते हैं।खाने पीने की और रुकने की व्यवस्था कई जगह गाँव वालों के घर में ही की जाती हैं। किताब में बताया गया हैं कि एक जगह तो ग्रामीण अपने घरों को जैसी तैसी अवस्था में ही यात्रियों के हवाले कर देते हैं और खुद उस समय घर छोड़ कर चले जाते हैं।

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इस पैदल यात्रा में करीब 250 से 280 किमी तक बर्फीले निर्जन क्षेत्र में चलना पड़ता हैं अपने टेंट वगैरह सब साथ में रख कर।पुस्तक के शुरुवात में बताया सबसे पहले रूपकुंड झील की आपदा के रहस्य को अलग-अलग कथाओं और लेखों से आँका गया हैं। रूपकुंड झील तक का ट्रेक तो अभी भी काफी ट्रेवल एजेंसियां अभी भी हर साल आयोजित करती हैं। इस झील में सैकड़ों मानव कंकाल पड़े हुए हैं जो कि कार्बन डेटिंग की मदद से 700 साल पुराने बताये जाते हैं। ये मानव कंकाल यहाँ कैसे आये ,क्या कोई त्रासदी हुई थी किसी जमाने में या कोई श्राप के कारण कुछ लोगों के साथ बुरा हुआ या खजाने की खोज करने वालों के साथ कुछ हुआ ? लेखक ने शुरू के कुछ पन्नों में इस बात पर अपने मत रखे हैं और बताया हैं कि ये कंकाल भी राजजात यात्रा के श्रद्धालुओं के ही हो सकते हैं।

लेखक अगस्त 2000 में अपने परिचित और अपनी धर्मपत्नी के साथ इस यात्रा के लिए ग्वालियर से निकलते हैं।कार से ऋषिकेश होते हुए उन्हें इस यात्रा में शामिल होने के लिए नौटी तक पहुंचना होता हैं। लेकिन उत्तराखंड में प्रवेश करते ही शुरू होती हैं इनकी परीक्षाएं। कही भूस्खलन से रास्ता बंद तो कही रास्ते में मलबा। ऐसी समस्याओं से उनका यात्रा में पहुंचने में काफी समय खराब होने लगता हैं।एक दिन तो परेशान होकर लेखक यात्रा के जत्थे में शामिल ना होने का ठान लेते हैं तब उनके साथ होती हैं एक घटना और वे पहुंच जाते हैं राजजात यात्रा के जत्थे के पास।लेकिन आगे पूरी पैदल यात्रा शुरू होने वाली थी और काफी आपदाएं उनकी परीक्षाएं लेने का इंतजार कर रही थी। कही लेखक तेज बारिश में फंस गए ,कही भूस्खलन में एक दम नजदीक से बचे ,इनके सामने ही कई यात्री खाई में गिर गए ,एक मौत भी हुई।लेकिन अंत में लेखक पूरी यात्रा को पूरा कर ही लेते हैं। पुस्तक रोमांच और आध्यात्मिकता का एक संगम हैं। पुस्तक पढ़ते हुए मुझे मेरी कैलाश मानसरोवर यात्रा और उस पर लिखी पुस्तक 'चलो चले कैलाश ' की याद आती रही। क्योंकि कैलाश यात्रा भी इसी तरह की यात्रा हैं और ऐसी यात्राओं पर पुस्तक लिखते समय लेखक के मन में क्या चल रहा होता हैं ,उसे लिखना सम्भव ही नहीं हैं। पुस्तक में रास्ते में पड़ने वाली हर जगह से जुडी भौगोलिक और आध्यात्मिक जानकारी दी हुई हैं।

पुस्तक के अंतिम कुछ पन्नों में बद्रीनाथ धाम की यात्रा और वहाँ के आसपास की सभी दर्शनीय जगहों का शानदार वर्णन हैं। साल 2000 के बाद यह यात्रा फिर 2014 में भी आयोजित हुई। अगली यात्रा 2026 में आयोजित होगी। इस यात्रा पर सही और सटीक जानकारी इंटरनेट पर बहुत ही कम उपलब्ध हैं। इसीलिए यह पुस्तक इस यात्रा की काफी सजीव जानकारियां आपको देगी। लेखक डॉ बद्रीप्रसाद जी की तो अब केवल स्मृतियाँ ही शेष हैं।

-ऋषभ भरावा

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