
यूँ तो हिमाचल प्रदेश किसी के परिचय का मोहताज नही है। भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए, छुट्टियोमे हिमाचल स्थित शिमला मनाली जाना तो बड़ी आम बात है । लेकिन आजकल की युवा पीढ़ी शिमला मनाली इन पारंपारिक विकल्पोके अलावा भी कसोल , धर्मशाला, मैक्लोडगंज, डलहौज़ी, स्पिटी व्हैली ऐसी अन्य जगह को पसंद करती दिख रही है। हिमाचल की सदाबहार घाटी, वहाँ की वैशिष्ट्य पूर्ण सभ्यता एवम लोगोकी सादगी, घने देवदार वृक्ष और हिमाच्छादित धवल पर्वत हमेशासे ही देश विदेश के सैलानियोके लिए आकर्षण का विषय बने है।
माह नवम्बर २०१९ में मैंने मेरी अन्य दो सहकर्मी बेलिंडा एवम स्नेहा, इनके साथ हिमाचल के - धर्मशाला, मैक्लोडगंज, कसोल इन तीन पर्यटनस्थलोको देखनेका संकल्प बनाया। इससे पहले हम केरला और लदाख भी साथ मे गए थे और दोनों भी अनुभव अद्भुत थे। हमारे संकल्पानुसार मुंबई से हवाई जहाजसे होते हुए हम दिल्ली पहुँचे। दिनभर दिल्ली में समय व्यतीत करनेके बाद हमने कश्मीर गेट बसअड्डेसे शाम को धर्मशाला के लिए बस पकडी । बस भले सरकारी थी, पर बड़ीही आरामदेह थी । मेरे बगल वाली सीट पर बैठी लड़की से मेरी बातचीत शुरू हुई। पता चला की वह धर्मशाला की थी और गुजरात मे काम कर रही थी। फिर हमारा पहाड़ी जीवन और अन्य प्रदेशोका भारतीय जीवन , उनकी भिन्नता - साम्यता आदि विषयों पर चर्चा प्रारंभ हुई ।रात भर का सफर अच्छा रहा। प्रातःकाल को ही धर्मशाला पहुँच गये। जैसे ही बस से उतरे ठंड ने अपना रंग दिखा दिया। हमने गरम ऊनी कपड़े चढ़ा लिए। वैसे ही ठिठुरते हुए एक कैब से धर्मकोट स्थित हमारे हॉस्टल - Zostel पहुँचे। होस्टल थोड़ी चढ़ाव पे था। अंतर अधिक नही था , पर साथ मे सामान था। जाड़े के कारण चढ़ते हुए साँसे फूल रही थी। जैसे तैसे करके हम वहाँ तक पहुँचे। हमे हमारे कमरे दिखाए गए। लंबी यात्रा के बाद हम सुबह देर तक उस सुहानी ठंड में रजाई ओढ़ के सोये रहे।
पहला दिन - भागसूनाग जलप्रपात
सफर का पहला दिन। हम तिनोमे सबसे उत्साहित थी स्नेहा। इसी लिए पहले दिन ही सबसे पहले उठकर वह स्वयं ही टहलने निकल गयी। मैं और बेलिंडा उसके बाद एक दूसरे को उठाकर सुबह की दिनचर्या को अंजाम देने के बाद स्नेहा से संपर्क कर उसे जा मिले। उसने बताया कि वहाँ से एक राह गाँव से होते हुए एक जल प्रपात की ओर जाती है। हमने वहाँ जाने का मन बना लिया। राह किनारे एक छोटे से ठेले पर आलू पराठा , ऑमलेट , मैगी और गरमागरम चाय-कॉफी ऐसा अल्पोपहार निपटाके हम यूँही मंजिल की ओर निकल पड़े। उसी सफर में एक प्यारा पहाड़ी कुत्ता हमारा हमसफर बन गया। अब हम चार मुसाफिर थे। तकरीबन दो किलोमीटर का रास्ता और एक घंटा। सुंदर गाँवोंसे होकर चहलते- मुस्कुराते , कुदरत के करिश्मों को अपने कैमेरेमें बंद करते हुए, हम उस प्रपात तक पहुँच भी गये। झरने का पानी शीतल था । होगा क्युँ नही, वह तो हिम नगोंसे पिघलकर बहते हुए आया होगा। हमारी तरह और भी सैलानी वहाँ जलक्रीडा का आनंद ले रहे थे ।तकरीबन आधा घंटा वहाँ व्यतित करने के बाद हम पुनः बडे उत्साह से आगे बढे । एक सीढ़ीयोसें बना रास्ता नीचे की ओर जा रहा था, जहाँ था भागसु नाग मंदिर । यही कुछ आधा घंटा - और हम पँहुच भी गए।
जैसे ही प्रवेशद्वार से हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया एक लंबे चौडे आधुनिक तरीकेसे बने हुए कुंडने हमारा ध्यान आकर्षित किया। पानी इतना शीतल था, मानो छूते ही आदमी बर्फ बन जाये, स्नान तो दूर की बात। अन्य कुंडोसे विपरीत - स्वच्छ पानी ! जिससे कुंड का तल , जो नीले मार्बल से बना हुआ था, बड़ी सहजता से दिख रहा था। हम वहाँसे मन्दिर की ओर बढ़े और ईश्वर के दर्शन लिए। मंदिर परिसर में ही इस जगह का इतिहास लिखा हुआ फलक था, जिससे हमें यह ज्ञात हुआँ की यह मंदिर भारतीय सेना के गोरखा टुकड़ी ने बनाया था। भागसुनाग उनकी कुलदेवता है। मंदिर से बाहर निकले तो सजा सजाया बाजार था । हम छोटी मोटी शॉपिंग का आनंद लेते हुए Zostel की ओर निकल पड़े। आधा दिन ऐसे ही निकल गया । पहले दिन ही बहुत जादा चलना हो गया। दूसरे दिन हम ने कैब से ही sightseeing करनेका निर्णय लिया। शाम में Zostel में हसी मजाक भरे कार्यक्रम का आयोजन किया हुआ था। वहाँ पे रहने आये अन्य सैलनियोके साथ हम भी रात के खाने के बाद कार्यक्रम का हिस्सा बने । जिसमे छोटे छोटे नाटक खेले गए । ठहाको भरी उस पहली रात के बाद हम सोने चले गए ।
दूसरा दिन - धर्मस्थल एवं मैक्लोडगंज भ्रमण
निश्चित समय पे कैब आयी। पहले दिन तो हम बिना बन ठन के ही निकल पड़े थे , पर आज दिन अलग था , आज सब कुछ पूर्व नियोजित था। हम पूरे साज श्रृंगार के साथ सज के - संवर के निकले थे। क्योंकि हमें अच्छी अच्छी फोटोज भी तो लेनी थी । आज के दिन हमने भागसूनाग मंदिर से शुरुवात कर दलाई लामा मठ- संग्रहालय, स्थानिक युद्ध स्मारक, चाय के बागान,तिब्बती संस्कृतिसे परिचित कराती - नॉर्बुलिंगका संस्था इन जगहोंको भेट दी। यह तो भलीभाँति ज्ञात है के तिब्बत के दलाई लामा जी ने चीन से हो रहे उत्पाद के कारण अपने अन्य अनुयायियों के साथ भारत में शरण ली है। वे अब धर्मशाला में निवास करते है। दलाई लामा मठ में बने संग्रहालय को हमने भेट दी । यहाँ हमे तिब्बती संस्कृति, उनका इतिहास, चीन से उनका संघर्ष इन सब बारे में कई जानकारी मिली। तथा युद्ध स्मारक में बिताए पलों से देशभक्ति पुनर्जीवित हुई। सैनिकोंके बलिदान के आगे फिर से शिर आदर से झुक गया। नॉर्बुलिंगका में मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया - Doll Museum । यहाँ तिब्बती संस्कृति से परिचित कराती घटनाऐं, रीति रिवाज एवम त्यौहार , प्रांतानुसार बदलती वेशभूषा, रहनसहन , खेती के तरीके एवं अन्य व्यवसाय इनसे रुबरु कराते गुड्डे गुड्डीयोंकी संरचना की थी । विशेषतः बच्चोंके लिए ये जगह बिल्कुल सही है । देखते देखते शाम हो गई । रात में हमने बाजार में ही स्थानिक तिब्बती व्यंजनोंका आस्वाद लिया । इस तरह दूसरा दिन बीत गया और अगले दिन हमने "त्रिउंड" जाने का निश्चय कर लिया।
तीसरा दिन - त्रिउंड गिर्यारोहण
यह ट्रेक भारत के कई ट्रेकोमेंसे एक कठिन ट्रेक माना जाता है| गल्लू गाँव से इस ट्रेक की शुरुवात होती है। यहाँ से त्रिउंड की चोटी तक पहुँचने के लिए सामान्यतः ४ घंटे लगते है । अगर अंतर में गणना की जाये तो कुल मिलाके २८०० मीटर । Zostel से गल्लू पैदल आने के लिए हमे १५-२० मिनट तो लग गए। गल्लू में हमने पेट भर के नाश्ता किया, खाने पीने का सामान खरीदा, तथा ट्रेक में सहाय के लिए एक एक बास की लकड़ी किराये पे ले ली, और चल पड़े मंजिल की ओर। हमेशा की तरह स्नेहा आगे निकल गयी, बेलिंडा भी काफी हद तक फिट लगी । पर मैं कछुए के चाल से रुक रुक के , साँस ले ले के चल रही थी । कई बार तो लगा - भैय्या हमसे ना हो पायेगा ! फिर भी जैसे तैसे चोटी तक पहुँच ही गईं। वहाँ एक टेंट में ठेलेवाले के पास जाकर सबसे पहले मैंने मैगी खायी, गरमागरम चाय पी, और फिर जाकर उन दोनोको ढूँढा। अनगिनत फ़ोटो लिए । घास की हरी कालीन पे लेटे, मैं उस अद्भुत नजारेको अपनी आंखोमें हमेशा के लिए भर रही थी। धौलाधार पर्वत श्रुंखला के उस विहंगम दृश्य ने मुझे स्थितप्रज्ञ कर दिया था। जैसे ही कड़ी दोपहर हुई कोहरे का पड़दा त्याग कर उस गिरिराज ने हमें उसके पूर्ण दर्शन दिये। हिम का रजत मुकुट पहना वह गिरिराज मुझे किसी देवतासे कम न लगा । थोड़े समय के लिए हरे कालीन पे लेट, बदलोकि चादर ओढ़े हमने वामकुक्षि ली और फिरसे नीचे की तरफ निकल पड़े।
चढ़ना जितना मुश्किल था उतरना उतनाही आसान। गल्लू पहुँचते पहुँचते ही अँधेरा हो गया। गल्लू से धर्मकोट और एक पड़ाव बाकी था। वहाँ एक ही टैक्सी खड़ी देखी । चालक से दाम पुछा तो वो काफी ज्यादा बताने लगा। फिर वहाँ से हम उस घने रास्ते से अंधेरे में पैदल ही Zostel तक गए। काफी थके थे। वह 'धर्मशाला - मैक्लोडगंज' का आखरी दिन था। अगले दिन हम कसोल के लिए निकलनेवाले थे।
चौथा दिन - कसोल
नाम तो काफी सुना था कसोल का। इस्रायली लोग सर्दियोमे यहाँ काफी आते है, इस लिए कसोल को " मिनी इस्राइल ऑफ इंडिया " भी कहा जाता है। सवेरा होते ही हम Zostel से निकल पड़े। धुलाधल की धवल पर्वत श्रुंखला को आखरी वंदन करते हुये । पूरे दिन का सफर था । पहुँचते पहुँचते रात हो गयी । रहनेकी जगह अभी देखनी थी। काफी विकल्प देखनेके बाद हमे अपने बजेट में एक होटल मिल ही गया । हमारे होटल के सामने पार्वती नदी का प्रवाह था। तो एक ओर से खीरगंगा का पर्वत हमे ताक रहा था। रात की चांदनी में भी खीरगंगा का वह पर्वत अपनी रजत कांति से मंत्रमुग्ध कर रहा था। हम फ्रेश होके बाहर वरांडा में, जहाँ अलाव की व्यवस्था की गयी थी, वहाँ आके बाकी लोगो के साथ बैठ गए। हल्की हल्की बारिश हो रही थी । छोटी छोटी बातोंसे बातचीत शुरू हुई। फिर बाते पहाड़ी संस्कृति से, चुड़ैल, भूत यहाँ तक आ पहुँची। दिलचस्प बातोंके चलते हमने खाना भी वही मँगवाक़े खाया। इस तरह चौथा दिन हमने सिर्फ सफर में गुजार दिया और रात बातोमे। अब अगले दिन के लिए हमारे पास कोई योजना नहीं थी।
पाँचवा दिन - मणिकरण गुरुद्वारा एवं शिवमंदिर
मुझे इस कुदरत के चमत्कार के बारे में बिल्कुल भी पता नही था । सवेरे होटल वालोंने हमे कुछ पर्यटन स्थलोंकी जानकारी दी, जिसमे सबसे नजदीक था मणिकरण। हमने सोचा मार्केट से सटे हमारे होटल से मणिकरण पैदल ही चलेंगे। पार्वती नदी की मनोभावन अठखेलियाँ देखते देखते हम आगे बढ़ रहे थे । खीरगंगा पर्वत अब सूर्यप्रकाश में नहाने के बाद और भी विलोभनिय लग रहा था। आसपास के मनोहारी दृश्य देख मुझे मानो स्वर्ग का अनुभव हो रहा था । निशंक , यूँही हिमाचल को देवभूमि नही कहते ।
हम निसर्ग को सराहते हुए आगे बढ़ रहे थे तभी एक सिख वाहनचालक ने हमे सवारी के लिए पूछा। हमने कहा हम पैदल ही जायेंगे। तभी उसने कहा - "पैदल जाने इतना नजदीक नही है मैडम। बैठ जाइये छोड़ देता हूँ ।" थोड़ी सी झिझक के बाद हम उसके गाड़ी में बैठ गए। नेक बंदा था। उसने पूछा - " मैडम आप लोग यहाँ क्यों आये, आपको तो स्पिटी वैली जाना चाहिए था। वह जादा खूबसूरत है, यहाँ तो लोग बस अमली जड़ीबूटियों के लिए आते है। वो भी कॉलेज के बच्चे , यहाँ कुछ नही है इसके अलावा।" हमने कहा, स्पिटी वैली भी जाना था बूत इतनी छुट्टियां नही है। अगली बार जाएँगे। बातो बातो में हम मणिकरण पहुँच गए। हम लोगोने अपनी ओरसे उसे कुछ पैसे दिए जिसको वह पहले तो लेने से इनकार कर रहा था। पर हमने आग्रह करने पर उसने उसका स्विकार किया।
मणिकरण गुरुद्वारा पार्वती नदी के दूसरे छोर पर था। नदी पर बने पूल को पार करके हम मुख्य गुरुद्वारे पहुँचे। वहाँ जैसे हि प्रवेश किया, गर्म पानी के कुंड बने दिखे, महिला और पुरुष दोनों के लिए अलग अलग। उस ठंडे माहौल में, गर्म पानी के वे कुंड, ईश्वर के वरदान की तरह ही थे। कुंड में हाथ मुँह पैर धो कर हम प्रार्थनागृह में गये। वहाँ एक बाबाजी शिखोंके पावन ग्रंथ का पठन कर रहे थे। उनके वाणी से उस जगह की पावनता का अनुभव हो रहा था। निचे पूरे जमीन पर क़ालीन बिछायी थीं। हम खुदको वहाँ बैठके उस पावन तरंगोंका आनंद लेने से रोक नही पाये। काफी समय वहाँ बिताने के बाद हम भोजनगृह की तरफ बढ़े और गुरुद्वारे के लंगर का लुफ्त उठाया।
लंगर के बाद हम जाने के लिए आगे बढ़े , वहाँ कुदरत का और एक अविष्कार हमारा इंतजार कर रहा था - वह थी, 'गर्म गुंफा' । अंदर जाने के लिए छोटा सा छिद्र था, जैसे ही अंदर गए, हमने पाया के वहाँ की जमीन गर्म थी, जिससे एक कमरे इतनी वह गुंफा भी गर्म लग रही थी, अंदर पहले से ही बहुत भाविक बैठे हुए थे, कुछ तो शवासन की मुद्रा में लेटे हुये थे। पेटभर लंगर का खाना खाने के बाद हम भी खुदको रोक नही पाये। और तकरीबन आधा घँटा हम भी बाकी लोगो के तरह शवासन की अवस्था मे लेटे रहे ।
इस तरह वहाँ समय व्यतीत करने के बाद, निकास के रास्ते से हम बाहर निकले ही थे के मणिकरण शिवमंदिर पे नजर गयी । हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। तभी हल्की हल्की बारिश शुरू हुई। ठंड अब अच्छी खासी बढ़ गई। वहाँ पर- खौलता गर्म पानी, जिसमे हाथ डालना भी मुश्किल हो ऐसे कुंड बने थे। कुदरत कहो या भगवान - इस चमत्कार के आगे मैं अब नतमस्तक थी। परिसर में मंदिर से जुड़ी शिव पार्वती की आख्यायिका लिखी हुई थी। भोले भंडारी को वंदन किया । नंदी बाबा के कानोमे जीवन की पीड़ा सुनाई और उसके निवारण के लिए प्रार्थना की। सोचा बिल्कुल न था के पूरा दिन यही गुजर जाएगा , और देखते देखते शाम हो गई।
बारिश जैसे बंद हुई, हम होटल की तरफ निकले। बाजार भी पास ही था तो हमने सोचा क्यों न ब्यौरा किया जाये। कसोल के बाजार में तरह तरह की चीजें देखने मिली। किस्म किस्म के चिलिम थे। बोहो शैली तथा हिप्पी संस्कृतिसे प्रभावित बैग्स, कपड़े तथा आभूषण से मार्किट सजा हुआ था। नुक्कड़ पे बने एक साधारण होटल में हमने स्वादिष्ट मोमोज का लुफ्त भी उठाया और उसके बाद होटल पहुँचे। रात के खाने में एक स्थानिक भोजनालय में हमने इस्रायली भोजन का जायका उठाया। वही अगले दिन के लिए हमने तोश गाँव देखने का मन बना लिया।
छठा दिन - तोश गाँव
वैसे तो चारवाहोके इस गाँव मे शहरी युवाओंके जत्थे रहने के लिए आते है पर हमारा ऐसा कुछ मनसूबा नही था। सोच के तो यही आये थे के ट्रेक करेंगे, पर हमें यहाँ पे इतना कुछ भाँया नहीं। गाँव के बीचोंबीच एक विशिष्ट तरह से बना हुआ लकड़ी का मंदिर बना दिखा , जहाँ बाहरी लोगोका छूना मना था, और छूने पर ५०० रुपयोंका दंड भी था। कुछ बच्चे परिसर में खेलते दिखे। जब हमने उनसे बात करनी चाही तो उन्होनें बड़ी कठोरता से हमे अनसुना कर दिया , जैसे उन्हें सिखाया गया हो के बाहरी लोगोंसे बात नही करनी। वैसे तो गाँव के चोरों ओर हिम पर्वत खड़े थे जिनसे जगह की शोभा बढ़ रही थी। पर गाँव मे स्वच्छता का अभाव दिखा। वह था पर्यटन का दुष्प्रभाव। हम वही से पिछे लौटे, फिर एक बार कसोल बाजार के चक्कर लगाये। जाना चाहते थे मलाना, पर ड्राइवर ने कहा एक दिन में मुमकीन नही। मलाना का विकल्प हमने कल के लिए छोड़ दिया।
कसोल से कुछ लोग चहल गाँव की तरफ भी जाते है। वहाँ कुछ सैलानी कैंपिंग भी करते है। पर समय के अभाव के चलते हम वहाँ जा नही पाये। खीरगंगा ट्रेक पे जाने के कल्पना को भी बारिश के चलते हमने विराम दे दिया। और आखरी दिन के लिए मलाना गाँव का विकल्प शेष रखा।
आखरी दिन - मलाना गाँव
कसोल से काफी अंदर की तरफ, बड़े बड़े पर्वत चढके, झरनों को चीरने के बाद, घने डरावने तनहा जँगलोसे होते हुए हम इस चमत्कारीक गाँव के प्रवेशद्वार तक पहुँचे (अर्थात गाडीसे) । वैसे तो रास्ते मे ही वाहनचालक ने इस गाँव, वहाँ रहनेवाले लोग, ईनके बारे मे बहुत कुछ बताया - जैसे के गाँव के लोग बाहर के लोंगोंको आने तो देते है मगर उनको छुना मना है, जैसे हम अछूत हो उनके लिये। शादियाँ भी ये लोग अपने गाँव मे आपस मे ही करते है। इनकी भाषा भी बाकी पहाड़ी भाषिकों से थोड़ी अलग है। उसने यह भी बताया के इतने दूरदराज़ स्थान में होने के बावजूद भी यहाँ के लोग काफी धनवान है। अमली जड़ीबूटियों का व्यापार कर उन्होंने बड़ी बड़ी कोठियाँ बनवाई है। थोडासा नाश्ता कर के हम निकल पड़े इस सफर की अंतिम ट्रैकिंग के लिए। गाँव तक जाने के लिए पक्की सड़क नही है। गाँव के लोग इसी तरह चलके मुख्य रास्ते तक आते है। उनका काफी सामान रोपवे से दूसरी तरफ जाता है। "उ-ई-मा" करते करते हम गाँव पहुँच ही गये। गाँव था या कूड़े का साम्राज्य !?! यहाँ वहाँ अविघटन शील कूड़ा फैला हुआ था। घर से निकलने वाला गंदा पानी भी तो रास्ते मे ही छोड़ा हुआ था। गाँव के लोग आरामसे मुख्य चौक में लेट के धूप सेख रहे थे। वहाँ भी ठीक तोश गाँव की तरह मंदिर बना हुआ था जो प्रतिबंधित था। कुछ आगे बढ़े तो दिखा के खुले जगह में कुछ गाँव वासी भेड़ों से ऊन अलग कर रहे थे । हमारी कुतुहूलता देख वहाँ एक बुजुर्ग ने हमारी पूछताछ की। हमे भी उनसे बात कर गाँव के बारे में जाननेका अवसर मिला। कुछ समय वहाँ बिताके हम ठीक समय में वापसी के रास्ते के लिए निकल पड़े ।
इस तरह हम हिमाचल की वादियों में एक सप्ताह अपने मर्जी की जिंदगी जीने के बाद रोज मर्रा की जिंदगी जीने के लिए निकल पड़े जहाँ अपने ज़िंदगी के तार हम दूसरोंके हातों में दे बैठते है । शहरों के चकाचौंध से दूर ये अलग दुनिया हमे पुकारती रहती है। बहरे मत बनो। आपकी छुट्टियों को एक अवसर तो दो।



























