मैं हर कदम कसोल की वादियों में बढ़ रहा था, बिना सोचे समझे। ऊँचा- नीचा रास्ता, हरी भरी झाड़ियाँ, अमिताभ बच्चन से भी लंबे पेड़ और अपनी आगोश में भरते दूध जैसे सफ़ेद बदल, कल कल करते झरने और मेरे साथ चलता पहाड़ी कुत्ता शेरू। एक तरफ़ा रेस हो रही थी मुझमे और शेरू में। वो भी जिद्दी था पर मैं ढीठ। खैर उन खूबसूरत, नाशेली वादियों का रास्ता शेरू को ही पता था तो मैं उस रेस से लगभग बाहर ही था और शायद ये बात शेरू को भी पता थी इसलिए जनाब शेरू आराम से रुक रूक कर, जगह-जगह लघु शंकाओं के स्टॉपेज लेते किसी प्राइवेट बस जैसे चल रहे थे। मुझे भी इस बात का अफ़सोस नहीं था क्योंकि इन वादियों से मुझे इतना इश्क़ था कि मैं रात भर न सोने के बाद भी पहाड़ की पगडंडियों पर सध कर चल रहा था, जैसे मेरा रोज़ का आना जाना हो।
खैर ये सब बात तब की है जब मैं एक ट्रैवल कंपनी के साथ दिल्ली में रह कर, सिनेमेटोग्राफर का काम कर रहा था। घूमने का कीड़ा मुझे बचपन से और एक जगह न रुक पाने की बीमारी भी, ये मेरी बीमारी इतनी बुरी है कि मैं बचपन में पढ़ाई भी छत पर घुमते हुए करता था। खैर तो बस इसी कीड़े ने हाथ में कैमरा थमा दिया और घूमने की लत लगा दी। और मैं निकल चला हिमाचल प्रदेश। शाम के 6 बजे मैं दिल्ली की मार पिटाई सहते और अतिशुद्ध हवा में सांस लेते हुए निकल चला। रात भर मेरी गाड़ी में गाने बजे, बारातियों जैसा डांस हुआ क्या नागिन क्या सपेरा मैं डांस का और डांस तू मेरा, कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा था। कुछ देर में सब सो गए और मैं खिड़की से बहार निगाह टिकाए बदलते रास्तों को देखता रहा, कैसे एक ही देश में कुछ मील के अंतर पर पानी, सड़कें, लोग और उनकी आदतें बदल रही थीं। कहीं सड़कें सीधी, कहीं ऊँची, कहीं नीची, कहीं साँप जैसी तो कहीं ऐसी थी जैसे मानो किसी ने ज्योमेट्री बॉक्स वाली स्केल से सड़क खींच दी हो। उन सड़कों को देखते देखते मुझे अचानक से ज़िन्दगी के हाल याद आगए। किस तरह हमारी ज़िन्दगी भी यों ही बदलती रहती है, कभी इस डगर सीधी तो कभी उस डगर टेढ़ी। यह सोचते सोचते मैंने सोचा की जब लोग इन बदलती सड़कों का मज़ा ले सकते हैं तो जिंदगी का क्यों नहीं, फिर क्यों शिकायतें आती हैं? खैर ये सवाल मैं आप पर छोड़ता हूँ।
नीली-पीली-लाल बत्तीयाँ और हवा बदलते देखते मुझे नींद आगयी और फिर मैं उठा अगली सुबह 5:30 बजे हलकी हलकी सुबह हो चुकी थी उर्दू में कहूँ तो फ़ज़र का वक़्त था। मेरी गाड़ी थोड़ी देर में रुकी मैंने दूर से अपनी मेहबूबा को तलाशा और थोड़ी देर में मैं उसकी बाहों में नशे में धुत्त था, वो इतनी गर्म थी कि मानो कह रही जो अपने सारे गम मुझमे पिघला दो और मैं उसको देखे जा रहा था, और घूँट घूँट पिए जा रहा था, और साथ में पार्ले जी बिस्किट थोड़ा उसे खिला रहा था थोड़ा खुद खा रहा था, जी हाँ मैं चाय पी रहा था। कुछ देर में मेरी मेहबूब मुझसे जुदा हुई और मैंने भी उससे अलविदा ली क्योंकि मेरा इश्क़ मुझे बुला रहा था। मैं गाड़ी में चढ़ा और फिर खिड़की पर सर टिका दिया उसके बाद मुझे सिर्फ घुंगराले बालों से घुमते रास्ते, पहाड़ो की महकती खुशबू और वक़्त के साथ बहता पानी ही याद है इसके सिवा कुछ याद है तो बस बीच-बीच में शियूं-शियूं से निकलती दूसरी गाड़ियों की आवाज़। मैं कब 16 घंटे का सफर पूरा कर कब कसोल पहुँच गया पता ही नहीं चला। मैं कैंप पहुँचा अपना बैग रखा कैमरा उठाया चप्पल पहनी और निकल गया पार्वती नदी के सबसे ऊँचे टीले पर, उसके बाद जो मेरे साथ हुआ वो आज भी मेरी साँसों में नशा बनकर दौड़ता है।
टीले पर पहुँचकर जब मैंने अपने नज़र दौड़ाई तब तो कुछ पर तो होश में होकर भी बेहोश था, पार्वती नदी का वो दहाड़े मार कर बहते पानी में मुझे इतना सुकून मिल रहा था कि मैं वहीं बैठ गया और बैठे बैठे कब सो गया पता नै चला। थोड़ी देर में किसी ने मुझे आवाज लगाई तो मैं उठा, चारो ओर हरियाली थी, पानी बह रहा था उस जंगल में टन-टन बजती गाय की घंटियाँ, उस टीले से दिखता हिमालय सूरज की रौशनी पड़ने से सोने जैसा चमक रहा था। मेरी बेहोशी मुझपर फिर से छाने लगी थी इतनी ख़ूबसूरती मैं ज़माने बाद देख रहा था। खैर मैंने खुद को संभाला और अपने कैंप में आगया। उसके बाद रात में आग के आस पास बैठ कर कुछ मुशायरे हुए, कुछ बात हुई, कुछ इश्क़ हुआ कुछ तकरार हुई। इसी के साथ उस दिन की रात भी ढल गयी अगली सुबह कैंप में उठा तो हर तरफ दरवाजा पीटने की आवाजें आ रहीं थी, बाहर निकला तो देखा कुछ लोग अजीब तरह से मटक कर चल रहे थे, कुछ भाग रहे थे और कुछ अजीब सा नाच नाच रहे थे, माजरा क्या है समझ नहीं आया फिर पता चला की आज नदी से आने वाला पाइप टूट गया है जिसकी वजह से कहीं पानी नहीं है। मैं सबके नाच और मटकती कमर का राज समझ गया। खैर जैसे तैसे सब सुलटा चाय चली, महफ़िल जमी और फिर हम तैयार हुए 'बिग डे' के लिए आज हमें ट्रैकिंग पर खीरगंगा जाना था।
हम तैयार हुए बढ़िया ग्रुप फोटो ली और चल पड़े बरसैनी की तरफ तकरीबन दो घंटे बाद हम पहुँचे बरसैनी डैम और वहाँ से कुछ खाने पीने का सामान लिए क्योंकि इसके आगे सामान महंगा हो जाता है और जल्दी मिलता भी नहीं है। हमने उतर कर गाइड लिया और कर दी चढ़ाई पहाड़ पर और वहीं मेरी मुलाक़ात हुई शेरू से और तबसे शुरू हुई हमारी रेस। शुरू के 20 मिनट की चढ़ाई करने के बाद मुझे तो लगा की मेरा दिल अब धकड़ के बाहर आया कि तब किसी तरह हम पहले पहुँचे कालगा गाँव। वहाँ हमने 10 मिनट आराम किया और फिर शुरु हुआ हमारा असल सफर। मैं हर कदम के साथ उस बेसब्र दूल्हे जैसा होता जा रहा था जिसकी शादी आज शाम को हो। मैं पूरा पहाड़ चढ़ने को बेताब था, वहाँ के नज़ारे देखने को बेताब था। और मेरा सब्र हर पल टूट रहा था। पर भला हो शेरू का जिसकी रेस ने मुझे मेरी सब्र की रस्सी से बांधे रखा। पूरे सफर में कहीं धूप कहीं छाँव, कभी बारिश, कभी सुनहरी धूप दिख रही थी, बगल से बहती पार्वती नदी की दहाड़ हर दम सुनाई पड़ रही थी। में-में करते भेड़, घंटिया बजाते घोड़े, अमिताभ बच्चन से लंबे पेड़, चीड़ के पेड़ों से अति सोंधी सोंधी महक, हर 3-4 मील पर बहता झरना, मुस्कुराते स्वागत करते पहाड़ी चेहरे, मैगी और चाय की ललचाती महक ये सब मुझे दीवाना बना रहे थे। वहीं दूसरी तरफ पैरों में पड़ते छाले, जवाब देते घुटने और अधूरी आती साँसे, लेकिन वो नज़ारे, वो खुश्बू और शेरू इन सब ने मुझे हिम्मत बँधाए रखी और मैं चलता रहा।
साढ़े चार घंटे चलने के बाद मुझे मेरी मंजिल नज़र आई पर सिर्फ नज़र आई अभी उसकी चढ़ाई और बची थी वो भी खड़ी चढ़ाई। मैं थक चुका था पर ऊपर जाकर उन पहाड़ो को देखने के लालच के आगे सब धरा रह गया मैं उठ खड़ा हुआ और बढ़ गया आगे चलते चलते पहुँचा तो मुझे नहीं पता मेरी थकान का क्या हुआ, मैंने देखा तो बस काले पहाड़ जगह जगह बर्फ से ढके हुए और मानो मेरी ओर मुस्कुरा कर कह रहे हो, आ गए उस्ताद, आओ मैं तुम्हे अपनी बाहों में भींच लेता हूँ, तुम यहाँ महफूज हो। मैं उन पहाड़ों की ओर देख कर मुस्कुरा दिया और हाथ मुँह धोया गपशप लड़ाई, और निकल पड़ा घर की ओर।
बांग्ला और गुजराती में सफ़रनामे पढ़ने और साझा करने के लिए Tripoto বাংলা और Tripoto ગુજરાતી फॉलो करें
Tripoto हिंदी के इंस्टाग्राम से जुड़ें और फ़ीचर होने का मौक़ा पाएँ।