BY NEHA
बिना रास्ते चलने में खतरे तो हैं, लेकिन रोमांच भी कम नहीं है। बीते दो साल मेरी जिंदगी के सबसे यादगार क्षण लेकर आए हैं। हां, मैंने ट्रेकिंग का ककहरा सीख लिया है। अच्छा लग रहा है खुद पर भरोसा कर, प्रकृति के इतना पास जाकर कि उसकी धड़कनें भी सुनाई दे जाएं। पहाड़ों से बातें कर, नदी को प्रवाहमान देखकर, बर्फ से ढकीं चोटियों से सम्मोहित होकर और सीना ताने हिमालय को देखकर। हम चार दोस्तों के लिए गोमुख ट्रेकिंग का अनुभव शायद जिंदगी के बेहतरीन पलों में से एक होगा। शुरुआत गंगोत्री से करते हैं, अप्रैल के महीने में भी गंगोत्री में हाड़ कंपा देने वाली ठंड थी। यहां हम फारेस्ट रेस्ट हाउस में रुके थे और गंगोत्री मंदिर के कपाट खुलने के अगले ही दिन गोमुख ट्रेकिंग के लिए तैयारी कर रहे थे। गंगोत्री नेशनल पार्क में एंट्री के लिए परमिट मिल चुका था, देर थी तो बस ट्रेक शुरू करने की। लोगों से बातचीत की तो पता चला कि गोमुख का रास्ता पूरी तरह टूटा हुआ है और अभी किसी को कोई आइडिया भी नहीं है। कई जगहों पर भूस्खलन भी हो रहा है, लिहाजा सफर खतरनाक होगा। रात आंखों-आंखों में बीती, सुबह होते ही हमने बैग बनाना शुरू कर दिया और कुछ ही देर में हम तैयार थे, जिंदगी का एक बेहतरीन अनुभव लेने के लिए।
तो शुरू करते हैं सफर…
आइए अन्य साथियों से मिलते हैं। अभिषेक, जिसे फोटोग्राफी में दिलचस्पी है और वो अपने गीतों से यात्रा को मजेदार बना देता है। मेरे पतिदेव चंद्रप्रकाश (सीपी) और अंकित को कमेंट्री का खासा शौक है तो वो मोबाइल में वीडियो बनाने में व्यस्त रहते हैं और एक मैं, जिसे नजारों को देखने से ही फुर्सत नहीं मिलती। एक अन्य साथी जो हमारे साथ जुड़े, वह थे हमारे गाइड महेश रावत। हुआ यूं कि रास्तों का हमें खासा अनुभव नहीं था तो तय हुआ कि एक गाइड साथ ले चला जाए। पहले कई लोगों से बात बन नहीं रही थी, लेकिन बाद में हमें रावतजी मिल गए। हमने रास्ते के लिए आलू के पराठों के साथ पानी और अन्य खाने का सामान पैक कराया। रावतजी ने आने के बाद सबसे पहले हमारा बैग हल्का कराया और रेनकोट आदि बैग से निकाल दिया। उन्होंने बताया कि गोमुख में बारिश नहीं होती, अगर मौसम खराब होगा तो बर्फ गिरेगी। ऐसे में बरसाती रखने का मतलब बोझ बढ़ाना होगा। फूलों की घाटी ट्रेकिंग के अनुभव के बाद हमने स्टिक भी खरीद ली, जो खासकर चढ़ाई के दौरान काफी मददगार साबित होता है। सब सेट करने के बाद हम निकल पड़े गोमुख ट्रेकिंग के लिए सुबह आठ बजे। पहली चढ़ाई के बाद ही सांस फूलने लगी, लेकिन कुछ कदम बाद सब सामान्य हो गया। हम चलते रहे और रावतजी हमें कई किस्से सुनाते रहे। सामने से कमंडल लिए साधुओं का दल गुजरा, जै गंगा मैया बोलते हुए। सच में दूसरों को देखकर उत्साह काफी बढ़ जाता है। धीरे-धीरे धूप तेज होती जा रही थी। ऐसे में आंखों पर धूप का चश्मा तो जरूर लगाएं जो आपको सूर्य की किरणों से बचाएगा। साथ ही सनस्क्रीन लगाएं और चेहरा ढंक कर रखें।
गंगोत्री से फारेस्ट चेक पोस्ट
गंगोत्री बस स्टैंड से फारेस्ट चेक पोस्ट की दूरी करीब दो किलोमीटर है। चेक पोस्ट तक के रास्ते में गंगोत्री धाम का खूबसूरत नजारा दिखता है। वहां गंगोत्री नेशनल पार्क में प्रवेश के लिए आपको परमिट दिखाना पड़ता है। साथ ही बैग चेक कर प्लास्टिक की पानी की बोतलें और चिप्स के रैपर भी वापस लाने को कहा जाता है। सिक्योरिटी के तौर पर आपसे पैसे जमा कराए जाते हैं, जो वापसी में प्लास्टिक लाने पर आपको लौटा दिया जाता है। वहीं भारतीय नागरिकों के लिए प्रवेश शुल्क 150 रुपये है। प्रवेश द्वार पर बोर्ड लगा है, गंगोत्री नेशनल पार्क में आपका स्वागत है। परिसर में बोर्ड के माध्यम से पार्क क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न जीव-जंतुओं की जानकारी भी दी गई है, जिसमें भरल भी शामिल है।
फारेस्ट चेक पोस्ट से चीड़वासा
सारी प्रक्रिया पूरी करने के बाद हम चेक पोस्ट से आगे बढ़े और अगला पड़ाव चीड़वासा था, जिसकी चेक पोस्ट से दूरी लगभग सात किमी है। आगे बढ़ने पर बर्फ से ढंकी चोटियां आपका स्वागत करती हैं, रास्तेभर ग्लेशियर से छोटी-छोटी धाराएं फूटकर भागीरथी में मिलती नजर आती हैं। करीब 20 मिनट चलने के बाद एक पहाड़ से फूटती जलधारा नजर आई, जिसका पानी काफी ठंडा था। वहां तक पहुंचते-पहुंचते हमारी बोलतें लगभग खाली हो चुकी थीं तो हमने वहां पानी भरा और पीया भी। धारा का पानी न केवल साफ था, बल्कि एक अलग स्वाद था उसमें। आगे बढ़ने पर एक जगह भागीरथी बड़ी तेज आवाज के बहती नजर आई। कई जगह रास्ते काफी संकरे हैं, वहां बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत होती है। दोपहर चढ़ने लगी है, पेड़ बहुत दूर-दूर नजर आते हैं। ऐसे में चलते-चलते छांव की जरूरत महसूस होने लगी। रास्ते में हमें एक युवक मिला, जिसने चार-पांच बैग लादे हुए थे। उसका कहना था कि वह गोमुख में चार-पांच दिन रुककर साधना करता है। पिछले साल भी वह वहां एक गुफा में ठहरा हुआ था। इसी बीच हमें एक हरियाणे वाले भैया भी मिल गए, जो हर साल अकेले यात्रा पर निकलते हैं। बातों-बातों में वो भी हमारे साथ हो लिए। अब चीड़ के जंगल दूर से नजर आने लगे थे। चीड़वासा जंगल से घिरा क्षेत्र है, जहां हमने कुछ देर रुककर आराम करने की सोची थी। वहां वन विभाग की एक चौकी भी है, जहां इक्का-दुक्का लोग नजर आए। वहीं शुरुआती सीजन होने के चलते यात्री शेड भी अच्छी हालत में नहीं था। हालांकि मजदूर जगह-जगह रास्ते बनाने के साथ ही बाकी काम भी कर रहे थे। रास्ते में हमें कई नेपाली युवक भी मिले, जो पीठ पर सिलेंडर समेत बोरियां ढो रहे थे। उन्होंने बताया कि उनका तो रोजाना एक-दो चक्कर हो जाता है। चीड़वासा में हमने आराम किया और पराठों को पेट में डाला, थोड़ी राहत महसूस हुई। आगे भूस्खलन जोन शुरू होने वाला था।
चीड़वासा से भोजवासा
चीड़वासा से भोजवासा की दूरी यूं तो पांच किमी है, लेकिन यह रास्ता पत्थरों और मलबा आने की वजह से अपेक्षाकृत अधिक कठिन था। चीड़वासा से भोजवासा की ओर बढ़ते ही कई ग्लेशियर और बर्फ से ढकी चोटियां नजर आने लगती हैं। सूर्य की रोशनी जब इन चांदी सरीखी चोटियों पर पड़ती हैं तो आंखें चौंधिया जाती हैं। सामने भागीरथी पीक सीना ताने नजर आती है। रास्ते में कई जगह स्लाइडिंग जोन थे। कई जगहों पर तो पत्थर भी गिर रहे थे। वह तो हमारे गाइड रावतजी ने हौसला बरकरार रखा और हम सारी बाधाएं पार करते गए। रास्ते में हमें कई विदेशी ट्रेकर भी मिले, जो बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने हौले से एक मुस्कान के साथ हेलो कहा और आगे बढ़ गए। इस रास्ते पर एक सबसे अच्छी बात हमारे साथ यह हुई कि हमने दुर्लभ भरल देखे। भरल को हिमालयन शीप भी कहा जाता है, जो काफी ऊंचाई वाले स्थानों पर पाए जाते हैं। धीरे-धीरे भोजवासा नजर आने लगा। भोजवासा जाने के लिए गोमुख के रास्ते से नीचे उतरना पड़ता है। यहां जीएमवीएन के गेस्ट हाउस के अलावा निर्मल बाबा का आश्रम भी है, जहां काफी किफायती दाम पर सोने की जगह के साथ खाना भी मिल जाता है। यहां एक पुलिस चौकी भी है। साथ ही मौसम विभाग के यंत्र भी पूर्वानुमान के लिए यहां लगाए गए हैं।
भोजवासा से गोमुख
जब हम भोजवासा पहुंचे तो चार बज चुके थे, लिहाजा अब मुद्दा यह था कि गोमुख चला जाए या फिर भोजवासा में रुककर सुबह ट्रेकिंग शुरू की जाए। रावतजी का कहना था कि हमें आज ही गोमुख जाना चाहिए। लौटते वक्त अगर अंधेरा हुआ तो टार्च का सहारा लेंगे। सब थके हुए थे, लेकिन तैयार हो गए। भोजवासा से गोमुख की दूरी कहने को तो सिर्फ चार किमी है, लेकिन रास्तेभर पत्थर थे तो चलना मुश्किल हो रहा था। ऊपर से कुछ दूर चलते ही मौसम खराब होने लगा और बर्फ की फुहारें पड़ने लगीं। आसपास बचने की कोई जगह नहीं थी। ऐसे में कुछ समझ नहीं आया, हम बस चलते गए। गोमुख से वापस लौट रहा एक दल हमें दूर से हाथ हिला कर वापसी के लिए बोल रहा था। हालांकि थोड़ी देर बाद मौसम सामान्य हो गया। हम गोमुख पहुंचे तो शाम ढल चुकी थी। चूंकि बीते साल मलबा आने की वजह से गोमुख में झील बन गई थी और अब गोमुख अपने वास्तविक आकार में नहीं रह गया है। लिहाजा हमने पत्थरों के बीच से निकलती भागीरथी की जलधारा का आनंद लिया। सामने बर्फ की चट्टान थी और हमने उसे नजरों से छू लिया था। आंखों के सामने से दूर तलक पसरा गंगोत्री ग्लेशियर मानो नमक का रेगिस्तान हो। उसके अगल-बगल गंगोत्री-1 और 2 पीक आसमान छू रहे थे। ये नजारा किसी जन्नत से कम नहीं था। तब तक अंधेरा होने लगा था और मौसम भी दोबारा खराब होने वाला था। इसलिए थोड़ी देर ही हमनें लौटने का निर्णय लिया। अब हमें बस वापस लौटने की जल्दी थी। हम बस चलते जा रहे थे। थोड़ी देर बाद जब भोजवासा से कुछ रोशनी आती दिखी तो जान में जान आई। जीएमवीएन गेस्ट हाउस में पानी नहीं था, सो हम निर्मल बाबा के आश्रम पहुंच गए। वहां हमें मंदिर में सोने की जगह मिली। साथ ही दाल-भात भी। सच में, इस सुदूर क्षेत्र में आकर दाल-भात भी आनंद देता है। अभी हम खाना खा ही रहे थे कि बाहर बर्फ गिरने लगी थी, लेकिन थककर चूर होने के कारण किसी में भी बाहर जाने की हिम्मत नहीं बची थी। अब बस बिस्तर नजर आ रहा था। दो गद्दे बिछाए और दो रजाइयां ओढ़कर क्या कमाल की नींद आई। सुबह भोजवासा में एक नया अनुभव हमारा इंतजार कर रहा था…
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